सोमवार, दिसंबर 27, 2010

अप्रतिम दीठ




विनोद कुमार शुक्ल के नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी उपन्यासों पर सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद ... दूसरा हिस्‍सा
अनूप: बिल्कुल। घर को लेकर नौकर की कमीज के संतू बाबू के मन में अजीब तरह के संशय हैं। घर में दाखिल होने के दो दरवाजे हैं। वह दूसरे दरवाजे के लिए एक ताला भी ले आता है। एक तरफ वह ताला लगाता है, दूसरी तरफ पत्नी लगाएगी, क्योंकि अब वह भी डाक्टरनी के घर जाती है। ज्यादा देर तक अपने घर से बाहर रहती है। यह दूसरा ताला उन दोनों के मन में बड़ी उलझन पैदा करता है। संतू कहता है अपना अपना ताला लगाएं। मतलब दोनों की अपनी अपनी स्वतंत्रता बनी रहे। पत्नी को ज्यादा उलझन है। पति आगे से ताला लगा कर चला जाए पत्नी पीछे से, वो तो ठीक है, लेकिन पत्नी घर में पीछे से आ भी जाए तो भी लोग आगे का ताला देखकर यही समझेंगे कि घर में कोई नहीं है। यह उन घरों की उलझन है जहां की स्त्रियां कामकाजी स्त्रियां बनने लगी हैं। सीधे सादे आदमी का त होगा कि दो ताले क्यों, एक ताले की दो चाबियों से भी काम चल जाएगा। पर संतू की त पद्धति अपनी तरह की है। वह किसी से मेल नहीं खाती। वे दूसरा ताला ही हटा देना चाहते हैं। असल में वे घर को खुला ही रखना चाहते हैं
सुमनिका : घर के दो हिस्से खिलेगा तो देखेंगे में भी हैं, छोटा लॉक अप और बड़ा लॉक अप। इसके पात्र भी दीवालों से आगे और तालों से परे जाना चाहते हैं, प्रकृति की दुनिया में। लेकिन यहां एक अलीगढ़ी ताला है जो ग्राम सेवक के दरवाजे पर सदा लटका दीखता है
अनूप: ताले की उलझन दीवार में खिड़की रहती थी में भी है। वहां रघुवर प्रसाद टट्टी के लिए एक अलग ताला लेता है‎‎। उसका किराया भी अलग देता है। असल में वह प्राइवेसी हासिल करने का किराया देता है‎‎। यह बात उसके पिता की समझ में नहीं आती। जिस समाज में शौचालयों की कभी जरूरत ही महसूस न की गई हो; खुला खलिहान निर्भय निर्मल आनंद देता हो, जंगल पानी जाने का मतलब ही शौच निवृत्ति हो वहां 'एक्सक्लूसिव' टट्टी का होना किस पिता को समझ में आएगा। यह तो शहराती जीवन का नागर बोध है। जिस वर्ग में खरीदारी रोजमर्रा का काम न हो और कोई वस्तु जरूरत के लंबा खिंचे चले आने के बाद खरीदी जाती हो, वहां ताले की फिजूलखर्ची नहीं होने दी जाएगी। दूसरे ताले को पिता अपने साथ ले जाते हैं
सुमनिका: सभी उपन्यासों में बाहर की दुनिया में ताकत की सत्ता वाला समाज है जिसमें कमजोर का जीना बहुत दारुण है। खिलेगा तो देखेंगे में इसके बहुत से बिंब हैं। थाने से लेकर जीवराखन की दुकान, सिपाही और राउत हैं। पति पत्नी के बीच भी सत्ता के संबंध डेरहिन और जीवराखन की कथा में उभरते हैं। इसमें शुरू का दृश्य तो भीतर तक हिला देता है जब कोटवार का बेटा घासीराम जीवराखन को गालियां देता है और पुलीस उसे पकड़ लेती है। वो अपने तीन महीने के बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए गोद में उठा लेता है, छोड़ता नहीं। मार पीट में न जाने कैसे बच्चे की नाक से खून गिरता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इन दृश्यों को पढ़ना भी मुश्किल हो जाता है। जो सबसे कमजोर है वही सबसे पहले शिकार हो जाता है। जैसे खिलेगा तो देखेंगे में बच्चा और नौकर कर कमीज में मंगतू
अनूप: घर से बाहर की दुनिया में नौकर की कमीज में दफ्तर है जहां बड़े बाबू और साहब हैं और इनके बीच कई स्तरों के कर्मचारी हैं। किसी छोटे शहर के दफ्तर का बड़ा धूसर चित्र उकेरा गया है। संतू बाबू (नायक) सबसे ज्यादा तकलीफ में हैं क्योंकि वे नौकर में तब्दील नहीं होना चाहते। भरपूर जोर लगाने के बावजूद उन्हें नौकर की कमीज पहना ही दी जाती है। यह नौकर की कमीज एक रूपक की तरह है। संतू आदर्श नौकर मान लिया जाता है। दूसरी तरफ उसकी पत्नी डाक्टरनी की सहायिका बन जाती है। उसे धीरे धीरे इस भूमिका में सधाया जाता है। संतू यह देखकर परेशान हो उठता है कि वह साहब के बगीचे का घास छीलने वाला नौकर बन गया है। और उसकी पत्नी डाक्टर के यहां खाना बनाने वाली। इस जाल को तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं है। वह बुखार की बेहोशी में डाक्टर को गालियां बकता है। दफ्तर में कटहल के पेड़ पर चढ़कर कटहल तोड़कर कायदे कानून को धता बताता है। नौकर की कमीज में कोई परिवर्तनकारी कदम नहीं उठाया जाता। लेकिन जो रूपक नौकर की कमीज से बनाया गया है उसे जरूर अंत तक पहुंचाया जाता है। दफ्तर के बाबू लोगों ने कमीज को चिंदी चिंदी करके रखा है। अंत में वे सब मिलकर उसे जला देते हैं। इस तरह वे नौकरशाही में होने वाले शोषण का प्रतीकात्मक अंत करते हैं
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो दबाव के अनेक रूप हैं। वे अप्रत्यक्ष ही सही, पर पूरे जीवन पर प्रेतात्मा की तरह छाए हैं। न जाने कितने हैं जो भूख से लड़ रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है जहां चार जलेबी का स्वाद तीन चार दिन तक रहता है या कई बार तीन चार महीनों तक। इस उपन्यास में पिता अपने बेटे को भूखे रहते हुए जीना सिखाता है। डेरहिन जीवराखन के चंगुल से भाग जाती है और ताकतवर की हिंसा और प्रहारों को कमजोर लोग एक जादुई ढंग से रोक देते हैं यानी एक जादुई पत्ती पान में खिलाकर उनको गूंगा बना देते हैं। क्योंकि उनकी जबान ही गोली और बंदूक थी। और फिर एक स्वप्न सृष्टि का बिंब है
अनूप: दीवार में खिड़की रहती थी इसकी तुलना में अधिक रोमांटिक कहानी है। जीवन या परिस्थितियों से वैसी सीधी टकराहट यहां नहीं दिखती। नायक रघुवर प्रसाद गणित का प्राध्यापक है। उसका बॉस विभागाध्यक्ष है और दोनों का बॉस प्राचार्य है। एक ढर्रे पर जीवन चलता रहता है। प्रत्यक्षत: किसी को कोई कष्ट नहीं है
सुमनिका : लेकिन यहां भी विभागाध्यक्ष का दबाव कम नहीं है। और काम पर वक्त से पहुंचने का संघर्ष ही तो खासा बड़ा है और कष्टसाध्य है
अनूप : हां, लेकिन फिर भी लगता है न जीवन में कोई कमी है न जीवन से कोई शिकायत। उपन्यासकार की यह खूबी है कि वह अपनी तरफ से पात्रों में कुछ नहीं डालता। ठेठ गंवई जीवन है। पात्रों में जीवन जीने की तन्मयता है। सादगी है। इस सब में सादगी और सरलता उभरती है। प्रोफैसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है जो उसे महाविद्यालय लाता-ले जाता है। नवविवाहित प्रोफैसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। खिड़की से बाहर जाने में तो वह मन का राजा है ही, कालेज भी राजा की तरह हाथी पर सवार होकर जाता है
सुमनिका : हाथी का मिल जाना आपको सिंड्रेला को परी द्वारा दिए गए जीवन सा नहीं लगता? शीशे के जूतों जैसा और कुम्हड़े के रथ जैसा? यह हाथी जो एक बारगी उसे सारी दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है, पेड़ों की फुनगियों का दृश्य दिखा देता है। सब पीछे रह जाते हैं। रघुवर राजा हो जाता है।
अनूप : इस तरह हाथी को सवारी के रूप में लाकर उपन्यासकार सभ्यता के उपभोक्तावादी विकास को धता बताते हैं। यह विमर्श का एक अनूठा रूप हैý
सुमनिका : यह बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी है। आप कहना चाहते हैं कि इन सभी उपन्यासों में मुक्ति का एक समानांतर दर्शन दिया गया है। जहां सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो‎‎। यहां गरीबी का वर्णन तो है, लेकिन उसका महिमा मंडन नहीं। और महत्वपूर्ण यह है कि उसका जबाव अमीरी में नहीं खोजा गया है। मुझे तो लगता है कि विनोद कुमार शुक्ल का कथ्य, उनके नायक, उनका जीवन, उनकी भाषा, उनका सारा शिल्प प्रचलित शैलियों का बरक्स रचता है

शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

अप्रतिम दीठ


यह चित्र रविवार डॉट कौम से साभार

विनोद कुमार शुक्ल के नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी उपन्यासों पर सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद
यह संवाद हम दोनों के बीच है। अनौपचारिक वाद विवाद सम्वाद तो होता ही रहता है, औपचारिक संवाद का यह पहला अवसर है। हमारे लिए यह अनूठा और चुनौती भरा भी है। यह संवाद सापेक्ष के विनोद कुमार शुक्‍ल पर निकले वृहद् व‍िशेषांक में छपा है। संवाद लंबा है, इसलिए किस्‍त दर किस्‍त पेश कर रहे हैं

अनूप : मुझे लगता है हम विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों पर तीन हिस्सों में बात करें - ये उपन्यास क्या कहते हैं?, कैसे कहते हैं? और विनोद कुमार शुक्ल का देखना। क्या कहते हैं में कथा-कथ्य और कैसे कहते हैं में शिल्प की बात करेंगे, पर किसी भी संपूर्ण रचना की तरह यहां शिल्प कथ्य से अलग नहीं है। और तीसरा हिस्सा है उपन्यासकार का देखना यानी वे अपने जीवन-जगत, पात्रों-स्थितियों और प्रकृति को कैसे देखते हैं। यह हिस्सा पहले दो हिस्सों का विस्तार तो है ही, उससे अलग भी इस देखने की इयत्ता है जो कथा कथ्य को और विस्तार देती है और उनकी कहनी को नवीनता और गहराई
सुमनिका : क्या इनके तीनों उपन्यासों में कथ्य की दृष्टि से एक निरंतरता या समानता बनती है? तीनों उपन्यासों की दुनिया में झांक के देखा जाए -
उपन्यास क्या कहते हैं?
अनूप : उपन्यास क्या कहते हैं? तीनों उपन्यासों में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियां हैं। ये कहानियां ज्यादातर घर के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। नौकर की कमीज तो शुरू ही इन पंक्तियों से होता है - 'कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार बार घर से बाहर निकलूंगा'
सुमनिका : यह ठीक है कि घर उनके तीनों उपन्यासों का एक बहुत बड़ा और खूबसूरत हिस्सा है, लेकिन और भी तो हिस्से हैं इस दुनिया के। क्यों न बात इस तरह की जाए कि नौकर की कमीज की पृष्ठभूमि में एक छोटा शहर उभरता है जहां सरकारी दफ्तर, डॉक्टर की बगीचे वाली बड़ी कोठी, बाजार इत्यादि हैं जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में एक छोटा कस्बा उभरता है जहां साइकिल स्कूटर और टेम्पो चलते हैं। और खिलेगा तो देखेंगे में तो एक बहुत छोटा सा गांव उभरता है, झोंपड़ियों वाले घरों वाला और जहां पक्के मकान केवल दो हैं, एक थाना और दूसरा ग्राम सेवक का घर
अनूपः हां, तुमने कथ्‍य को लॉन्‍ग शॉट से देखा, मैं क्‍लोज अप से देख रहा था तो नौकर की कमीज में नायक संतू बाबू अपनी नई नई गृहस्‍थी में पत्‍नी को छोड़कर पहली बार घर से बाहर जाते हैं, अपने पुराने शहर मां को लाने के लिए ताकि जचगी में पत्‍नी को सहारा हो जाए पर भाई की बांह टूट जाने के कारण मां उनके साथ नहीं आ पाती है और वह उसी रात लौट आते हैं। बसें सब निकल चुकी हैं। बदमाश से दिखने वाले एक ड्राइवर ने उन्हें लिफ्ट दी। वह ड्राइवर खुद कई कई दिन घर नहीं पहुंच पाता था। पहले लड़के के पैदा होने के वक्त वह घर से आठ सौ किलोमीटर दूर था। लड़की के वक्त तीन सौ और तीसरी बच्ची के वक्त तो बस दस ही किलामीटर दूर था। पर हर बार घर की तरफ ही लौट रहा था।
सुमनिका : हां, घर के दृश्‍य तो बाकी दोनों उपन्‍यासों में भी बेहद मार्मिक और सुंदर, एक साथ हैं खिलेगा तो देखेंगे में तो बाहर की दुनिया को भी घर के बाहरी कमरे की तरह देखा गया है और अपने कमरे का दरवाजा बंद करना मानो बाहर की दुनिया को बाहर कैद कर देना है
अनूप : घर के प्रति उपन्यासकार का जबरदस्त आकर्षण है। नौकर की कमीज में संतू बाबू एक दफ्तर में नौकर हैं। नवविवाहित हैं। एक डाक्टर के बंगले के आहाते में किराए पर रहते हैं। निम्नमध्यवित्त के कारण घर में सामान बहुत कम है। गिनती की चीजें हैं‎‎। हरेक चीज का अस्तित्व है। बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। दीवार में खिड़की रहती थी में भी नवदम्पति एक कमरे के डेरे में रहता है‎‎। नायक रघुवर प्रसाद ने यह कमरा किराए पर लिया है। गौने के बाद बहू इसी घर में आती है। यही सोने का कमरा है, यही रसोई और यही बैठक।
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो गुरू जी को एक त्यक्त थाने में आकर शरण लेनी पड़ती है जो न पूरी तरह घर है न थाना, लेकिन इस गृहस्थी का भी अपना संगीत, अपना नाट्य और अपनी कविता है। घड़ा, खाट, सींखचों वाला दरवाजा, एक फूटी बाल्टी, गिलास जिसमें गृहस्थी की चाय ढलती है
अनूप : हां, विनोद कुमार शुक्ल के पात्र बहुत कम सामान के साथ सुखी लोग हैं। सब्जी लाना, खाना बनाना, खाट की आड़ बनाना जैसे नित्यक्रम धीमी गति से चलते हैं। नौकर की कमीज में पानी चूने का क्लेश है
सुमनिका : हां यह अपने आप में चूते हुए जीवन का बिंब है
अनूप : धीरे धीरे वह बड़े कष्ट में बदल जाता है। लेखक सामाजिक समस्या की तरह उससे निबटता है। यह कष्ट समाज में अर्थ-आधारित संस्तरों का है। संतू को खुद को और पत्नी को घरेलू नौकर में बदल दिए जाने का गहन मानसिक असंतोष और त्रास है। सारा उपन्यास उसी दिशा में आगे बढ़ता है। जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में लगभग घर के गिर्द ही कथा और कथ्य का वृत्त बनता है
सुमनिका : क्या ऐसा कहा जा सकता है कि केवल घर के गिर्द घूमता है वृत्त? मुझे लगता है कि यह उस जीवन के गिर्द घूमता है जिसमें घर और बाहर की दुनियाएं कहीं न कहीं जुड़ी हैं

सोमवार, सितंबर 06, 2010

स्त्री मन का अद्भुत निर्वचन


मन्‍नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्‍म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्‍वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्‍तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए अंतिम किस्‍त -


कहानी में एक और बेहद सुंदर वर्णन है । जब इंटरव्यू से मुक्त होने के बाद निशीथ के आमंत्रण पर दीपा और वह टैक्सी में बैठे हैं
'टुन की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से बात करने लगती है। निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, बीच में इतनी जगह छोड़कर कि यदि हिचकोला खाकर भी रुके, तो हमारा स्पर्श न हो'
दैहिक भंगिमाओं के इस अर्थगर्भित विवरण के बाद का विवरण तो काव्य की सीमा को छूने लगता हैý
'हवा के झोंके से मेरी रेशमी साड़ी का पल्लू उसके समूचे बदन के स्पर्श में पड़कर फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है। मुझे लगता है, यह रेशमी सुवासित पल्लू उसके तन मन को रस में भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे पुलकित कर रहा है। मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूं। ... ... जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा रही है, मुझे लगता है, उतनी ही द्रुत गति से मैं भी बही जा रही हूं, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर!'
फिल्म के लिए भी यह बहुत ही रोमानी, बहुत ही गर्भित क्षण है, फिल्मकार की अभिव्यक्ति को चुनौती देने वाला। और सचमुच ही मुंबइया फिल्मों के इतिहास में एक बड़ा सूक्ष्म दृश्य रचा जाता है। लेकिन उसमें फिल्मकार को कुछ कदम और आगे बढ़ना पड़ता है। फिल्म में भी दोनों टैक्सी के अंदर दूर दूर बैठे हैं। नवीन की आंखों पर काला चश्मा है। वह अपने भावों को खिड़की के बाहर देखने की भंगिमा में छिपाने की कोशिश में है। रेशमी आंचल इस बीच की दूरी को पाटने लगता है और नवीन को छूता है। फिल्म इस सब के दौरान एक बेहद सुंदर गीत का इस्तेमाल करती है। लेकिन साथ ही साथ कैमरा नवीन के हाथ पर भी फोकस करता है जो शिथिल सा उन दोनों के बीच में है। कैमरा दीपा की उन कनखियों को भी दिखाता है जो उस हाथ को देखती हैं। और दीपा तुलना कर उठती है। उसे संजय दिखता है जो उसे बाहों में घेरे है, और फिर वह कल्पना कर उठती है, और संजय की जगह नवीन ले लेता है यानी फिल्‍मकार के लिए अभिव्‍यंजना के ये क्षण उतने आसान नहीं थे इसलिए उसे आंचल के अलावा हाथ का भी इस्‍तेमाल करना पड़ा लेकिन ये हाथ इससे इकतरफा संकेत न रहकर नवीन के हृदय और इच्‍छा का भी वाह‍क बन जाता है
आज (दो हजार आठ के अंत में) साठ के दशक की ऐसी कहानी को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि यह बीते जमाने का द्वन्द्व है। आज भी अपने मानवीय सार के कारण यह कहानी तरोताजा लगती है। स्त्री विमर्श कहीं का कहीं पहुंच चुका है लेकिन इसने जो जमीन तोड़ी थी, उसका महत्व आज भी जस का तस है। दूसरी ओर फिल्म की तकनीक में भी आमूल परिवर्तन हो चुके हैं। फिर भी यह फिल्म एक कीर्तिमान की तरह आज भी स्थापित है
चलते चलते एक और बात, श्रेष्ठ कलाकृतियां जब जब एकाधिक माध्यमों में ढलती हैं तो आस्वाद के नए नए आयाम फूटते हैं। सौंदर्य के नए नए आभास होते हैं। अर्थछवियां, नई व्याख्याएं, नई दृष्टियां सब मिलकर उस रचना को पुनर्नवा बनाती रहती हैं। यही सच है जैसी कहानी और रजनीगंधा जैसी फिल्म भी कुछ ऐसा ही अनुभव जगाती है

सोमवार, अगस्त 23, 2010

स्त्री मन का अद्भुत निर्वचन


मन्‍नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्‍म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्‍वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्‍तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए छठी किस्‍त -

कहानी में नवीन से मिलने पर दीपा के मन में अनजाने ही जो तुलना संजय से होती जाती है, उसे भी जस का तस लिया गया है। जैसे संजय की विलंब से आने की पृष्ठभूमि में नवीन का समय से पहले आ जाना। या संजय का अपनी झोंक में दीपा की साड़ी और सौंदर्य को देखकर भी न देख पाना। जबकि तुलना में मितभाषी नवीन का यह उच्छवास, 'इस साड़ी में तुम बहुत सुंदर लग रही हो' दीपा को रोमांचित कर जाता है। देखा जाए तो यह भी एक सांयोगिक कंट्रास्ट ही बन जाता है कि दीपा के आग्रह के बावजूद ऑफिस की व्यस्तता के कारण संजय दीपा के साथ मुंबई नहीं जा पाता और इधर नवीन दीपा के लिए खुद को झोंक सा देता है और ऑफिस से छुट्टी तक ले लेता है
लेकिन कहानी की खूबी यह है कि अलग अलग व्यक्ति होकर भी लेखिका की तरफ से इन विशेषताओं के बल पर कोई मूल्यांकन नहीं किया गया है। न ही इनसे प्रेम की अधिकता या न्यूनता को मापने की कोशिश की है। दोनों पुरुषों का कभी सामना भी नहीं होता। वे तो लगभग एक दूसरे के अस्तित्व तक से अनजान हैं अत: पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता जैसा तो कुछ है ही नहीं। जो भी उलझन है वो दीपा के मन में है। वे दोनों तो अपनी अपनी तरह से दीपा से जुड़े हैं और अपने अपने अंदाज में प्रेम का अनुभव और अभिव्यक्ति भी करते ही हैं। सारा द्वन्द्व और चुनाव का सारा जोखिम तो दीपा के ही हिस्से में आया है। और एक बिंदु पर वह अपने लिए एक त गढ़ती है कि शायद प्रथम प्रेन्रेम ही सच्चा प्रेम होता है
फिल्म में संजय दीपा को मुंबई के लिए विदा करने स्टेशन तक आता है, जबकि कहानी में ऐसा नहीं है। इस दृश्य से नवीन द्वारा दीपा को विदा करने के दृश्य में समांतरता पैदा होती है और साथ ही फिल्म में एक संतुलन बनता है। विदा लेने और देने का मोटिफ और अलग होने की पीड़ा दोनों में उभरती है। लेकिन फिल्म में जिस तरह गाड़ी के चलने से पहले बहुत सी भाप इंजिन से निकलती है और स्क्रीन पर धुंए का एक बादल सा छा जाता है, उसी के बरक्स दीपा का संयम टूटता है। संवेग का वाष्प आंसू बनकर बह निकलता है।
सबसे बढ़कर है रजनीगंधा के फूलों का काव्यात्मक मोटिफ जिसका इस्तेमाल फिल्म ने भी उतनी ही खूबसूरती से किया है बल्कि फिल्मकार ने इसे एक केंद्रीय मोटिफ (अभिप्राय) के रूप में चुना है। इसीलिए ये फूल फिल्म का नाम बनते हैं। कई तरह से रजनीगंधा के फूलों का प्रयोग कई तरह से हुआ है। इन फूलों के माध्यम से प्रेम का एक ऐन्द्रिय आयाम भी उभरता है। कभी दीपा फूलों को देखती है, मंद मुस्कान के साथ, कभी कोमलता से उन्हें छूती और अपने गालों पर महसूस करती है। कभी खुद को आइने में फूलों के साथ निहारती है तो कभी फूलों को अपने सोने के कमरे में ले आती है। एक पूरे गीत में उनके प्रतीक को स्वर दिए गए हैं। यह पीछे छूटी प्रेम की मदिर खशबू के रूप में तो आता ही है, संजय के अस्तित्व के साथ भी जुड़ा है। बार बार ये फूल आते हैं। दीपा के मन में संजय की उपस्थिति से वे जुड़ गए हैं।
'और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।'
कहानी में एक जगह दीपा रजनीगंधा के अनेक फूलों में संजय की आंखें देखती है, 'जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं ', और यह कल्पना ही उसे लजा देती है। फिल्म में इस अमूर्त भाव को भी फिल्मकार ने अभिनय क्षमता से मूर्त किया है। फिल्म में भी ये बार बार दिखते हैं। संजय के आने के साथ और संजय के जाने के बाद तक भी वे एक कोने में महकते रहते हैं। कहना न होगा कि रजनीगंधा के सफेद महकते फूल एक स्तर पर संजय के खिले हुए अस्तित्व और दूसरे स्तर पर तन मन पर बरसते प्रेम भाव का प्रतीक हैं।
'लौटकर अपना कमरा खोलती हूं, तो देखती हूं, सब कुछ ज्यों का त्यों है सिर्फ फूलदान के रजनीगंधा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झर कर इधर उधर भी बिखर गए हैं'
यह दृश्य मुंबई से लौट के आने के बाद का है और फूलों का मुरझाना संजय की छवि के मंद पड़ जाने से सहज ही जुड़ जाता है
नवीन को खत लिखती हुई दीपा सूने फूलदान को देखती है लेकिन फिर कतरा कर दिशा बदल कर सो जाती हैý

बुधवार, अगस्त 18, 2010

स्त्री मन का अद्भुत निर्वचन



मन्‍नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्‍म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्‍वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्‍तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए पांचवीं किस्‍त -


फिल्म में कहानी के पात्रों का चरित्रांकन बहुत महत्वपूर्ण है। शायद इस कथा और फिल्म के बीच जो संवाद घटित हुआ घटा है वह इस कहानी के तीन पात्रों को लेकर है। फिल्मकार ने उन्हें चेहरा और रूप देकर स्थिर सा कर दिया है। यानी कहानी की मूर्तता पर अंतिम मुहर लगा दी है। और इसके अलावा तीनों चरित्रों को विशिष्ट मैनरिज्म देकर प्रामाणिकता और कंट्रास्ट को गहरा किया है। इससे ये चरित्र दर्शक के मन में स्थाई जगह बना लेते हैं। दीपा की सहज सुंदर पर सादा छवि को विद्या सिन्हा ने मूर्त किया है। सूती साड़ी पहने हुए उसका सादा और भावमय रूप आंखों में बस जाता है। फिल्मकार ने उसका आभरण भी बेहद सादा रखा है। सादगी भरी यह सुंदरता ही उसकी पहचान बन जाती है। क्लोजअप में कभी कभी बस एक मोती का कर्णाभूषण चमकता है। अपनी लंबी चोटी को कभी आगे कभी पीछे ले जाती, अनजाने में कभी खोलती कभी गूंथती उसकी अंगुलियां एक मैनरिज्म रचती हैं और उसके खुलते और बंद होते मन की भंगिमा बन जाती हैं। कहानी तो दीपा के भीतरी स्पेस से ही रची गई है पर फिल्म को तो बाहर से ही भीतर जाना पड़ता है। फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में दीपा चुप है इसलिए फिल्म में उसकी देहभाषा का ही बारीक अंकन है। उसकी खीझ और तुनक, फिर उसका पिघल उठना, उसकी असुरक्षा, उलझन, कातरता को कहानी में शब्दों के जरिए व्यक्त करना इतना कठिन नहीं, लेकिन फिल्म में उसकी लंबी नि:शब्दता को पार्श्व संगीत से, छोटी छोटी हरकत और अभिनय से मूर्त किया गया है और मन के भीतर समानांतर चलने वाले एकालापों, उलझनों और इच्छाओं को फिल्मकार ने दृश्य को फ्रीज करके सुनाने की तकनीक अपनाई है। उसके चरित्र में भी अंतर्निहित विरोधाभास है कि वो एक स्तर पर आधुनिका और आत्मनिर्भर होकर भी हृदय के स्तर पर अपराजेय और अभेद्य नहीं है। सपनों में खोई सी या अपने में उलझी सी यह भावुक लड़की कभी कभी बेहद कातर, अकेली, असहाय और असुरक्षित नजर आती है। और इसी पक्ष को उभारने के लिए बासु दा ने फिल्म की शुरुआत एक ऐसे दु:स्वप्न से की है जहां चलती ट्रेन में वो नितांत अकेली छूट गई है या एक निचाट प्लेटफार्म पर अकेली छूट गई है
नवीन के व्यक्तित्व को फिल्मकार ने लेखिका की आंखों से ही देखा है। यह और बात है कि उसमें कुछ आयाम और जोड़ दिए गए हैं। कहानी में निशीथ का अंतर्मुखी रूप संजय के खुले और सहज व्यक्तित्व का लगभग प्रतिपक्ष ही है। कवियों जैसे लंबे बाल और दुबला संवलाया चेहरा कहानी की तरह फिल्म में भी है। तो भी संजय के बरक्स उसे थोड़ा विशिष्ट बना दिया गया है। संजय की वेषभूषा और अंदाज ऑफिस जाने वाले किसी भी आम और मध्यवर्गीय युवा क है, और उसके कपड़ों और बालों पर ध्यान नहीं जाता। दूसरी ओर फिल्म का नवीन सादा होकर भी कुर्ते और पतलून में दिखाई पड़ता है। उसके व्यक्तित्व में उस समय के मीडिया की दुनिया और कलात्मकता का हल्का सा पुट है। थोड़ा सा बुद्धिजीवियों वाला अंदाज और अदा। फिल्म का नवीन एक के बाद एक सिगरेट जलाता रहता है और बहुत बार उसकी आंखों पर एक गहरा चश्मा रहता है जो उसके स्वभाव की अंतर्मुखता के अनुरूप उसके भावों को छुपाए रहता है। नवीन की जो छवि फिल्म में उभरती है वह अपने समय के बौद्धिक अथवा कलाकार वर्ग की हैý
दूसरी ओर संजय के व्यक्तित्व को काफी विस्तार दिया गया है। अनेक सहज दृश्यों के माध्यम से उसके व्यक्तित्व और दीपा से उसके संबंध की दृश्यात्मक व्याख्या की गई है। सबसे बढ़कर इस चरित्र के माध्यम से बासु दा ने हल्के ह्यूमर की सृष्टि की है। उसके आते ही पात्रों और दर्शकों के होठों के कोरों पर एक मंद मुस्कान आ जाती है। अक्सर उमस के बाद एक खुश्बूदार हवा के झोंके की तरह वो आता है। उसका मुस्कुराता चेहरा जब जब दिखता है, फिल्म का तनाव बिखरकर, धुंआ बनकर उड़ने लगता है। वह खिलखिला के दूसरों को हंसा देने वाला पात्र है, बला का बातूनी और भुलक्कड़। लेकिन अंतत: हर समस्या को गोली मारो के तकिया कलाम से उड़ा देता है। दीपा के साथ रहते हुए भी दफ्तर, चीफ, प्रमोशन, रंगनाथन, मेमोरेंडम और आखिर यूनियन की मांगें उसके दिमाग में भरी रहती हैं - और कभी कभी दीपा चिढ़ भी जाती है। दिल्ली की बरसात में अपनी फटी छतरी में जिस निर्कुंठ भाव से वो दीपा को बुलाता है, वो दृश्य बेहद सुंदर ही नहीं, रोमान की एक नई व्याख्या भी करता है। कहानी में बार बार देर से आने का जो सूत्र लेखिका ने दिया है, फिल्मकार ने उसे तरह तरह से उठाया है। फिल्म की शुरुआत में ही थियेटर के बाहर बेचैनी से इंतजार करती दीपा का दृश्य है। एक और दृश्य में वो फिल्म आधी बीत जाने पर पहुंचता है ओर उसके बाद भी टिककर फिल्म देख नहीं पाता। इसी बिंदु पर बासु दा फिल्म में फिल्म दिखाकर मानों मुंबइया फिल्मों पर एक टिप्पणी कर जाते हैं। भड़कीले गीत, चालू नाटकीयता दि‍खाकर वे एक विरोध का आभास भी यहां दे देते हैं