शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

अप्रतिम दीठ


यह चित्र रविवार डॉट कौम से साभार

विनोद कुमार शुक्ल के नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी उपन्यासों पर सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद
यह संवाद हम दोनों के बीच है। अनौपचारिक वाद विवाद सम्वाद तो होता ही रहता है, औपचारिक संवाद का यह पहला अवसर है। हमारे लिए यह अनूठा और चुनौती भरा भी है। यह संवाद सापेक्ष के विनोद कुमार शुक्‍ल पर निकले वृहद् व‍िशेषांक में छपा है। संवाद लंबा है, इसलिए किस्‍त दर किस्‍त पेश कर रहे हैं

अनूप : मुझे लगता है हम विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों पर तीन हिस्सों में बात करें - ये उपन्यास क्या कहते हैं?, कैसे कहते हैं? और विनोद कुमार शुक्ल का देखना। क्या कहते हैं में कथा-कथ्य और कैसे कहते हैं में शिल्प की बात करेंगे, पर किसी भी संपूर्ण रचना की तरह यहां शिल्प कथ्य से अलग नहीं है। और तीसरा हिस्सा है उपन्यासकार का देखना यानी वे अपने जीवन-जगत, पात्रों-स्थितियों और प्रकृति को कैसे देखते हैं। यह हिस्सा पहले दो हिस्सों का विस्तार तो है ही, उससे अलग भी इस देखने की इयत्ता है जो कथा कथ्य को और विस्तार देती है और उनकी कहनी को नवीनता और गहराई
सुमनिका : क्या इनके तीनों उपन्यासों में कथ्य की दृष्टि से एक निरंतरता या समानता बनती है? तीनों उपन्यासों की दुनिया में झांक के देखा जाए -
उपन्यास क्या कहते हैं?
अनूप : उपन्यास क्या कहते हैं? तीनों उपन्यासों में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियां हैं। ये कहानियां ज्यादातर घर के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। नौकर की कमीज तो शुरू ही इन पंक्तियों से होता है - 'कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार बार घर से बाहर निकलूंगा'
सुमनिका : यह ठीक है कि घर उनके तीनों उपन्यासों का एक बहुत बड़ा और खूबसूरत हिस्सा है, लेकिन और भी तो हिस्से हैं इस दुनिया के। क्यों न बात इस तरह की जाए कि नौकर की कमीज की पृष्ठभूमि में एक छोटा शहर उभरता है जहां सरकारी दफ्तर, डॉक्टर की बगीचे वाली बड़ी कोठी, बाजार इत्यादि हैं जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में एक छोटा कस्बा उभरता है जहां साइकिल स्कूटर और टेम्पो चलते हैं। और खिलेगा तो देखेंगे में तो एक बहुत छोटा सा गांव उभरता है, झोंपड़ियों वाले घरों वाला और जहां पक्के मकान केवल दो हैं, एक थाना और दूसरा ग्राम सेवक का घर
अनूपः हां, तुमने कथ्‍य को लॉन्‍ग शॉट से देखा, मैं क्‍लोज अप से देख रहा था तो नौकर की कमीज में नायक संतू बाबू अपनी नई नई गृहस्‍थी में पत्‍नी को छोड़कर पहली बार घर से बाहर जाते हैं, अपने पुराने शहर मां को लाने के लिए ताकि जचगी में पत्‍नी को सहारा हो जाए पर भाई की बांह टूट जाने के कारण मां उनके साथ नहीं आ पाती है और वह उसी रात लौट आते हैं। बसें सब निकल चुकी हैं। बदमाश से दिखने वाले एक ड्राइवर ने उन्हें लिफ्ट दी। वह ड्राइवर खुद कई कई दिन घर नहीं पहुंच पाता था। पहले लड़के के पैदा होने के वक्त वह घर से आठ सौ किलोमीटर दूर था। लड़की के वक्त तीन सौ और तीसरी बच्ची के वक्त तो बस दस ही किलामीटर दूर था। पर हर बार घर की तरफ ही लौट रहा था।
सुमनिका : हां, घर के दृश्‍य तो बाकी दोनों उपन्‍यासों में भी बेहद मार्मिक और सुंदर, एक साथ हैं खिलेगा तो देखेंगे में तो बाहर की दुनिया को भी घर के बाहरी कमरे की तरह देखा गया है और अपने कमरे का दरवाजा बंद करना मानो बाहर की दुनिया को बाहर कैद कर देना है
अनूप : घर के प्रति उपन्यासकार का जबरदस्त आकर्षण है। नौकर की कमीज में संतू बाबू एक दफ्तर में नौकर हैं। नवविवाहित हैं। एक डाक्टर के बंगले के आहाते में किराए पर रहते हैं। निम्नमध्यवित्त के कारण घर में सामान बहुत कम है। गिनती की चीजें हैं‎‎। हरेक चीज का अस्तित्व है। बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। दीवार में खिड़की रहती थी में भी नवदम्पति एक कमरे के डेरे में रहता है‎‎। नायक रघुवर प्रसाद ने यह कमरा किराए पर लिया है। गौने के बाद बहू इसी घर में आती है। यही सोने का कमरा है, यही रसोई और यही बैठक।
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो गुरू जी को एक त्यक्त थाने में आकर शरण लेनी पड़ती है जो न पूरी तरह घर है न थाना, लेकिन इस गृहस्थी का भी अपना संगीत, अपना नाट्य और अपनी कविता है। घड़ा, खाट, सींखचों वाला दरवाजा, एक फूटी बाल्टी, गिलास जिसमें गृहस्थी की चाय ढलती है
अनूप : हां, विनोद कुमार शुक्ल के पात्र बहुत कम सामान के साथ सुखी लोग हैं। सब्जी लाना, खाना बनाना, खाट की आड़ बनाना जैसे नित्यक्रम धीमी गति से चलते हैं। नौकर की कमीज में पानी चूने का क्लेश है
सुमनिका : हां यह अपने आप में चूते हुए जीवन का बिंब है
अनूप : धीरे धीरे वह बड़े कष्ट में बदल जाता है। लेखक सामाजिक समस्या की तरह उससे निबटता है। यह कष्ट समाज में अर्थ-आधारित संस्तरों का है। संतू को खुद को और पत्नी को घरेलू नौकर में बदल दिए जाने का गहन मानसिक असंतोष और त्रास है। सारा उपन्यास उसी दिशा में आगे बढ़ता है। जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में लगभग घर के गिर्द ही कथा और कथ्य का वृत्त बनता है
सुमनिका : क्या ऐसा कहा जा सकता है कि केवल घर के गिर्द घूमता है वृत्त? मुझे लगता है कि यह उस जीवन के गिर्द घूमता है जिसमें घर और बाहर की दुनियाएं कहीं न कहीं जुड़ी हैं

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

रोचक बात चीत. पूरा मज़ा तब आएगा जब उपन्यास पढ़ रखा हो.