मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए अंतिम किस्त -
कहानी में एक और बेहद सुंदर वर्णन है । जब इंटरव्यू से मुक्त होने के बाद निशीथ के आमंत्रण पर दीपा और वह टैक्सी में बैठे हैं।
'टुन की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से बात करने लगती है। निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, बीच में इतनी जगह छोड़कर कि यदि हिचकोला खाकर भी रुके, तो हमारा स्पर्श न हो।'
दैहिक भंगिमाओं के इस अर्थगर्भित विवरण के बाद का विवरण तो काव्य की सीमा को छूने लगता हैý
'हवा के झोंके से मेरी रेशमी साड़ी का पल्लू उसके समूचे बदन के स्पर्श में पड़कर फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है। मुझे लगता है, यह रेशमी सुवासित पल्लू उसके तन मन को रस में भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे पुलकित कर रहा है। मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूं। ... ... जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा रही है, मुझे लगता है, उतनी ही द्रुत गति से मैं भी बही जा रही हूं, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर!'
फिल्म के लिए भी यह बहुत ही रोमानी, बहुत ही गर्भित क्षण है, फिल्मकार की अभिव्यक्ति को चुनौती देने वाला। और सचमुच ही मुंबइया फिल्मों के इतिहास में एक बड़ा सूक्ष्म दृश्य रचा जाता है। लेकिन उसमें फिल्मकार को कुछ कदम और आगे बढ़ना पड़ता है। फिल्म में भी दोनों टैक्सी के अंदर दूर दूर बैठे हैं। नवीन की आंखों पर काला चश्मा है। वह अपने भावों को खिड़की के बाहर देखने की भंगिमा में छिपाने की कोशिश में है। रेशमी आंचल इस बीच की दूरी को पाटने लगता है और नवीन को छूता है। फिल्म इस सब के दौरान एक बेहद सुंदर गीत का इस्तेमाल करती है। लेकिन साथ ही साथ कैमरा नवीन के हाथ पर भी फोकस करता है जो शिथिल सा उन दोनों के बीच में है। कैमरा दीपा की उन कनखियों को भी दिखाता है जो उस हाथ को देखती हैं। और दीपा तुलना कर उठती है। उसे संजय दिखता है जो उसे बाहों में घेरे है, और फिर वह कल्पना कर उठती है, और संजय की जगह नवीन ले लेता है। यानी फिल्मकार के लिए अभिव्यंजना के ये क्षण उतने आसान नहीं थे इसलिए उसे आंचल के अलावा हाथ का भी इस्तेमाल करना पड़ा। लेकिन ये हाथ इससे इकतरफा संकेत न रहकर नवीन के हृदय और इच्छा का भी वाहक बन जाता है।
आज (दो हजार आठ के अंत में) साठ के दशक की ऐसी कहानी को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि यह बीते जमाने का द्वन्द्व है। आज भी अपने मानवीय सार के कारण यह कहानी तरोताजा लगती है। स्त्री विमर्श कहीं का कहीं पहुंच चुका है लेकिन इसने जो जमीन तोड़ी थी, उसका महत्व आज भी जस का तस है। दूसरी ओर फिल्म की तकनीक में भी आमूल परिवर्तन हो चुके हैं। फिर भी यह फिल्म एक कीर्तिमान की तरह आज भी स्थापित है।
चलते चलते एक और बात, श्रेष्ठ कलाकृतियां जब जब एकाधिक माध्यमों में ढलती हैं तो आस्वाद के नए नए आयाम फूटते हैं। सौंदर्य के नए नए आभास होते हैं। अर्थछवियां, नई व्याख्याएं, नई दृष्टियां सब मिलकर उस रचना को पुनर्नवा बनाती रहती हैं। यही सच है जैसी कहानी और रजनीगंधा जैसी फिल्म भी कुछ ऐसा ही अनुभव जगाती है।
2 टिप्पणियां:
रजनीगंधा को बहुत पहले देखा था। यहां उसके बारे में पढ़कर फिर से देखने का मन हो आया। बधाई।
राजेश उत्साही जी धन्यवाद.
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