मंगलवार, जनवरी 26, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा

दो उपन्‍यासों के हवाले से
भाग तीन






अब कलिकथा की बात। नायक इसमें भी एक बूढ़ा व्यक्ति है लेकिन इसमें के आयाम कई पीढ़ियों तक फैलते हैं। यह समय भी दो तरह का है - व्यक्ति का इतिहास या निजी इतिहास और सामाजिक इतिहास। स्पेस भी व्यक्ति किशोर के घर से लेकर कलकत्ता शहर, सम्पूर्ण देश और फिर ग्लोबल चेतनाओं के रूप में फैलता सिकुड़ता है। समय और स्थान के ये दो आयाम (निजी और सामाजिक) समानांतर भी हैं, एक दूसरे में प्रतिबिंबित भी होते हैं, टकराते हैं और किसी बिंदु पर आकर गुंथ जाते हैं। इसमें कथा का केंद्र 'ऐ लड़की' की अम्मू की तरह निष्क्रिय स्थिति में नहीं, बल्कि एक बार दृष्टि बदल जाने पर इतिहास और वर्तमान की दिशाओं में खूब सक्रिय हो जाता है। स्मृति परंपराओं की खोज में निकलता है। ये अम्मू की स्मृतियों की तरह की अनैच्छिक स्मृति (इन्वॉलैन्टरी मेमोरी) नहीं, बल्कि ऐच्छिक यात्रा है। अनैच्छिक स्मृति के बाबत प्रूस्त ने अपने जीवन अनुभवों को खूब खंगाला है। मादलेन नाम की पेस्ट्री की गंध जिस तरह उसे उसके क्रॉम्बे नामक अपने कस्बे में ले जाती है। ऐसी स्मृति ध्यान-गम्य और ऐच्छिक स्मृति से बिल्कुल भिन्न होती है। बर्गसां भी कालावधि (ड्यूरे) के अपने जीवन दर्शन में यह मानते हैं कि जब कोई कालावधि जीवन की वास्तविकता बन जाती है तो वह आदमी को समय की ग्रस्तता से मुक्त कर देती है।
ऊपर-ऊपर से देखें तो यह एक सामान्य आदमी की कथा है, जिसके जीवन में कुछ नाटकीय घटित नहीं हुआ है पर इस कथा में पर्सेप्शन के बदल जाने से जीवन के मायने बदल जाने की बात खुलती है।
पूरी कथा एक महारूपक में संघनित होती है और उससे जुड़ी मेटानॉमिक डिटेल में खुलती है। (रोमन याकोब्सन का उपरोक्त संदर्भ) यह रूपक बाईपास सर्जरी और दिमाग पर कुछ चोट लगने का है। इस सर्जरी में दिल तक रक्त ले जाने वाली नलियों को खोल दिया जाता है ताकि 'हृदय को पूरा रक्त मिल सके'। दूसरी ओर सिर की चोट से दिमाग में कुछ 'खलल' पैदा हो गया है। इस सब के बाद किशोर बाबू का जीवन एवं दृष्टि बदल जाती है। जीवन के जिन पक्षों को वो अब तक बाईपास करते रहे, अब वही उनकी चेतना के केंद्र में आ जाते हैं। फिर ये संदर्भ व्यक्ति जीवन के हों या बृहत्तर सामाजिक जीवन के। वे अपने इतिहास की ओर मुड़ते हैं - अपना बचपन, पिता, दादा, परदादा ... और उनके जीवन को भीतर से समझना चाहते हैं। काल का तीर अचानक पीछे की ओर चल निकलता है। जिस देश एवं काल में जाकर रुकता है, उसके केंद्र या नायक बदल जाते हैं (कभी पिता केदार, कभी रामविलास दादाजी, फिर उनके पिता...), तीर बीच बीच में फिर किशोर बाबू के वर्तमान और अतीत में भी लौटता है। अत: उपन्यास का समय आगे पीछे यात्रा करता रहता है।
किशोर बाबू की जिंदगी और भारतीय समाज का समय सामान्यत: दो भागों में बंटा है। आजादी और विभाजन (1947) से पहले का काल और बाद का काल। इसे इतिहास की भाषा में कहें तो देश का कोलोनियल पास्ट और पोस्ट कोलोनियल समय कह सकते हैं। विभाजन से पहले आजादी के सपने हैं, उथल पुथल, जद्दोजहद और सरगर्मी है और विभाजन के बाद है सामाजिक पतन। किशोर बाबू के जीवन में भी यही विभाजन प्रतिबिंबित हुआ है। पोस्ट कोलोनियल समय की सारी असंवेदना, आवरण, छद्म, अमानवीयता और दर्प किशोर बाबू में भी है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोधी किशोर, अब इस उत्तरार्द्ध में 'चुने हुए डिक्टेटर' या स्वयं कोलोनियल भूमिका में शिफ्ट हो गया है। और यह हमारे महादेश की त्रासदी भी है।
लेकिन बाईपास सर्जरी के बाद अजस्र काल में एक तीसरा समय उभर आता है और किशोर बाबू के तमाम भीतरी बाहरी आवरणों को खुरच देता है। यहीं से पात्रों और घटनाओं को लेकर दो समयों में जक्सटापोजीशनिंग या कन्ट्रास्ट का शिल्प उभरने लगता है। गाड़ियों से उतर कर किशोर बाबू कलकत्ते की गलियों, चौराहों और उसके जीवन में भटकने लगते हैं।
फिर अचानक समय का तीर निजी और बृहत्तर दोनों संदर्भों में भविष्य की ओर मुड़ जाता है और सृष्टि के आमूल बदले हुए जीवन का खाका खींचने लगता है। मानो मानवता घूम घाम कर अपनी प्रकृत अवस्था में लौट आई हो।
अब स्पेस की बात। कलकत्ता उपन्यास के फलक पर छाया हुआ है। यह भी उत्तर कलकत्ता और दक्षिण कलकत्ता में बंटा हुआ है। एक जमाने का काला कलकत्ता बाद में भी पिछड़ा, गरीब और देसी कलकत्ता है, जबकि गोरे कलकत्ते या साऊथ कैलकटा में अंग्रेज और उनके बाद उनकी सी हैसियत वाले भारतीय रहते आए हैं। इन दो ध्रुवों के बीच यूरेशियनों का चितकबरा स्पेस उभर आता है - गोरों और कालों की संकर संतानों का स्पेस। उपन्यास में यह बहू बाजार और चोरंगी के पिछवाड़े का इलाका है। इसकी व्यथा देखिए 'जब से मैं पैदा हुआ, मेरे पिता मेरे भविष्य की सोच कर बहुत मानसिक तकलीफ में रहने लगे। आधे हिंदुस्‍तानी और आधे अंग्रेज़ बच्चे की क्या ज़िंदगी होती है - वे देख सकते थे। वह न इधर का होता है न उधर का। इस तरह यह स्‍थान अपने आप में एक पूरी चेतना है जिसमें से कई मर्मान्‍तक कथाएं और जटिल रिश्त फूटते हैं।' 'उसने अखबार में पढ़ा है कि इस वक्त कलकत्ता में सोलह हज़ार यूरेशियन हैं, जब अंग्रेज़ों की संख्या उनसे दो हज़ार कम है।' ऐसे लोगों का जीवन अजीब से द्वंद्व में फंसा है जिसमें एक तरफ हिंदुस्तान से लगाव भी है, दूसरी ओर वे अपने खून के कालेपन से मुक्त भी होना चाहते हैं।
किशोर बाबू का स्थान उनके विभाजित समय में नॉर्थ से साऊथ की ओर शिफ्ट होता है। यह प्रबल थिमैटिक शिफ्ट है। उत्तर कलकत्ता के बड़ा आज़ार से बालीगंज के घर में जाना एक पूरी मानसिक यात्रा है।
'समय के फेर' की दार्शनिक व्याख्या करते हुए नायक कहता है, 'पिताजी की बात ठीक निकली। वे कहा करते थे कि दुख ही सुख की शक्ल ले सकता है, प्रेम ही नफरत की - ये सारे विपरीत समय के फेर से एक दूसरे में बदल जाते हैं।'
तिमंजली हवेली का सपना, दो कमरों वाला घर, तीसरा कमरा - वास्तु के ये विभाजन उपन्यास के बंटे हुए समय और स्पेस के कूट खोलते हैं। मानसिक खलल में जब किशोर को अचानक बीच वाला कमरा भूल जाता है जो उनके जीवन के बीच वाला हिस्सा ही है और इस तरह घर के भूगोल में समय का भूगोल उभर आता है।
स्पेस के भी तो दो केंद्र हैं - निजी और बृहत्तर। घर, और घर के लोग, उनके भीतर का जीवन और उनके जीवनों की ग्रथित कथाएं एक ओर तथा दूसरी ओर बृहत्तर स्पेस में गलियां, कलकत्ता और देश। यह वह स्पेस है जहां बंग भंग होता है, आजादी की सुगबुगाहट है और गीत गूंजते हैं, लाठी चार्ज होता है, भीषण अकाल पड़ता है, उन्नीस सौ छियालीस के साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। समय में पीछे जाने पर स्पेस या देश का एक और विभाजन या कन्ट्रास्ट उभरता है - मरू भूमि और बंगाल की शस्य श्यामला भूमि के बीच। मरू भूमि में बादलों का सपना, बंजारे, रेत, पगड़ियां और सूना आकाश है तो बंगाल में हरी भरी जमीन है, निरंतर बरसते मेघ हैं, भरी हुई गंगा का प्रवाह है। एक स्पेस से निकल कर पात्र दूसरे में आते हैं और तब उनमें 'निर्वासन' और 'वास ' की चेतनाएं जन्म लेती हैं। रामविलास के लिए यह कलकत्ते का वास है जिसका जादू दिन पर दिन चढ़ रहा है, जबकि उनके दोस्त बसंत लाल के लिए यह निर्वासन है जिसमें काल का एक एक पल बड़ी मुश्किल से बीतता है (स्लोइंग ऑफ टाइम)। उपन्यास में इन दोनों मित्रों की इन विरोधी चेतनाओं का बड़ा साकार वर्णन है। निर्वासन या अपनी भूमि छोड़ कर जाने से ही रामविलास और अंग्रेज जाति में तादात्म्य कायम होता है। 'दो घोड़ों की फिटनों और बग्घियों में घूमते खुद उसकी तरह ही दूर देश से आए गोरे बाशिंदे भी उसे अपने से लगते हैं।' भयानक तूफान में रामविलास के पिता और हैमिल्टन साहब अपने अपने देश को याद करते हैं, बचने की सूरत में घर लौटने का संकल्प करते हैं। यह निर्वासन का रिश्ता है जिसमें अन्यता बोध डूब जाता है।
एक बीता हुआ समय बार बार पुनर्जीवित होता है। काली मंदिर का पंडित बेटे के हाव भाव से उसके पिता को पहचान लेता है। इस तरह पुराना समय पुश्त दर पुश्त जीवित है और आगे बढ़ रहा है। एक तरफ वो जीवित है तो दूसरी तरफ निरंतर बदलाव ला रहा है। आगे बढ़ता हुआ समय स्पेस को और उसकी डीटेल को बदल रहा है। उपन्यास में यह संदर्भ है कि यह कलकत्ता पहले सा कलकत्ता नहीं रहा। 'उसके पिता के देखे कलकत्ते से अभी का कलकत्ता कितना बदल गया है, कौन जानता है। इसी तरह समय न जाने कितने फेर बदल आगे कर देगा। '
समय बहुत अदृश्य ढंग से हमारे भीतर संस्कार के रूप में भी रहता आया है। रामविलास के लिए कृष्ण की छवि एक ऐसा ही संस्कार है जो बालक रूप में, किशोर रूप में अर्थात् हर रूप में उसमें भावित है। वह कहता है, मैं उसे क्यों कर छोड़ दूं। 'कृष्ण कहते ही मेरे मन में कृष्ण के तरह तरह के रूप सामने आ जाते हैं... यह एक ऐसा संसार है जिसकी जड़ें मेरे अंदर कितनी पीढ़ियों पीछे कहां तक फैली हैं, मैं खुद नहीं जानता...।'
एक ही समय में काल की अलग अलग गतियां और धुरियां भी दिखाई पड़ती हैं। पति अपने घर से दूर आसाम में दूसरे स्पेस में समय से लड़ता हुआ जान संभाल कर जब वापस लौटता है तो अपने गांव पंहुच कर पत्नी की अर्थी मिलती है। यह विपरीत गतियों का अंकन है। एक, जो अपने स्पेस में लौट रहा है और दूसरा, जो उससे मुक्त हो गया है।
समय का भारतीय बोध और ब्रितानी बोध भी अलग अलग है, 'अंग्रेज़ों की नई सदी, बीसवीं सदी, की शुरुआत है और इस बात को लेकर भी उनमें जैसे एक नया उत्साह है... ऐसा लगता है जैसे हमारी जाति इस सदी में एकदम नया कुछ कर डालने को उतावली हो। रामविलास को हंसी आती है - पृथ्वी तो साहब वैसे ही घूम रही है सूरज के चारों ओर... क्या फर्क पड़ता है ऐसी बातों से ? फर्क पड़ता है तो बस यही कि आदमी की छटपटाहट बढ़ जाती है... ज़िंदगी को बांट बांट कर जीने में बड़ा खतरा है।'
स्पेस को फलांग जाने की बात भी रामविलास और छोटे हैमिल्टन साहब के बीच तब घटती है जब उन्हें पता लगता है कि छोटे हैमिल्टन आधे भारतीय हैं। 'कितनी अजीब बात है - रामविलास ने सोचा - आदमी सारी दूरियों को पार कर कैसे एक हो जाता है। एक तरफ लॉर्ड कर्ज़न के बंग भंग को लेकर अंग्रेज़ों के प्रति सब जगह नफरत का ज्वार उठ रहा है और कहां इस कदर अपनापन...।'
पूरे उपन्यास में जल के स्पेस में फैलने और सिकुड़ने का भी मार्मिक अंकन है। मरू भूमि में हैं तो यही जल एक परिकल्पना भर है। और उसका माप कुईं, कुएं, जौहड़, तालाब, नदी और फिर गंगा का सपना है। इसीलिए रामविलास कलकत्ता पंहुच कर कृतकृत्य हो जाते हैं। गंगा को छोड़कर वापस आने से यह जल सिकुड़ता हुआ पानी की बाल्टी भर रह जाता है।
किसी जातीय चिति के इतिहास में जाने पर काल और देश आपस में गुंथे हुए दिखते हैं। मरू भूमि में अकाल का समय मारवाड़ी लोगों के चित्त में आज भी जीवित है। शायद इसी कारण वे इतने अंधविश्वासी हैं और भविष्य से आतंकित रहते हैं। धन इकट्ठा करते रहने के मूल्य की तह में शायद वही दारुण जातीय स्मृतियां हैं।
इस प्रकार देश और काल की अंतर्क्रीड़ा जैसे जीवन में निहित है, वैसे ही वह रचना की संरचना में जीवन की तरह व्याप्त है। यह रचना की नाभि है तो गति भी है। इससे रूप और अंतर्वस्तु दोनों ही विरचित होते हैं, परस्पर प्रभावित होते हैं और संलयित होते हैं। इस अंतर्क्रीड़ा को जितनी व्यापकता में जाना जाए, कृति को उतनी ही सम्पूर्णता में पहचाना जा सकता है।

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