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लास्य कागज़ पर चारकोल सुमनिका |
शिल्प और काव्यकला : परस्पर संवाद
कभी सोच के देखें कि तरह तरह की कलाओं का अस्तित्व
आखिर है ही क्यों। क्यों नहीं कोई एक ही कला सब कुछ समेट ले । लेकिन यह सम्भव नहीं
दिखता। विभिन्न कलाओं के होने का कारण ही शायद यह है कि यह जीवन इतना परिपूर्ण, इतना
समग्र है, उसमें इतने आयाम हैं, इतने पक्ष हैं कि हर कला अपने विलक्षण अंदाज़ में जीवन
की व्याख्या अपने निजी ढंग से करती है। जीवन के सार तत्व को अपनी अपनी विशिष्ट भाषा,
निजी व्याकरण में ढालती है। यह दुनिया तो एक ही है पर उसी एक दुनिया में संगीतज्ञ संगीत
के संयोजन सुना करता है, चित्रकार रंग-वर्णों के संयोजन देखा करता है, रेखाओं के साथ
बहता रहता है। हर कला इसीलिए बेहद ज़रूरी है
कि वह ऐसा कुछ मौलिक अनुभव देती है, जीवन का विशिष्ट सौन्दर्यबोधात्मक दर्शन कराती
है, संज्ञान कराती है, और कल्पना को उद्भुद्ध करती है जो उस रूप में दूसरी कला नहीं
कर सकती। और यों सब कलाएँ मिल कर ही इस जीवन की समृद्धि और जटिल सौंदर्य को प्रतीकित
करती हैं, रचती हैं।
●
लेकिन फिर इन कलाओं में आपसी रिश्ते भी हैं, साम्यताएँ भी हैं, इनमें
परस्पर सम्वाद भी होता है, आपसी आकर्षण और प्रतिस्पर्धाएँ भी हैं, आंतरिक नज़दीकियाँ
और दूरियाँ भी हैं। भारतीय कला-परंपरा में भी अक्सर कुछ कला युग्म मिलते हैं जैसे काव्य-चित्र,
काव्य-संगीत, काव्य-नाट्य, शिल्प और वास्तु, चित्र एवं शिल्प इत्यादि। यानी हर कला किसी न किसी बिंदु पर दूसरी में प्रवाहित
हो जाती है। कब कोई इम्प्रेश्निस्ट चित्र अपने वर्णों के सामंजस्य में, हारमनी में,
संगीत हो जाता है, और फिर कितनी भी मूर्त कला हो, शायद हर कला संगीत की तरह अमूर्त
होने की कामना रखती ही है। शिल्पकला को शायद इसीलिए ‘फ्रोजेन म्यूजिक’ कहा जाता है।
●
तो जब मैंने अपना प्रदत्त विषय पढ़ा, अर्थात मूर्ति
और काव्य के सम्बंध.. तो मैं एकबारगी अचकचा गई। पहली नज़र में यह लगा कि ये दो कलाएँ
तो ललित कलाओं के स्पेक्ट्रम में, उनके विस्तार में काफी दूर दूर हैं- लगभग दो सिरों
पर, बल्कि ध्रुवों पर खड़ी हैं। लेकिन जब सोचना शुरू किया तो लगा कि यद्यपि दूरी हो
सकती है पर दोनों में परस्पर संवाद तो होता आया है, तरह तरह से।
*
मूर्तिकला और चित्रकला जैसी दृश्यकलाएँ प्राचीनतम
कलाएँ मानी जाती हैं, शिल्पकला तो प्रागैतिहासिक काल की है। पाषाणकाल में जब मनुष्य
ने पत्थर घिस घिस कर औज़ार बनाए थे तब वह शिल्पकला के अन्तराल में प्रविष्ट हो चुका
था।
मूर्तिकला या शिल्पकला का माध्यम भी पाँचों ललित कलाओं में सबसे अधिक कठोर है, कठिन है, श्रम एवं कौशल साध्य है। माध्यम की प्रकृति के अनुरूप ही उसके औज़ार (टूल्स) भी हैं जैसे हथौड़ी, छेनी, विभिन्न तरह के चाकू इत्यादि। और फिर माध्यम में तरह तरह की प्रकृति और रंग वर्ण के पाषाण, धातुएँ, काष्ठ, मिट्टी इस फिर मोम....
दूसरी ओर साहित्य या काव्यकला का माध्यम बेहद नमनीय है- अर्थात शब्द एवं भाषा जो कदापि अपरिष्कृत या ‘रॉ’ नहीं है। वह तो पहले ही से अर्थवान है, एक रचित व्यवस्था है, संकेतों की, रेडियम की तरह रेडियोएक्टिव, जीवित, सप्राण, निरन्तर आकार लेती, बदलती, जेनेरेटिव प्रकृति वाली। शब्द और भाषा की उत्पत्ति सामाजिक तहों से होती है अतः उसकी प्रकृति सामाजिक है। कवि उस पर एक स्वर्णकार की तरह काम करता है। शब्द के संयोजनों, बिम्बों, प्रतीकों , वाक्यों को रचता है। शब्द जिसमे पहले ही से कमसकम तीन आयाम तो होते ही हैं -शब्द का अभिधात्मक अर्थ, उसका नाद गुण और फिर उसके साथ अर्थ की मनोवैज्ञानिक छायाएँ भी शब्द में ही समाई होती हैं। कभी काव्य को श्रव्य कलाओं में गिना जाता था लेकिन दीर्घ समयक्रम ने इसे पाठ्य बना दिया है, और पुस्तक के पृष्ठ पर छपी हुई कविता का एक भौतिक रूप या स्ट्रक्चर भी होता है।
फिर शिल्पकला और काव्यकला का एक बड़ा भेद स्थानिक और कालिक कला का भेद भी है। शिल्पकला को स्थानिक या (spatial) कला कहा जाता है, क्योंकि यह एक स्थान में आकार लेती है, स्थान को घेरती या भरती है, बल्कि कहना चाहिए कि एक स्थान को अपने रूपाकार से परिभाषित कर देती है। और वही क्यों वरन उस स्थान के चहुंओर के स्पेस को भी जीवंत बना देती है। चित्र कला की तरह यह नयनों का विषय तो है ही, अतः यह दृश्यकला है और प्लास्टिक आर्ट अर्थात सुनम्य कला भी है, यानी जीवन के अनेक रूपों को त्रिआयामी छवियों में ढालने वाली, आयतन या वॉल्यूम में ढलने वाली कला। शायद इसीलिए जीवन रूपों के यह सबसे अधिक निकट भी तो है।
दूसरी ओर
काव्य, संगीत, नृत्य और नाट्य आदि कलाएँ कालिक या (टेम्पोरल) कलाएँ कहलाती हैं- यानी
समय में गतिमान, आशंसक के सम्मुख क्रमशः प्रकट होती हुईं, आकार ग्रहण करती हुईं, अनुक्रम
में (सीक्वेंस), शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, सम्वाद दर सम्वाद …..
यानी एक साथ या सहक्रम में प्रकट न होकर धीरे धीरे
प्रकट होती हैं।
●
शिल्पकला
की अपील भाषा-भेद की दीवारों से परे बेहद आद्य (आदिम) और वैश्विक है, बहुत हद
तक उम्र और संस्कृतियों के विभाजनों से भी परे… क्योंकि उस के पास चित्रभाषा है, देह
भाषा है, मुद्रा और भंगिमा की भाषा है। ऐसे तो
जीवन-जगत का हर रूप शिल्पकला का विषय है पर सब से केंद्रीय विषय तो मनुष्य ही
है। मनुष्य रूप शिल्पकला का इकलौता विषय नहीं
पर फिर भी नाभिक तो ज़रूर रहा आया है, यों वहां पशु रूप हैं, वानस्पतिक रूप हैं, अनेक
दैनिक उपादान या फिर काल्पनिक और मिथकीय रूप भी अपनी विशिष्ट भंगिमाएँ लिए खड़े मिलते
हैं- हमारी तमाम इंद्रियों के सम्मुख। नयन तो नयन, हमारी स्पर्श सम्वेदनाओं के सम्मुख
भी। शायद इसीलिए शिल्प कृतियों को देख कर उन्हें स्पर्श करने की लालसा होती है, और
शायद इस स्पर्श सम्वेदना के कारण
ही इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार एडगर डेगास ने इसे ‘ब्लाइंड मैन’स आर्ट’ कहा था। अर्थात
यहाँ हमारा सामना एक भौतिक, ‘लगभग’ जीवित उपस्थिति से होता है, जिसे अनदेखा करना संभव
नहीं हो पाता।
●
शिल्पकला जीवन के एक अचल क्षण को मूर्तिमान करती है, लेकिन इस स्तब्ध क्षण में सदा गति अंतर्निहित होती है,
अभिव्यंजित होती है। अर्थात यह एक क्षण, अचल
क्षण, अपने में बेहद प्रातिनिधिक, बेहद नाटकीय क्षण हो सकता है या फिर इस मूर्ति में
ढलते ही नाटकीय हो जाता है। यह कंप्रेस्ड क्षण
किसी वृत्तांत का एक बिंदु हो सकता है, जीवन -प्रवाह की श्रृंखला का एक ऐसा
क्षण जिसमें भूत और भविष्य की छाप भी है। तो एक रूप में स्पेशियल (स्थानिक) होकर भी समय यहाँ निबद्ध है। फिर एक रूप (फॉर्म) तमाम तरह की दैहिक और मानसिक गतियों और मुद्राओं
का भी धारक तो होता ही है। आधुनिक शिल्पकला के जनक कहे जाने वाले
फ्रांसीसी शिल्पकार अगस्ट रोदां (1840-1917) मनुष्य के भीतरी, अबूझ, अदृश्य
भावनात्मक संसार तक शिल्प के माध्यम से पहुंचना
चाहते थे। अपने जगत प्रसिद्ध शाहकार ‘थिंकर’ शिल्प कृति के बारे में उनका कहना
था कि उनका चिंतक केवल मस्तिष्क से, माथे की
आपस मे गुथी भवों से, अपने कसे हुए होठों से ही नहीं सोच रहा वरन अपनी बाहों, पीठ और पैरों
की तमाम पेशियों से और अपनी भिंची मुट्ठी
और पैर के अंगूठों तक से सोच रहा है। देह का कोई भी हिस्सा भावनात्मक अभिव्यंजना
से शून्य नहीं, वरन सम्पूर्ण का प्रतिनिधित्व
कर सकता है। इसीलिए रोदां ने मनुष्य के हाथों
की विभिन्न भंगिमाओं से मनुष्य के आंतर संसार को अभिव्यक्त किया है।
देखिए…
शिल्प में गति के कितने रूप हो सकते हैं, उसके अनेक उदाहरण लिए जा सकते हैं।
● रोम से प्राप्त लोआकून एवं उसके पुत्रों की विश्वविख्यात प्राचीन शिल्पकृति में एक ट्रोजन पुरोहित लोआकून और उसके बेटों को दो बड़े समुद्री सर्प अपनी कुंडली में कसते जा रहें हैं और वे तीनों प्राणपण से मृत्यु की जकड़न से जूझ रहे हैं। देखिए उनकी संघर्षरत, भीति से जकड़ी - कसमसाती देहें, आसन्न मृत्यु की यंत्रणा…
● इसी तरह माइकलएंजेलो की कृति ‘पिटी’ या ‘पीएटा’ (इतालवी) में कुमारी मेरी की गोद में पुत्र ईसा का मृत शरीर, गति के एक बिल्कुल अलग तरह के आयाम की अभिव्यंजना है। मेरी का झुका माथा, हर नक्श दुख में जम सा गया है, उसकी गोद मे बेटे की मृत देह जैसे अभी अपनी प्राणहीनता के भार से धरती पर फिसल जाएगी। मृत देह के अंग-उपांग ही नहीं, रग रग मरण को दृश्य बना रही है। ठहरी हुई ऐसी व्यथा की अभिव्यंजना कला की दुनिया में दुर्लभ ही है।
● गति का
एक और रूपाकार स्मृति में है, लगभग हाथ भर का एक छोटा मानवाकार, बस कंडक्टर का रूप।
न वहां बस अंकित हुई थी न सीट इत्यादि। बस कंडक्टर खड़ा था, मानो चलती बस में अपने दो
पैरों को जमाए, स्थिर रह पाने, सन्तुलन साधने की देह मुद्रा में, अपना काम करता हुआ।
● और अगर
यह कहें किशेषशायी विष्णु या समाधिस्थ शिव और
बुद्ध की ध्यान मुद्रा में गति का पूर्ण शमन है तो यह भी सच नहीं होगा, क्योंकि
ध्यान और विश्रांति भी गति का एक पड़ाव है।
●
अब शिल्प और काव्य के संवाद की बात की जाए। कला
इतिहास को पीछे मुड़ कर देखें तो रेनेसां पुरुष महान शिल्पकार मायकलेंजलो कवि भी थे।
अगर दृष्यकलाओं का वे ऐसा चमकता सितारा न होते तो शायद हम उन्हें एक सोनेटकार के रूप
में याद रखते। लेओनार्दो द विंची भी ऐसे ही थे।
और फिर यह सम्वाद एक ही व्यक्ति आत्मा से भिन्न,
दो कलाकारों के बीच भी तो घटित होता आया है। जर्मन कवि रेने मारिया रिल्के और फ्रेंच
शिल्पकार रोदां के सम्बंध भी विख्यात हैं। युवा रिल्के ने लगभग एक शिष्य की सी भक्ति
और निष्ठा से ‘हीरो वरशिप ‘करते हुए शिल्पकार के सानिध्य में वक्त गुज़ारा। वे रोदां
को काम में तल्लीन क्षणों में निहारा करते, कारण दोनों ही मनुष्य के भीतरी संसार तक
अपने अपने ढंग से पहुंचना चाहते थे, उसे अभिव्यंजित करना चाहते थे।
रिल्के, रोदां की मानवीय हाथों वाली कला शृंखला
से बेहद प्रभावित हुए थे। एक पियानो बजाने वाले का हाथ, सोते मनुष्य का हाथ, कुछ चुराता
हुआ हाथ, अपनी भावनाओं को भींचे हुए एक हाथ…
न जाने कितनी भंगिमाएँ। यह हाथ ईश्वर और कलाकार का भी हाथ था और कलम थामने वाले
कवि का भी।
रोदां के करीब रहते हुए युवा रिल्के ने पांच वर्ष
लगा कर रोदां पर एक विनिबन्ध लिखा जिसमें उनकी रचना प्रकिया और कला पर अद्भुत अंतर्दृष्टियां
हैं। उन्होंने रोदां पर एक के बाद एक अध्याय लिखे और आज यह विनिबंध रोदां के अलावा
स्वयं रिल्के की सौन्दर्यबोधात्मक दृष्टि का परिचायक भी है।
●
रिल्के ने
‘आर्केक टोरसो ऑफ अपोलो’ नाम की कविता लिखी थी जिसमें अपोलो के भंजित धड़ का अनूठा वर्णन था। शब्दों
या काव्य में किसी दूसरी दृश्यकला या दृश्यकृति का वर्णन ekphrasis कहलाता है। इसी का
एक और उम्दा उदाहरण अंग्रेज़ कवि शैले की कविता Ozimandias है जिसमें
वे रेगिस्तान की रेत में पड़े एक भग्न
मनुष्य- रूप का वर्णन करते
हैं जिसके विशाल पैर तो हैं पर ऊपर का धड़ गिर चुका है। लेकिन रेत में धँसा एक मुख अभी
तक अलग पड़ा है। इसके माथे पर के बल, एक मुड़ा
हुआ ओठ अहंकार और सत्ता के मद का बयान कर रहा है।
यानी उस राजा का भीतरी चरित्र पत्थर में अंकित हो उतर आया है, और आज भी उस भग्नावशेष में बचा हुआ है।
इसी तरह हिंदी कवि विनय कुमार ने दीदारगंज की यक्षिणी
पर एक लंबी कविता लिखी है और उसमें मौर्य काल से आज तक का समय और वातावरण समाया हुआ
है।
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आइए अब देखते हैं एक कला के दूसरी में प्रवाहित होने की अनूठी प्रक्रिया। इसे शिल्पकला में कविता का क्षण भी कहा जा सकता है। शिल्पकला की सबसे बड़ी विलक्षणता उसकी अचलता और मौन है तो काव्य में गतिमान शब्दाधारित अनुभव या व्यंजना है। तो इसे ही आधार बना कर इस संवाद को समझते हैं।
अचल प्रतीत होने वाली शिल्पकृति में जब हम अंतर्निहित गति का अनुभव करते हैं, और अपनी देह में उसे महसूस करते हैं, धीरे धीरे शिल्पकृति के गिर्द घूमते हुए, अनेक कोणों से उसे निहारते हैं, तो हमारे प्रतिबोध और सम्वेदनाएँ भी किंचित बदलती जाती हैं। उदाहरण के तौर पर माइकलएंजेलो की शिल्पकृति ‘डाईंग स्लेव’ (मरता हुआ दास) को देखें। एक कोण से लगता है कि वह निष्प्राण हो चुका है, दूसरे कोण पर एक आशा जगती है कि अभी भी उठने की कोशिश कर रहा है, अगले कोण यह आशा टूटने लगती है, और यह क्रम चलता रहता है- निरन्तर एक संघर्ष… जीवित रहने का, न रह पाने का, सदियों से। यह मूर्ति में काव्य का क्षण है।
फिर किसी भी शिल्पकृति के पाठ में आशंसक का अनुभव भी पहले इंद्रियों से शुरू होता है, फिर धीरे धीरे हम उसके मनोवैज्ञानिक आशयों के प्रति सचेत होने लगते हैं, और अन्ततः इद्रियों, मन, बुद्धि, विचार और चेतना का सहकार मिलकर जो सौंदर्यबोध कराते हैं, वह क्रमिक ‘रीडिंग’ या पाठ शिल्प में कविता के पाठ जैसा ही है।
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दूसरी ओर कविता का तो आरम्भ ही शायद कवि के मानस में तब होता है जब बहते हुए जीवन प्रवाह का कोई एक क्षण, कोई पात्र, कोई पक्ष, कोई छवि या बिम्ब चेतना में ठहर जाता है, स्थिर हो जाता है, तस्वीर सा उतर आता है। तब यही मार्मिक क्षण, कलाकार (कवि) के लिए सौन्दर्यबोधानुभव का क्षण होता है, कविता के आरम्भ का बीज क्षण होता है।
और यों अपने इस बीज के गिर्द, कवि बिम्बों का एक वितान तानता है, बिम्बों की एक पाँत रचता है, धीरे धीरे। या कहें कि एक मूल बिम्ब के पहलू दर पहलू खोलता है, और यों एक काव्यकृति बुनता है।
दूसरी ओर कविता के पाठक या श्रोता (आशंसक) के लिए कविता को पढ़ते/सुनते हुए एक बिंदु ऐसा ज़रूर आता है, जहां अर्थ या अनुभव संघनित सा होने लगता है, स्थिर सा हो जाता है, स्थापित होकर अचल हो जाता है, यानी अर्थ के अनुभव का एक उच्चतम बिंदु (अपैक्स पॉइंट) । वही मेरे लिए कविता में मूर्ति का क्षण है।
मूर्ति कला पर कुछ नोट्स
(संदर्भ : रमेश कुंतल मेघ)
रमेश कुंतल मेघ के सौंदर्यबोध शास्त्र को समझने के निमित्त यह लेख कोलकाता से प्रकाशित मुक्तांचल पत्रिका के मेघ विशेषांक में छपा था।
शिल्पकला या मूर्तिकला की बात अगर चले तो
कुछ स्मृतियाँ कौंधती हैं, जैसे क्रमशः कोहरे में से, धुन्ध और धुँए में से प्रकट हो
रही हों। कुछ मूर्तिशिल्प थे जो बचपन और किशोरावस्था में हमारे साथ हमारे घर मे रहा
करते थे। घर के भीतर अपने निर्धारित कोनों में स्थापित वे पश्चिमी सौंदर्य छवियां और
दृश्य थे। साल दर साल वहीं। अगर किसी दिन वे अपनी जगहों से हटते तो चतुर्दिक दृश्य
की कैफियत खटकने लगती शायद।
फिर घर से बाहर किसी चौराहे पर किसी इतिहास
पुरुष, किसी घुड़सवार की भव्य प्रतिमा, रंग बदलते आकाश के नीचे। उसके इर्द-गिर्द जीवन
नदी सा बहता रहता, लेकिन वह स्थिर, थमी हुई सबको देखती रहती। याद आता है किसी बगीचे
में बारिश में भीगती कोई आवक्ष मूर्ति। फिर मुम्बई आदि शहरों के संग्रहालयों में स्पॉटलाइट
की दीप्ति तले देखी गईं अनेक मूर्त-अमूर्त शिल्पछवियां। अरब की खाड़ी यानी समुद्र में
फेरी से घारापुरी द्वीप की यात्रा के बाद हाथीगुम्फा (एलिफेंटा) के भीतर नीम अन्धेरे
में प्रकट होती त्रिमूर्ति के विराट तीन मुख, विराटकाय अर्धनारीश्वर, और शिवकथा के
अनेक नाटकीय क्षणों को अंकित करने वाले तमाम फलक। ढाई हजार साल पुरातन कान्हेरी या
कृष्णशैल की शिला को काट कर बनाये गए चैत्य और विहारों में कोरी गईं बुद्ध और बोधिसत्वों
की ध्यान में डूबी छवियाँ।
और फिर पेरिस के लूव्र में अचंभित कर देने
वाला यूनानी, रोमीय और मिस्री शिल्प कला का अपार वैभव। फ्रांस के ही वर्साइ राजमहल
से संलग्न व्यापक बाग बगीचों, जलाशयों के आसपास और बीच में रखी गईं आदमकद मूर्तियाँ-
विभिन्न मुद्राओं और भंगिमाओं में। कहीं कभी किसी के अंग भग्न भी हों तो भी उसके पूर्ण
प्रभाव में कोई भंग या दरार नहीं आने पाती, जैसे जीवित से भी कुछ अधिक प्राणवत्ता थी,
विलक्षणता थी।
यह सब था, लेकिन रहस्य भरे इस सम्मोहन के
आगे तो कुछ नहीं था, बस ठिठक जाना भर, दृष्टि का अटक जाना भर, कुछ देर के लिए चेतना
का रोज़मर्रा के भाव प्रवाह से अलग हो जाना, निजमूलों से छिटक जाना, कुछ मुक्तमना सी
अवस्था। यह कैसा देखना था भला।
हम इसी जगत में, इसी रूपमय जगत में रहते
चले जाते हैं, भीड़ में से गुज़रते हैं, बाज़ारों में निकलते हैं, आस पास मनुष्य, पशु,
वस्तुएँ… और दृष्टि है कि इधर उधर फिसलती रहती है, ज़्यादा तो कहीं रुकती ही नहीं, पर
फिर अचानक एक काले ग्रेनाइट पत्थर में या श्वेत
संगेमरमर ढली कोई मनुष्यदेह खड़ी मिलती है, कोई
काष्ठ का चेहरा, कोई आवक्ष प्रतिमा,
कोई चेष्टा, कोई मुद्रा, कोई भंगिमा और हमारी
आंख थिर हो जाती है, अटक जाती है, आबद्ध हो जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि हर आंख
वहाँ अटके ऐसा ज़रूरी भी नहीं क्योंकि चीजों और जनाकीर्ण जगत को देखते देखते हमारी आँखें
एक तरह के बासीपन और अंधत्व की शिकार भी हो जाती हैं।
लेकिन फिर इस अभेद्य सम्मोहन के आगे बस अंधेरा था, उसके परे क्या राह है, कहाँ पहुंचा जा सकता है, कुछ भी तो पता नहीं। बस एक ठिठकन। इसके आगे भी उन मूर्त रूपों की अनिर्वचनीय सी लगती मौन भाषा को सुना जा सकता है, उसके भीतर के संसार में- भावों, विचारों, स्वप्नों की पश्यंती वाग्धारा में उतरा जा सकता है, यह तो मेरे गुरु सौन्दर्यतत्ववेत्ता रमेश कुंतल मेघ की बदौलत पता चला।
●
आज सोचो तो हैरानी होती है कि एक ओर आधुनिकता
और आधुनिकीकरण पर इतना प्रभूत चिंतन करने वाला एक व्यक्ति आदिम समय और पुरातन मिथकों
के संसार मे भी भटकता है। आधुनिक समाज-विज्ञानों से निरन्तर संवादरत एक अध्येता विचारक
प्राचीन भारतीय दर्शन, रस काव्यशास्त्र के
रहस्यों का भी उन्मीलन किया करता है। साहित्य के शाब्दी संसार का वासी अशाब्दी कलाओं
की दुनिया का भी घुमन्तू बाशिंदा है। वह सौंदर्यप्राश्निक और प्रबल जिज्ञासु ही नहीं,
वह तो समाज-सांस्कृतिक परिवृत्त में उसको (सौंदर्य को) खोजा चाहता है, और उसके ज़रिये
सत्य और शिवत्व की स्थापना करना चाहता है। क्योंकि शायद अपने गुरु आचार्य हज़ारीप्रसाद
द्विवेदी की तरह उसे भी यह भान है कि अपने अतीत की ज्ञान परंपरा से अछूते रहकर आधुनिकता
की बात कैसे हो सकती है; कि अपनी ज़मीन पर पुख्ता ढंग से खड़े हुए बिना दूसरों से हाथ
कैसे मिलाया जा सकता है।*1
एम. ए. की कक्षाओं में वे भारतीय और पाश्चात्य
काव्यशास्त्र की गुत्थियां सुलझा रहे हैं, भरत के रससूत्र की व्याख्या करते हैं, लेकिन
फिर सौन्दर्यबोधशास्त्र की कक्षाओं में वे श्रीशंकुक का चित्रसूत्र खोलते हैं- चित्रतुरंग
न्याय। चित्रकला के षडंगो की व्याख्या करते हैं-
रूपभेदः प्रमाणानि भाव
लावण्य योजनं
सादृश्य वर्णिकभंग इति
चित्र षडंगकम।
वे अपने विद्यार्थियों से कहते हैं कि मूर्तिकला
और भारतीय दृश्यकलाओं के करीब जाना तो पहले अपने नयन धो कर आना। इसके शायद कई अर्थ
थे। एक तो वही जिसकी ओर इरविन ऐडमैन ने इशारा किया था कि हमें अपनी कंडीशनिंग से
बाहर आना होगा, आंखों की खो चुकी तात्कालिकता
और निश्छलता को पुनः प्राप्त करना होगा।*2 दूसरे नग्नता विषयक ग्रंथियों
से मुक्ति पाने की बात थी। डॉ. मेघ एक जगह लिखते है, ‘‘आखिर हम नग्न मानव-देह से इतना
डरते घबराते क्यों हैं? क्यों नहीं अपने बालमन की युवाघड़ी को पीछे करके हम अपने शिशु
नयन खोल पाते? हाँ! अब मानवता के अपने बचपन तथा समूह संकलित अवचेतन (कलेक्टिव अनकांशस)
को जगा तो लें।’’*3
वे बारम्बार यह भी कहते कि इतनी समृद्ध
और दीर्घ कला परम्पराओं वाले इस देश में चतुर्दिक एक तरह की अनपढ़ता व्याप्त है- यह साधारण
लोगों में तो है ही, पढे लिखे मनीषियों, सुधीजनों तक में है। इसे वे दृश्य असंवेदना
या ‘विज़ुअल इललिट्रेसी’ कहते।*4
वे अजंता के पद्मपाणि बोधिसत्व के चित्र
में ठहरी हुई गहन करुणा की भंगिमा को समझाते हैं। वे दीदारगंज की चँवरधारिणी यक्षिणी
के परिपाठ को खोलते हैं और तब उस दृश्य पाठ का भाष्य शिल्पकला के पारिभाषिकों को समझाते
हुए करते है।
यह सब सुनते हुए, हम कुछ-कुछ समझते हैं,
बहुत कुछ नहीं भी समझ पाते। फिर भी गुनते रहते हैं। शायद आजीवन गुनते रहेंगे। वे अलग
अलग कलाओं की दुनिया में ले जा कर, घुमाकर जब बाहर आते हैं तो फिर वे सौन्दर्यबोधशास्त्र
की उस दुनिया की ओर इशारा करते हैं जहाँ ये सब हैं- अपनी विलक्षणताओं और कुछ केंद्रीय
साम्यताओं के ज़रिए एक दूसरे में प्रवाहित होती हुईं। उस दुनिया में कलाकार है, माध्यम
है, रचना प्रक्रिया है, रूप और अंतर्वस्तुमय कलाकृति है और है आशंसक। वहां अभिव्यंजना-सम्प्रेषण,
कौशल और तकनीक, मुद्रा, भाव-भंगिमा, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, वृत्तांत और सादृश्य सभी
तो है।
वे बताते हैं कि काव्य और संगीत से शिल्पकला कैसे अलग है क्योंकि यह अचल कला है, स्थानिक है, सुघट्यात्मक (प्लास्टिक - जिसे आयतन में ढाला जा सकता है) है। लेकिन दूसरी ओर उसमें संगीत की अमूर्त लय भी है जिसके कारण उसे प्रशीतित संगीत (फ्रोजेन म्यूजिक) कहा जाता है, और काव्यात्मक सादृश्य तो रूपंकर कलाओं में भी विद्यमान होता ही है। और यों उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र की सैद्धान्तिकी रची। ‘अथातो सौंदर्य जिज्ञासा’ जैसा ग्रंथ सौन्दर्यबोधशास्त्र के घटक तत्वों का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रंथ है। और फिर ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’ मनुष्य के कला विषयक चिंतन और चेतनाओं की यात्रा की महती खोज करता है। लेकिन फिर वे कुछ और आगे बढ़कर इन कलाओं के अध्ययन के मॉडल भी रचते हैं और उसका अनुप्रयोग भी करते हैं। वे इनके ज़रिए सौंदर्यबोधशास्त्रीय रिसर्च या अनुसंधान की नींव भी रखते हैं, जिसका चरित्र अनिवार्यतः अंतर्कलात्मक या तुलनात्मक है, और जिसकी शब्दावली और भाषा एक तरह की ‘मेटा लैंग्वेज’ है।
●
अब आइये मामल्लपुरम के महिषासुरमर्दिनी फलक के उनके सौंदर्यबोधशास्त्रीय अध्ययन के करीब चलें ताकि उनके मॉडल के कुछ सूत्र हासिल हों।
मामल्लपुरम की महिषासुरमर्दिनी गुफ़ा के
उस विशिष्ट फलक तक आने से पहले डॉ. मेघ एक ‘लौंग शॉट’ लेते हैं, उस एक कलाकृति को एक
वृहत्तर देश (स्पेस) और फिर वृहत्तर काल (ऐतिहासिक काल) मे लोकेट करते हैं। वे एक दृश्य
पाठ (विज़ुअल टेक्स्ट) का परिपाठ (कॉन्टेक्स्ट) पहले रचते हैं।
वे लिखते हैं भारत के, ‘‘दक्षिणापथ में
ईसापूर्व सातवीं शती में तमिलनाडु के पल्लवयुग में विद्याओं और कलाओं के नवाचार की
भरमार रही।’’*5
अर्थात एक वृहत देश और काल की सूचना के
साथ उस समय के कलाविषयक वातावरण का भी संकेत। और फिर ‘ज़ीरो इन’ करते हुए, काफी धीरे
धीरे अपने मूल पाठ तक आने की तकनीक क्लासिक कृतियों को समझने की एक कुंजी है। दक्षिणापथ
में तमिलनाडु और फिर उसमें मामल्लपुरम नगर, जो एक नौसेना पत्तन और शैव - वैष्णवों का
तीर्थनगर था। वे मल्ल शब्द से मामल्लपुरम नाम की व्याख्या करते हैं और यह भी कि इसे
बसाने वाले नरसिंह वर्मन (630-668 ई.पू.) एक कुशल मल्ल (पहलवान) थे। अतः आशंसा केवल
कोरी भावुक चेष्टा नहीं, वरन्
गहरी ज्ञान मीमांसा भी है।
वे समय के इस नाभिकेंद्र (पेग) को थामे
हुए यह भी कहते हैं कि नरसिंह वर्मन कश्मीर सम्राट ललितादित्य के समकालीन थे। यानी
काल बोध में धुर दक्षिण से धुर उत्तर तक के स्पेस को भी अंकित कर देते हैं।
फिर वे पल्लव कला के प्रथम चरण के वास्तुरूपों की चर्चा करते हैं। (सटीक होने की उनकी विद्वत्तापूर्ण संलग्नता ही उनके वाक्यों को संश्लिष्ट भी बनाती है)। रथ, गुफा, मंडप, शिलापट्ट खुदवाना और उत्कीर्णन जिसमें संयम, सरलता, कौशल और परिष्कार का सौंदर्यबोध झलकता है। और फिर वे समय और देश में भविष्य में अपसरण करते हुए लिखते हैं- “कालचक्र में इन रूपों का प्रभाव दक्षिण एशिया के जावा और कम्बोडिया (बोरोबोदूर एवं अंगकोरवाट के संदर्भ) तक फैला।”
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अंगकोरवाट, कंबोडिया |
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बोरोबदूर, जावा इंडोनेशिया |
इस प्रथम चरण में शिलाकाट तकनीक में उकेरन
(कार्विंग) ऊपर से नीचे की ओर और बाहर से अंदर की ओर होता था। वे मामल्लपुरम के धार्मिक
इतिहास की ओर संकेत करते हैं और उस की सांस्कृतिक और मिथकीय समृद्धि की चर्चा करते
हैं जिसमें शैव और वैष्णव समान महत्वशाली थे तथा लक्ष्मी और दुर्गा के रूप भी अंतर्बाह्य
व्याप्त थे।
और यों वे दुर्गा के पैनल के सम्मुख आते
हैं तो प्रथम पाठ में नयन सम्मूर्तियों की पहचान करते हैं। मूर्ति कला में मनुष्य देह
के साथ-साथ एकाकी प्रतिमा का वैभव है तो एक दृश्य, एक स्थिति, एक दशा, महावृत्तांत
या मिथक के एक नाटकीय क्षण में भी फ्रीज़ किया जाता है। माना जाता है कि शिल्प में सदा
गति अंतर्निहित रहती है, एक क्षण जिसके आगे और पीछे जीवन गतिमान है। इस पैनल को भारतीय
दर्शक तो महिषासुरमर्दिनी के रूप में पहचान लेता है पर कोई अनजान भी उसमें युद्ध की
ऊर्जा और तनाव को तो पढ़ ही लेगा।
तो दुर्गा यहाँ महिषासुर से आकार में छोटी अंकित हुई हैं, उनके आठ हाथ तो हैं और वे सिंह पर सवार एक षोडषी सी हैं और धनुष की डोरी कान तक खींचे हैं। दूसरी ओर महिष मुख और मानव देह वाला महिषासुर है- बड़ा और चौड़े कंधों वाला बलशाली पुरुष। हाथ मे भारी गदा थामे है, फिर भी तीरों की बौछार से अस्तव्यस्त हुआ सा जैसे मुड़ रहा है, बच रहा है, बैकफुट पर है, पीठ दिखा रहा है।
डॉ. मेघ शिल्पकार की भूमिका में जाकर पैनल
की पूरी संयोजना और कंपोजीशन की व्याख्या करते हैं, प्रतीकों की भाषा पढ़ते हैं, मुद्राओं
और भंगिमाओं के प्रति सचेत होते हैं, तालमान और अनुपात के संबंधों की बात करते हैं,
आयतन और देढ आयामी रिलीफ़ में गहराई और पर्सपेक्टिव
के प्रश्नों के रूबरू होते हैं। दुर्गा महिषासुर से आकार में लगभग आधी हैं, जिससे पर्सपेक्टिव
या दूरी का कलात्मक भ्रम पैदा हुआ है। माना जाता है कि भारतीय कला में पर्सपेक्टिव
की धारणा नहीं है। कि भारतीय कला का अपना निजी
व्याकरण है और कमसकम आधुनिकता से पूर्व भारतीय कलालोक शरीराध्यात्मिक रहा है, यूनानी
कला की तरह एनाटॉमीपरक नहीं।
पर यहाँ ऐसा तो नहीं लगता। अग्रभूमि में
(फोरग्राउंड) में महिषासुर है, देवी पृष्ठभूमि से (बैकग्राउंड) आगे बढ़ती दिखती हैं।
और रमेश कुंतल मेघ की व्याख्या वीररस के उत्साह और भयानक रस की भीति तक पहुंचती है,
हम युद्ध का दर्शन करते हैं। यहां महिषासुर के वध का चिरपरिचित मोटिफ नहीं, उससे पहले
का घमासान है।
दृश्य में कई नवोन्मेष हैं। जैसे देवी के
हाथों में तीरकमान है न कि भाला। महिषासुर का मुख महिष और शरीर मनुष्य का है, परिपाटी
के विपरीत। दुर्गा के गिर्द घेरा बनाए हुए गण बौने और स्थूलकाय हैं जबकि महिष के योद्धा
लम्बे -छरहरे तथा देवताओं के छद्म वेश में हैं। खैर..
निष्कर्षतः जितना गझिन यह पैनल है, इस निर्भाषिक
कला का मेघ जी का भाष्य भी उससे कम गझिन नहीं है। तो फिर हम आप भी इस इंद्रियसम्वेद्य
रूपों वाली कला दुनिया के भीतर कदम तो रखें, रूबरू तो हों, नयन तो खोलें…
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कान्हेरी की आठ सौ गुफाओं वाली बौद्ध बस्ती को देख ऐसा ही सम्मोहन जगा था। लेकिन सम्मोहन से आगे जाने की प्रेरणा हुई थी। और तब कुंतल मेघ के कला(कार)- कलाकृति - और आशंसा वाले मॉडल के तहत कान्हेरी की बौद्ध शिल्पकला पर लिख पाना सम्भव हुआ था।
सन्दर्भ
1. रमेश
कुंतल मेघ, आलोचना को होने दो केंद्र-अपसारी, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018), पृष्ठ-216.
2. इरविन
एडमैन, ललितकलाएँ और मनुष्य, (दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1966) पृष्ठ-54.
3. रमेश
कुंतल मेघ : आपकी खातिर मुनासिब कार्यवाहियाँ, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018) पृष्ठ-83.
4. वही…….
पृष्ठ- 69-72.
5. संस्कृति
(पत्रिका) में रमेशकुंतल मेघ के लेख से, (दिल्ली: भारत सरकार: संस्कृति मंत्रालय,
2010), पृष्ठ 1-4 तक
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मुंबई की एलिफेंटा गुफाओं से लौटते हुए डॉ. मेघ के साथ |
हर दिल अजीज कवि, सुरजीत पातर
पंजाबी में आधुनिक दौर के सबसे हर दिल अजीज कवि, सुरजीत पातर का जन्म 14 जनवरी 1945 को कपूरथला जिले के पातड़कलां गांव में हुआ। उनका कवि-नाम मित्रों के सुझाव से पातड़ से ही पातर बना था। उन्होंने पंजाबी विश्वविद्यालय से प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए पंजाबी में एम ए किया और कुछ वर्ष बीड़ बाबा बुड्ढा कॉलेज में लेक्चरर रहे। बाद में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना में लंबे समय तक अध्यापन करने के कारण आजीवन लुधियाना में ही रहे। सेवामुक्त होने के उपरांत वे लुधियाना में ही सेवानिवृत्त जीवन जीते रहे। मीठे बोलों वाले, विनम्र, पतली काया, धीमे-धीमे बोलने वाले, यारों के यार, पातर सबको मोह लेने वाले शख्स थे। वे आधुनिक संवेदना की जीवंत अनुभूतियों और खरोंचती हुई कठिनाइयों के कायल कर देने वाले शायर हैं।
‘कोलाज’ नामक पहला काव्य-संग्रह
पातर ने अपने दो मित्रों के साथ मिलकर छपवाया। उनके ‘हवा विच लिखे हर्फ’ (हवा में लिखे अक्षर), ‘बिरख अरज करे’ (वृक्ष विनती करे), ‘हनेरे विच सुलगदी वरणमाला’ (अंधेरे में सुलगती वर्णमाला), ‘लफ्जा दी दरगाह’ (लफ्ज़ों की दरगाह) और ‘सुरजमीन’ पांच काव्य संग्रह
प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने लोर्का के नाटक ‘ब्लड वेडिंग’ का अनुवाद ‘अग्ग दे कलीरे’, यरमां का ‘सइयों नी मैं’, अंतहीन तरकालां, और यां जिरादू के नाटक ‘मैड विमेन ऑफ सईयू’ का ‘शहर मेरे दी पागल औरत’ शीर्षक के तहत अत्यंत सर्जनात्मक अनुवाद किए हैं। ‘सदी दियां
तरकालां’ (सदी की सांध्यवेला) उनके
द्वारा संपादित काव्य पुस्तक है जिसमें प्रतिनिधि और चर्चित पंजाबी कवियों की
कविताएं संग्रहीत हैं। उन्हें बेशुमार पुरस्कार और सम्मान मिले। ‘हनेरे विच सुलगदी वर्णमाला’ काव्य संग्रह पर उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है।
सुरजीत पातर ने भाषा विभाग पंजाब की ओर से शिरोमणि कवि का इनाम लेने से मना करने की जुर्रत भी की।
सुरजीत पातर का काव्य-जगत एक पढ़े लिखे युवा मनुष्य के बिखरे, टूटे, अंधेरे, उलझे और उदास बिंबों-प्रतिबिंबों से ओतप्रोत है, जो कि आधुनिक मनुष्य का अवांछित, असंगत, भयावह और अनिवार्य अस्तित्व और नियति है। पातर ने पंजाबी शायरी में मनभावन क्रांति के रोमांस और प्रेम के रोमांस दोनों ही मिथकों का, एक नई अस्तित्वमूलक संवेदना के माध्यम से, पूरी शिद्दत संजीदगी, सलीके और नए बलशाली मानवीय पीड़ामय तर्कों के साथ विस्फोट किया।
सुरजीत पातर क्रांति का मुद्दई शायर है। उनके
काव्य बोध का यह केंद्रीय सूत्र है। पातर का काव्य-नायक क्रांतिकारी नायक नहीं। उनका
काव्य-नायक एक ऐसा काव्य नायक है जो क्रांति का प्रशंसक है, क्रांति के स्वप्न का समर्थक है। वह क्रांतिकारी नायक की
वीरगति और बलिदान के सम्मुख नतमस्तक है, पर उसके काव्य-नायक का चरित्र
एक युवा कवि के, एक क्रांतिमुखी कवि के, सुरमई शब्दों में छटपटाता है। उदाहरण के लिए उनकी काव्य पंक्तियां देखिए:
कुछ बोलूं तो अंधेरा कटेगा
कैसे
चुप रहा तो शमादान क्या कहेंगे।
गीत की मौत इस रात गर हो गई,
मेरा जीना मेरे यार कैसे
सहेंगे।
काली रात की फौजों से लड़ने
के लिए
मैं भी आ पहुंचा हूं अपना
साज लिए।
पातर की काव्य-संवेदना में प्रगति, प्यार और उद्दात जीवन का सुंदर, नवीन, मनोहर और उच्च
संतुलन है। पातर की प्रेम-संवेदना एक टेढ़े त्रिकोण पर टिकी हुई
है। इस त्रिकोण का एक कोण आधुनिक जमाने में प्यार, स्नेह, निकटता, एकस्वरता, दैहिक आनंद और
आत्मा की तृप्ति के लिए परिपक्व होते, आंच में सिकते हुए युवा का है। पर उसकी इस स्थिति के
दूसरे कोण में क्रूर और घातक सामाजिक व्यवस्था का वह अमानवीय सिलसिला है, जिसके जीवन एजेंडे में से प्यार जैसी नफासती और नाजुक
स्थाई या टेक समाप्त हो चुकी है। इस बेमाप दहाड़ का तीसरा कोण विकृति एवं अभाव से
उपजी उस उदास मनःस्थिति का है, जो इस टाली न
जा सकने वाली और असमान जीवन-युक्ति का महत्वपूर्ण पर त्रासद एवं दुखान्त परिणाम है।
पर पातर की प्रेम-संवेदना न तो परंपरागत शायरों की तरह महबूबा को बेवफा, बेईमान या ऐसे ही और आरोप लगाकर संतुष्ट होती है और न ही
अपनी वफा का ढिंढोरा पीटती है। पातर का प्रेमानुभव मुख्य तौर पर वियोग, तन्हाई, तड़प, बेकरारी और उदासी का है:
* इतना ही बहुत है कि मेरे
खून ने पेड़ सींचा
क्या हुआ कि पत्तों पर मेरा नाम नहीं है।
* तेरे वियोग को कितना मेरा
ख्याल रहा
कि सारी उम्र लगा मेरे कलेजे के साथ रहा ।
* आँसू टेस्ट ट्यूब में डाल
कर देखेंगे
कल रात तुम रोये थे किस महबूब के लिए।
* राहों में कोई और है, चाहों में कोई और
बाहों में किसी और के बिखरे हुए हैं हम।
* मै पेड़ बन गया था वह पवन
हो गई थी
किस्सा है सिर्फ इतना अपनी तो आशिक़ी का।
* कभी आदमी कि तरह हमें
मिला तो करो
ऐसे ही बीत जाएंगे पानी कभी हवा बनके।
पातर सुचारू राजनीतिक एवं दायित्वपूर्ण ऐतिहासिक
बोध से युक्त शायर है। इतिहास खासकर गौरवशाली सभ्यतामूलक अवचेतन उसके कवि में एक
अंतर्निहित शक्तिशाली धारा की तरह प्रवाहित है। इसमें से पातर अपने काव्य-बोध को पुष्ट करते हैं। शिव, गौतम, कृष्ण, कबीर, गुरु नानक देव, गुरु गोविंद सिंह, वारिस शाह - उनकी सभ्यतामूलक ऐतिहासिक स्मृति का प्राणवान स्रोत हैं। समकालीन
राजनीतिक आंदोलनों में से उनके पहले दौर
की कविताओं में नक्सलबाड़ी आंदोलन की प्रतिध्वनि बहुत सी कविताओं और गज़लों में गूंजती
सी है। नक्सलबाड़ी आंदोलन के वे मुक्त मन से दावेदार रहे
हैं।
* मेरे यार जो इस उम्मीद पर मर गए
कि मैं
उनके दुख का बनाऊंगा गीत
अगर
मैंने कुछ न कहा, गर मैं चुप ही
रहा
बन के
रूहें सदा भटका करेंगे....
* यारो ऐसा कोई निजाम नहीं
जहां सूली
का इंतजाम नहीं।
पातर ने पंजाबी गज़ल को जिस सम्मानित शिखर तक पहुंचाया है, वह पंजाबी काव्य को उनकी चिरंजीवी देन है। पातर के काव्य के सहज-संचार का, पंजाबी काव्य- क्षेत्र में एक उज्जवल प्रसार, उनकी शब्द-नाद की गहरी स्वर-समझ के कारण है। पातर काव्य-ध्वनि और बिम्ब के कवि हैं।
उदासी, बेगानगी, अनस्तित्व, अधूरे अस्तित्व, घायल अस्तित्व के ऐसे-ऐसे मार्मिक चित्र उनकी कविता में प्रस्तुत हैं जो उसकी मूल संवेदना को शोकपूर्ण स्वरूप देते हैं। पर पातर का यह शोकपूर्ण अनुभव न तो निराशाजनक है, ना पलायनवादी, और न ही अनावश्यक खोखले मार्के वाला है। आधुनिक युग-संवेदना के पेचीदा, अमानवीय और व्यथित माहौल में यह गंभीर, दायित्वपूर्ण, और सचमुच की आवाज़ है।
पातर के काव्य की लोकप्रियता इतनी है कि पंजाबी
कविता में वह सबसे अधिक पढ़े जाने वाले और चर्चित शायर रहें हैं । उनकी कविता लोकमन के
इतने निकट है कि यह न सिर्फ एक सहज आनंद या रस देने वाली है वरन लोकगीतों की तरह
अपने आप ही कंठ में उतर आती है।
प्रो जसविंदर सिंह पंजाबी के जानेमाने कथाकार
हैं। वे पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला में पंजाबी के प्रोफेसर रहे। उन्होने इस लेख
के हिन्दी अनुवाद और प्रकाशन की सहर्ष अनुमजि दी है।