अनूप : मुझे लगता है हम विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों पर तीन हिस्सों में बात करें
- ये उपन्यास क्या कहते हैं?, कैसे
कहते हैं? और विनोद कुमार शुक्ल का देखना। क्या कहते
हैं में कथा-कथ्य और कैसे कहते हैं में शिल्प की बात करेंगे, पर किसी भी संपूर्ण रचना की तरह यहां शिल्प कथ्य से अलग नहीं है। और तीसरा हिस्सा है उपन्यासकार का देखना यानी वे अपने
जीवन-जगत, पात्रों-स्थितियों और प्रकृति
को कैसे देखते हैं। यह हिस्सा पहले दो हिस्सों का विस्तार तो है ही, उससे अलग भी इस देखने की इयत्ता है जो कथा कथ्य को और
विस्तार देती है और उनकी कहनी को नवीनता और गहराई।
सुमनिका : क्या इनके तीनों उपन्यासों में कथ्य की दृष्टि से एक निरंतरता या समानता बनती
है? तीनों उपन्यासों की दुनिया में
झांक के देखा जाए -
उपन्यास क्या कहते हैं?
अनूप : उपन्यास क्या कहते हैं? तीनों उपन्यासों में निम्न
मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियां हैं। ये कहानियां ज्यादातर घर के इर्द गिर्द सिमटी हुई
हैं। नौकर की कमीज तो
शुरू ही इन पंक्तियों से होता है - 'कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार बार घर
से बाहर निकलूंगा। '
सुमनिका : यह ठीक है कि घर उनके तीनों उपन्यासों का एक बहुत बड़ा और खूबसूरत हिस्सा है, लेकिन और भी तो हिस्से हैं इस दुनिया के। क्यों न बात इस तरह की जाए कि नौकर की कमीज की
पृष्ठभूमि में एक छोटा शहर उभरता है जहां सरकारी दफ्तर, डॉक्टर की बगीचे वाली बड़ी कोठी, बाजार इत्यादि
हैं जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में एक छोटा कस्बा उभरता है जहां साइकिल स्कूटर
और टेम्पो चलते हैं। और खिलेगा तो देखेंगे में तो एक बहुत छोटा सा गांव उभरता है, झोंपड़ियों वाले घरों वाला और जहां पक्के मकान केवल दो
हैं, एक थाना
और दूसरा ग्राम सेवक का घर।
अनूपः हां, तुमने कथ्य को लॉन्ग शॉट से देखा, मैं क्लोज अप से देख रहा था। तो नौकर की कमीज में नायक संतू बाबू अपनी नई नई गृहस्थी में पत्नी को छोड़कर
पहली बार घर से बाहर जाते हैं, अपने पुराने
शहर मां को लाने के लिए ताकि जचगी में पत्नी को सहारा हो जाए। पर भाई की बांह टूट जाने के कारण मां उनके साथ नहीं आ
पाती है और वह उसी रात लौट आते हैं। बसें सब निकल चुकी हैं। बदमाश से दिखने वाले एक ड्राइवर ने उन्हें लिफ्ट दी। वह ड्राइवर खुद कई कई दिन घर नहीं पहुंच पाता था। पहले लड़के के पैदा होने के वक्त वह घर से आठ सौ
किलोमीटर दूर था। लड़की के वक्त
तीन सौ और तीसरी बच्ची के वक्त तो बस दस ही किलामीटर दूर था। पर हर बार घर की तरफ ही लौट रहा था।
सुमनिका : हां, घर के दृश्य तो बाकी दोनों उपन्यासों में भी
बेहद मार्मिक और सुंदर, एक साथ हैं। खिलेगा तो देखेंगे में तो बाहर की दुनिया को भी घर के बाहरी कमरे की तरह
देखा गया है। और अपने कमरे का दरवाजा बंद करना मानो
बाहर की दुनिया को बाहर कैद कर देना है।
अनूप : घर के प्रति उपन्यासकार का जबरदस्त आकर्षण है। नौकर की कमीज में संतू बाबू एक दफ्तर में नौकर हैं। नवविवाहित हैं। एक डाक्टर के बंगले के आहाते में किराए पर रहते हैं। निम्नमध्यवित्त के कारण घर में सामान बहुत कम है। गिनती की चीजें हैं। हरेक चीज का अस्तित्व है। बहुत कम वस्तुओं से इनका
घर बन जाता है। दीवार में खिड़की
रहती थी में भी नवदम्पति एक कमरे के डेरे में रहता है। नायक रघुवर प्रसाद ने यह कमरा किराए पर लिया है।
गौने के बाद बहू इसी घर में आती है। यही सोने का कमरा है, यही रसोई और यही बैठक।
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो गुरू जी को एक त्यक्त थाने में आकर शरण लेनी पड़ती
है जो न पूरी तरह घर है न थाना, लेकिन इस
गृहस्थी का भी अपना संगीत, अपना नाट्य और अपनी कविता है। घड़ा, खाट, सींखचों वाला दरवाजा, एक फूटी बाल्टी, गिलास जिसमें गृहस्थी की चाय ढलती है।
अनूप : हां, विनोद कुमार शुक्ल के पात्र
बहुत कम सामान के साथ सुखी लोग हैं। सब्जी लाना, खाना बनाना, खाट की आड़ बनाना जैसे नित्यक्रम धीमी गति से चलते हैं। नौकर की कमीज में पानी चूने का क्लेश है।
सुमनिका : हां यह अपने आप में चूते हुए जीवन का बिंब है।
अनूप : धीरे धीरे वह बड़े कष्ट में बदल जाता है। लेखक सामाजिक समस्या की तरह उससे निबटता है। यह कष्ट समाज में अर्थ-आधारित संस्तरों का है। संतू को खुद को और पत्नी को घरेलू नौकर में बदल दिए
जाने का गहन मानसिक असंतोष और त्रास है। सारा उपन्यास उसी दिशा में आगे बढ़ता है। जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में लगभग घर के
गिर्द ही कथा और कथ्य का वृत्त बनता है।
सुमनिका : क्या ऐसा कहा जा सकता है कि केवल घर के गिर्द घूमता है वृत्त? मुझे लगता है कि यह उस जीवन के गिर्द घूमता है जिसमें घर
और बाहर की दुनियाएं कहीं न कहीं जुड़ी हैं।
अनूप: बिल्कुल। घर को लेकर नौकर
की कमीज के संतू बाबू के मन में अजीब तरह के संशय हैं। घर में दाखिल होने के दो दरवाजे हैं। वह दूसरे दरवाजे के लिए एक ताला भी ले आता है। एक तरफ वह ताला लगाता है, दूसरी तरफ पत्नी लगाएगी, क्योंकि
अब वह भी डाक्टरनी के घर जाती है। ज्यादा देर तक अपने घर से बाहर रहती है। यह दूसरा ताला उन दोनों के मन में
बड़ी उलझन पैदा करता है। संतू कहता है अपना अपना ताला लगाएं। मतलब दोनों की अपनी अपनी स्वतंत्रता बनी रहे। पत्नी को ज्यादा उलझन है। पति आगे से ताला लगा कर चला जाए पत्नी पीछे से, वो तो ठीक है, लेकिन पत्नी घर
में पीछे से आ भी जाए तो भी लोग आगे का ताला देखकर यही समझेंगे कि घर में कोई नहीं
है। यह उन घरों की
उलझन है जहां की स्त्रियां कामकाजी स्त्रियां बनने लगी हैं। सीधे सादे आदमी का त होगा कि दो ताले क्यों, एक ताले की दो चाबियों से भी काम चल जाएगा। पर संतू की त पद्धति अपनी तरह की है। वह किसी से मेल नहीं खाती। वे दूसरा ताला ही हटा देना चाहते हैं। असल में वे घर को खुला ही रखना चाहते हैं।
सुमनिका : घर के दो हिस्से खिलेगा तो देखेंगे में भी हैं, छोटा लॉक अप और बड़ा लॉक अप। इसके पात्र भी दीवालों से आगे और तालों से परे जाना चाहते हैं, प्रकृति की दुनिया में। लेकिन यहां एक अलीगढ़ी ताला है जो ग्राम सेवक के
दरवाजे पर सदा लटका दीखता है।
अनूप: ताले की उलझन दीवार में खिड़की रहती थी में भी है। वहां रघुवर प्रसाद टट्टी के लिए एक अलग ताला लेता
है। उसका किराया भी
अलग देता है। असल में वह प्राइवेसी हासिल करने का किराया देता है। यह बात उसके पिता की समझ में नहीं आती। जिस समाज में शौचालयों की कभी जरूरत ही महसूस न की
गई हो; खुला खलिहान निर्भय निर्मल आनंद
देता हो, जंगल पानी जाने का मतलब ही शौच निवृत्ति हो
वहां 'एक्सक्लूसिव' टट्टी का होना किस पिता को समझ में आएगा। यह तो शहराती जीवन का नागर बोध है। जिस वर्ग में
खरीदारी रोजमर्रा का काम न हो और कोई वस्तु जरूरत के लंबा खिंचे चले आने के बाद
खरीदी जाती हो, वहां ताले की फिजूलखर्ची नहीं
होने दी जाएगी। दूसरे ताले को पिता अपने साथ ले जाते हैं।
सुमनिका: सभी उपन्यासों में बाहर की दुनिया में ताकत की सत्ता वाला समाज है जिसमें
कमजोर का जीना बहुत दारुण है। खिलेगा तो देखेंगे में इसके बहुत से बिंब हैं। थाने से लेकर जीवराखन की दुकान, सिपाही और राउत हैं। पति पत्नी के बीच भी सत्ता के संबंध डेरहिन और
जीवराखन की कथा में उभरते हैं। इसमें शुरू का दृश्य तो भीतर तक हिला देता है जब कोटवार का बेटा
घासीराम जीवराखन को गालियां देता है और पुलीस उसे पकड़ लेती है। वो अपने तीन महीने के बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए
गोद में उठा लेता है, छोड़ता नहीं। मार पीट में न जाने कैसे बच्चे की नाक से खून गिरता
है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इन दृश्यों को पढ़ना भी मुश्किल हो जाता है। जो सबसे कमजोर है वही सबसे पहले शिकार हो जाता है। जैसे खिलेगा तो देखेंगे में बच्चा और नौकर कर कमीज
में मंगतू।
अनूप: घर से बाहर की दुनिया में नौकर की कमीज में दफ्तर है जहां बड़े बाबू और साहब
हैं और इनके बीच कई स्तरों के कर्मचारी हैं। किसी छोटे शहर के दफ्तर का बड़ा धूसर चित्र उकेरा गया है। संतू बाबू (नायक) सबसे ज्यादा तकलीफ में हैं क्योंकि वे नौकर
में तब्दील नहीं होना चाहते। भरपूर जोर लगाने के बावजूद उन्हें नौकर की कमीज पहना ही दी जाती है। यह नौकर
की कमीज एक रूपक की तरह है। संतू आदर्श नौकर मान लिया जाता है। दूसरी तरफ उसकी पत्नी डाक्टरनी की सहायिका बन जाती है। उसे धीरे धीरे इस भूमिका में सधाया जाता है। संतू यह देखकर परेशान हो उठता है कि वह साहब के
बगीचे का घास छीलने वाला नौकर बन गया है। और उसकी पत्नी डाक्टर के यहां खाना बनाने वाली। इस जाल को तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं है। वह बुखार की बेहोशी में डाक्टर को गालियां बकता है। दफ्तर में कटहल के पेड़ पर चढ़कर कटहल तोड़कर कायदे
कानून को धता बताता है। नौकर की कमीज में कोई परिवर्तनकारी
कदम नहीं उठाया जाता। लेकिन जो रूपक नौकर की कमीज से बनाया गया है उसे जरूर अंत तक पहुंचाया जाता है। दफ्तर के बाबू लोगों ने कमीज को चिंदी चिंदी करके
रखा है। अंत में वे सब
मिलकर उसे जला देते हैं। इस तरह वे नौकरशाही में होने वाले शोषण का प्रतीकात्मक अंत करते हैं।
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो दबाव के अनेक रूप हैं। वे अप्रत्यक्ष ही सही, पर पूरे जीवन पर प्रेतात्मा की तरह छाए हैं। न जाने कितने हैं जो भूख से लड़ रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है जहां चार जलेबी का स्वाद तीन चार
दिन तक रहता है या कई बार तीन चार महीनों तक। इस उपन्यास में पिता अपने बेटे को भूखे रहते हुए
जीना सिखाता है। डेरहिन जीवराखन
के चंगुल से भाग जाती है और ताकतवर की हिंसा और प्रहारों को कमजोर लोग एक
जादुई ढंग से रोक देते हैं यानी एक जादुई पत्ती पान में खिलाकर उनको गूंगा बना
देते हैं। क्योंकि उनकी
जबान ही गोली और बंदूक थी। और फिर एक स्वप्न सृष्टि का बिंब है।
अनूप: दीवार में खिड़की रहती थी इसकी तुलना में अधिक रोमांटिक कहानी है। जीवन या परिस्थितियों से वैसी सीधी टकराहट यहां
नहीं दिखती। नायक रघुवर
प्रसाद गणित का प्राध्यापक है। उसका बॉस विभागाध्यक्ष है और दोनों का बॉस प्राचार्य है। एक ढर्रे पर जीवन चलता रहता है। प्रत्यक्षत: किसी को कोई कष्ट नहीं है।
सुमनिका : लेकिन यहां भी विभागाध्यक्ष का दबाव कम नहीं है। और काम पर वक्त से पहुंचने का संघर्ष ही तो खासा
बड़ा है और कष्टसाध्य है।
अनूप : हां, लेकिन फिर भी लगता है न जीवन
में कोई कमी है न जीवन से कोई शिकायत। उपन्यासकार की यह खूबी है कि वह अपनी तरफ से
पात्रों में कुछ नहीं डालता। ठेठ गंवई जीवन है। पात्रों में जीवन जीने की तन्मयता है। सादगी है। इस सब में सादगी
और सरलता उभरती है। प्रोफैसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है जो उसे महाविद्यालय
लाता-ले जाता है। नवविवाहित
प्रोफैसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। खिड़की से बाहर जाने में तो वह मन का राजा है ही, कालेज भी राजा की तरह हाथी पर सवार होकर जाता है।
सुमनिका : हाथी का मिल जाना आपको सिंड्रेला को परी द्वारा दिए गए जीवन सा नहीं लगता? शीशे के जूतों जैसा और कुम्हड़े के रथ जैसा? यह हाथी जो एक बारगी उसे सारी दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है, पेड़ों की फुनगियों का दृश्य
दिखा देता है। सब पीछे रह जाते हैं। रघुवर राजा हो जाता है।
अनूप : इस तरह हाथी को सवारी के रूप में लाकर उपन्यासकार सभ्यता के उपभोक्तावादी
विकास को धता बताते हैं। यह विमर्श का एक अनूठा रूप हैý
सुमनिका : यह बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी है। आप कहना चाहते हैं कि इन सभी उपन्यासों में मुक्ति का एक समानांतर दर्शन
दिया गया है। जहां सबके पास
जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो। यहां गरीबी का वर्णन तो है, लेकिन उसका महिमा मंडन नहीं। और महत्वपूर्ण यह है कि उसका जबाव अमीरी में नहीं खोजा
गया है। मुझे तो लगता है
कि विनोद कुमार शुक्ल का कथ्य, उनके नायक, उनका जीवन, उनकी भाषा, उनका सारा शिल्प प्रचलित शैलियों का बरक्स रचता है।
अनूप : दीवार में खिड़की रहती थी के रघुवर प्रसाद साइकिल के पैडल मारने वाले परिवार
से हैं। नौकर की कमीज के
संतू बाबू भी साइकिल से आगे नहीं सोचते। उन्हें दफ्तर के बड़े बाबू माल गोदाम से एक नई साइकिल निकलवा देते हैं। रघुवर प्रसाद को उसके पिता अपनी साइकिल भेज देते
हैं। विभागाध्यक्ष
स्कूटर वाले हैं। रघुवर को स्कूटर
या कार खरीदने या उनकी सवारी करने की इच्छा नहीं है। हाथी पर भी वे डरते डरते ही चढ़ते हैं। हालांकि बाद में उस भारी भरकम पशु के मोह में भी
पड़ जाते हैं। पर अंतत: उसकी
जंजीर खोल कर उसे मुक्त कर देते हैं। हाथी को मुक्त करने की उन्हें बड़ी खुशी है.
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे के अंतिम हिस्से में पहाड़ी से जो आदमी कांवर लिए उतरता है
उसमें कंद, धान के बीज और शहद भरा है। ये कंद भी जमीन से निकले हैं। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं, 'धान के मोटे बीज थे जिससे पेट भरता था। .. ये धान तेज आंधी में भी खेत में गिर नहीं जाता
था, लहलहाता था। लहलहाने से बांस की
धुन सुनाई देती थी।'
अनूप : अगर नौकर की कमीज में कमीज के जरिए विरोध का रूपक रचा गया है तो दीवार में
खिड़की रहती थी में उपभोक्तवादी सभ्यता का एक बेहद रोमानी और मासूम प्रतिपक्ष रचा
गया है। रघुवर प्रसाद की
खिड़की एक स्वप्न लोक में खुलती है। सुबह-सवेरे, शाम-रात, सोते-जागते वे कभी भी उस खिड़की से बाहर प्रकृति की गोद में जा रमते हैं। यहां तक कि नहाना-धोना, कपड़े धोना जैसी नेमि क्रियाएं भी वहीं पूरी हो जाती हैं। रघुवर के माता पिता और विभागाध्यक्ष भी उस खिड़की
से नीचे उतर चुके हैं। विभागाध्यक्ष के भीतर उस जगह के यथार्थ को जानने की छटपटाहट है। खिड़की से खुलने वाला यह संसार बड़ा सुरम्य है। वहां एक बूढ़ी अम्मा है जिसने सोनसी को सोने के
कड़े दिए हैं। मजेदार बात यह है
कि यह दुनिया भौतिकवादी दुनिया से बिल्कुल अलग है। यहां स्वच्छ जल वाले तालाब हैं। हरे-भरे पेड़ हैं। बंदर हैं, मछलियां हैं। हवा है, बादल हैं। लाभ-लोभ से परे का स्वच्छ निर्मल संसार है। ऐसा लगता है कि उपन्यासकार नौकर की कमीज और खिलेगा
तो देखेंगे के खुरदुरे लेकिन बेहद देशज यथार्थ के बरक्स उतना ही देशज, लोककथाओं वाला रोमानी स्वप्न-संसार खड़ा करना चाहता है। यहां समृध्दि, सुख और तृप्ति के अर्थ ही भिन्न हैं। शायद इसीलिए यह वर्णन हमें अलग तरह का लगता है और
अचम्भे में डालता है.
सुमनिका : शायद वे आदमी के भीतर उस दृष्टि को जगाना चाहते हों, उस खिड़की को खोलना चाहते हों, जहां से कल्पना लोक दिखता है और जो चीजों में सौंदर्य देख पाती है। कल्पना के रेशे बुनने वाली बुढ़िया से हमें मिलाना
चाहते हों जो इस भौतिकवादी दुनिया में कहीं खो गई है।
अनूप : नौकर की कमीज और दीवार में
खिड़की रहती थी में पारिवारिक रिश्तों की एक टीस भरी कड़ी पिता-पुत्र के संबंध के
रूप में आती है। बड़े बाबू का
बेटा घर से भाग गया है। उन्हें लगता है वह उनके पीछे से घर में आता है। सामने नहीं पड़ता। एक स्वप्न जैसे प्रसंग में संतू मूंगफलीवाले को एक
बच्चे के डूबने का किस्सा सुनाता है। बड़े बाबू को पता चलता है तो वे सच्चाई जानने मूंगफली वाले के पास पहुंच
जाते हैं, यह जानते
हुए भी कि यह सच्ची घटना नहीं है। सारे किस्से में उन्हें अपना पुत्र दिखता रहता है। इसी तरह दीवार में खिड़की रहती थी में दस ग्यारह
साल का एक लड़का रघुवर के घर के सामने एक पेड़ पर चढ़कर बैठा रहता है। वह पिता की मार से डरता है और यहां छिपकर बीड़ी
पीता है। पिता घर में होने
न होने को अपने डंडे से जतलाते हैं। बाहर डंडा रखा हो तो पिता घर में है, डंडा नहीं है तो पिता घर में नहीं हैं। डंडा बाहर न होने पर ही पुत्र घर में घुसता है। सोनसी कभी कभार इस लड़के को कुछ खाने को भी दे देती
है। रघुवर और सोनसी
इन पिता-पुत्र का मेल करा देते हैं। विधुर पिता का पुत्र पर स्नेह अपने हिस्से की जलेबी देने से प्रकट होता है.
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में संबंधों की बड़ी प्रामाणिक और साथ ही बड़ी काव्यमय
छवियां हैं। बेटी जिसके जन्म
पर माता पिता एक चिड़िया की सीटी सुनते हैं और उसका नाम बेटी चिड़िया रख देते हैं। बेटा मुन्ना जो भूख को सहता रहता है फिर अचानक अवश
होकर गिर पड़ता है और पूरा परिवार भूख की इस जंजीर से बंधे बच्चे की रक्षा का उपाय सोचा करता है.
अनूप : ये प्रसंग बहुत करुण और निष्कलुष हैं। असल में विनोद कुमार शुक्ल के सारे ही आख्यान में करुणा जीवन जल की तरह
व्याप्त है। यथार्थ बहुत
सच्चा और अकृत्रिम है। समाज का यह तबका कथा-साहित्य में कम ही आया है। बिना किसी तामझाम के आने की वजह से पाठक को हतप्रभ
भी करता है। सच्चाई, निष्कलुषता और करुणा मिलकर सारे आख्यान को बेहद
भावालोड़न से भर देते हैं।
उपन्यास कैसे कहते हैं ?
अनूप: विनोद कुमार शुक्ल की कहनी अलग तरह की है। कुछ बिंदु हैं जिनकी मदद से उनके कथा लेखन को समझने
में मदद मिल सकती है और उससे उपन्यास क्या कहते हैं, इसे जानने में और भी मदद मिल सकती है। उपन्यासकार कथा को रंग-संकेतों की तरह कहता है। वह कथा वर्णित नहीं करता। वह दृश्य का वर्णन करता है। दृश्य के अतिरिक्त कम ही बोलता है। इसमें दो शैलियां मिश्रित हो रही हैं। एक तो नाटक के रंग संकेत लिखने की शैली, दूसरे चित्रकला की तरह चित्र रचने की शैली।
सुमनिका : चित्र तो हैं। लेकिन जितनी छोटी
छोटी डिटेल इनके चित्रों में दिखती है वैसी तो किसी चित्रकृति में दिखाई नहीं देती। उसमें ऐसे छुपे हुए हिस्से तक प्रकट होते हैं जो एक
दो आयामी चित्र में नहीं समा सकते। और फिर एक चित्र कई कई एसोसिएशन और इम्प्रेशन पैदा करता है। और वे कई समानांतरताएं सामने रखते जाते हैं। इससे अर्थ का दायरा भी विस्तृत होता जाता है।
अनूप : लेखक मन:स्थितियों को भी लगभग इसी चतुराई से वर्णित कर देता है। हिंदी में इस पध्दति से धारा-प्रवाह लेखन शायद कम
ही हुआ है। इसलिए इसका
प्रभाव भी अलग तरह से पड़ता है। संयोग से तीनों उपन्यासों में इसे शैली की तरह उन्होंने विकसित किया है। उनका लेखन समय लगभग बीस सालों तक फैला है। नौकर की कमीज 1979 में आया था। खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी 1994 से 1996 के बीच लिखे गए हैं। जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी की भी बहुत जमीनी
हकीकत की कथा है, पर उसकी कहनी पारंपरिक गद्य लेखन
की शैली है.
सुमनिका : उनका पूरा लेखन मुख्यधारा से अलग एक वैकल्पिक संसार रचता है। जिसमें शैली और शिल्प तक में भी उनकी सबाल्टर्न
दृष्टि प्रकट होती है। लोक कथाएं और परिकथाएं और मिथक कथाएं, बच्चों के खेल और संवाद पूरी हकीकत को बेहद मासूमियत से उकेरते हैं।
अनूप: विनोद कुमार शुक्ल के पात्र एक खास तरह की भाषा बोलते हैं। उनका अंदाज भी खास है। कई बार वह एक जैसा भी लगता है।
सुमनिका : खास का मतलब है कि इतनी ज्यादा आम बल्कि कहें वास्तविक और ठेठ.. कि जहां कुछ
भी अतिरेक नहीं होता। पर जिस तरह से विनोद कुमार शुक्ल अपने बड़े खास दृश्यों के बीच उन्हें रख
देते हैं, उससे वे कविता के शब्दों की तरह
उद्भासित हो जाते हैं।
अनूप : नौकर की कमीज के बड़े बाबू और नायक संतू बाबू के संवाद कई जगह विसंगत
(एब्सर्ड) नाटकों की याद ताजा करवा देते हैं। दीवार में खिड़की रहती थी के विभागाध्यक्ष भी कई
बार त से कुत पर उतर आते हैं। ये लोग बेमतलब की बात करने लग जाते हैं। कई जगह उससे हास्य विनोद पैदा होता है, कहीं वह यूं ही ऊलजलूल संवाद बन के रह जाता है, एब्सर्ड नाटकों के संवाद की तरह।
सुमनिका : मुझे बार बार कुछ ऐसा भी लगता है कि उपन्यासकार का कथ्य जो घनघोर यथार्थ और
जीवन है, क्रूर और सुंदर भी है, उसे व्यक्त करने में लेखक उसे बच्चों के खेल संसार जैसा मासूम बना देता है। उनके संवाद, शिल्प, उछाह, सब
जैसे शिशुता की रंगत से रंगे हैं। शायद इसीलिए उनमें लोककथाओं के संवादों सी पुनरावृत्ति, शैलीबध्दता और लय मिलती है। खिलेगा तो देखेंगे के कुछ दृश्य तो कार्टून फिल्म
की याद दिलाते हैं। जब बस गुरूजी के
परिवार को लेने आती है और उनके पीछे पड़ जाती है। वे उससे बचने के लिए पतली गली में जाते हैं। बस भी पतली हो के उस गली में घुस जाती है। वे सीढ़ियां चढ़ जाते हैं तो बस भी चढ़ जाती है। इसी तरह इसी उपन्यास में नवजात को सेकने का प्रसंग
है। या चिरौंजी के
चार बीजों से पेट भरने का प्रसंग है। ऐसा लगता है कि बच्चा अपनी अटपटी सरल रेखाओं में दुनिया को अंकित कर रहा है, दुख को और सुख को। क्योंकि बच्चे ही हैं जो नाटय और
झूठमूठ में भी सचमुच का मजा लेते हैं.
अनूप : नौकर की कमीज में तो दफ्तर के बाबू लोगों ने एक जगह बाकायदा नाटक की दृश्य
रचना की है। जैसे वे उसमें
अभिनय करने वाले हों। हालांकि विसंगत नाटक बाहरी तौर पर अर्थहीन से होते हैं। वे सिर्फ एक माहौल की रचना करते हैं। यही माहौल नाटयानुभव में बदलता है। जबकि इन उपन्यासों की वर्णन शैली में कथा भी आगे
बढ़ती है। विषय-वस्तु
सामाजिक जीवन से गहरे जुड़ी हुई है। नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगे उदास कथा कहते हैं, वहीं दीवार में खिड़की रहती थी
उल्लास से परिपूर्ण आख्यान है.
सुमनिका : यह नाट्य सुख उनके तीनों उपन्यासों में है। क्योंकि जीवन में जो कष्ट है वो सचमुच का है तो
उसको झूठमूठ के सुख से ही मात दी जा सकती है। जैसे कोटवार पूरे यथार्थ भाव से झूठमूठ की बीड़ी
पीने का सुख उठाता है। और गुरूजी झूठमूढ की बीड़ी न पीने को बजिद्द हैं कि उससे भी तो लत
लग जाएगी। उपन्यासकार कहता भी है कि यह झूठमूठ धोखा देना नहीं है बल्कि खेल है और इसका सुतंलन
जीवन में हो तो जीवन जीया जा सकता है।
अनूप: उपन्यासकार चूंकि दृश्य का वर्णन करके ही कथा और चरित्र को आगे बढ़ाता है, इसलिए उसकी अपनी कोई भाषा या भंगिमा नहीं है। वर्णन की भाषा भी पात्रों की ही भाषा है। इस पर स्थानीयता का रंग काफी गहरा है। इसमें खास तरह की अनौपचारिकता, आत्मीयता और अकृत्रिमता है। यही उपन्यासकार की भाषा शैली बन जाती है। यह हमारे आंचलिक कथा साहित्य की भाषा से अलग है। विनोद कुमार शुक्ल की भाषा की यह खूबी है।
सुमनिका: और उनका वाक्य विन्यास?
अनूप: विनोद कुमार शुक्ल की भाषा का वाक्य-विन्यास भी भिन्न है। इनके वाक्य छोटे होते हैं। आधुनिक पत्रकारिता में छोटे वाक्य लिखना अच्छा माना
जाता है। वे किसी दृश्य या
घटना का छोटा छोटा ब्योरा छोटे छोटे वाक्यों में देते हैं। इससे एक तरह का लोक कथा वाचन का रंग भी आता है। पर शुक्ल की कहानी में नाटकीय भंगिमा बिल्कुल नहीं
है। बल्कि भंगिमा ही
नहीं है। यही इसकी खूबी
है। यह खूबी पात्रों के साथ मेल खाती है। क्योंकि पात्रों की भी कोई भंगिमा नहीं है। सीधे सादे जमीनी पात्र। गरीबी का गर्वोन्नत भाल लिए। यहां गरीबी या अभाव का रोना नहीं है। आत्मदया की मांग नहीं है। उससे बाहर आने के क्रांतिकारी तेवर भी नहीं हैं। असल में वे जैसे हैं, वैसे ही उपन्यासों में हैं। हां फ यह है कि ये वैसे नहीं हैं जैसा हम लोगों के बारे में सोचते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का सारा गद्य ही वैसा नहीं है
जैसा हम प्राय: पढ़ते हैं। यह अपनी ही तरह का गद्य है। इसने गद्य की रूढ़ि को तोड़ दिया है। हमें रूढ़ गद्य पढ़ने की आदत है। शायद इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल पर उबाऊ गद्य लिखने की तोहमत लगती है.
सुमनिका : ऊब का कारण शायद पाठक की हड़बड़ी में छिपा है, कि वो उनकी चाल से दृश्य में
नहीं रम पाता। वैसे विनोद कुमार शुक्ल के शिल्प में कदम कदम पर आभास एक दूसरे में बदल जाते
हैं। जैसे गाड़ी का
डिब्बा जीवन की गाड़ी का डिब्बा हो जाता है जिसमें परिवार के साथ गुरूजी बैठे हैं और टिकट जेब
में है। जैसे बुखार की
गाड़ी तीन दिन तक जिस्म के स्टेशन पर रुकी रह जाती है। पैरों में चप्पल नहीं होती लेकिन माहुर का लाल रंग
हवा पे छूट जाता है। वैसे विसंगत नाटक वाली बात भी पते की है।
विनोद कुमार शुक्ल का देखना
अनूप : आम तौर पर रचना में दो पहलुओं की छानबीन कर लेने से काफी कुछ पता चल जाता है कि उसमें क्या कहा
है और कैसे कहा गया है। शुक्ल जी के संदर्भ में उनके देखने के अंदाज को देखना जरूरी लगता है। जैसे किसी भी घटना, पात्र, स्थिति, विचार, वस्तु को जानने के लिए यह जरूरी होता है कि हम उसे कहां से देखते हैं। दूर से, पास से, ऊंचे से, नीचे
से, करुणा से, उदासीनता से, संलग्नता से या निर्लिप्तता या निर्ममता से। रचनाकार क्या पोजीशन लेता है, उससे उसके सरोकार तय हो जाते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि अद्भुत है। वे अपने पात्र को मचान पर बैठकर या गर्त में गिराकर
नहीं देखते। उनके पात्र न तो
ऊंचाई से दिखने वाले खिलौने हैं, न ही नीचे
से दिखने वाले भव्य महापुरुष। रचनाकार समस्तर पर रहकर देखता है। उसके पास पात्र को रंगने या बदरंग करने की
कोई कूची भी नहीं है। जैसे रचनाकार को किसी चीज को जैसी है वैसा ही कहना बड़ा पसंद है। जैसे दिन की तरह का दिन था, या रात की तरह की रात थी। इसी तरह उसके पात्र जहां और जैसे हैं वे वास्तव में
ही वहां और वैसे ही हैं। रचनाकार बस उनके अंग संग बना रहता हैý
सुमनिका : पर वो एक स्थिति को कोण बदल बदल के भी देखता है।
अनूप : इस देखने में मजे की बात है कि सिर्फ पात्र ही नहीं, पूरा जीवन-जगत ही उसके अंग संग है। उसमें व्यक्ति, प्राणि जगत और प्रकृति सब समाहित है। यहां व्यक्ति का मन भी उसी पारदर्शिता से दिखाता है
जितनी स्फटिक दृष्टि से प्रकृति और वनस्पति जगत को देखा गया है।
सुमनिका : हां। सम्पूर्ण जीवन के
प्रति ऐसी समानुभूति कि एक हिलता हुआ पत्ता भी मानवीय स्थिति का हिस्सा ही होता है, संवादरत होता है। पेड़ की छाया भी, चींटी भी, चिड़िया भी, आलू प्याज और तोते का पिंजरा भी। सचमुच मुझे यह बचपन की नजर का अवतरण लगता है। जब कुछ भी निर्जीव नहीं होता। न ही अपने संसार से बाहर होता है। यह अद्भुत लौटना है। मैं इस नजर पर अभिभूत हूं।
अनूप : विनोद कुमार शुक्ल के देखने में भावुकता नहीं है। निर्ममता और उदासीनता की कोई जगह नहीं है। पूरी तरह से संलिप्तता भी नहीं है। उस पर निर्लिप्तता की छाया प्रतीत होती है।
सुमनिका : हां, दृश्य पहली नजर में निर्लिप्त
लगते हैं..
अनूप : हां, पर शायद इन्हीं दोनों के संतुलन
से करुण दृष्टि का जन्म होता है। रचनाकार का देखना करुणा से डबडबाया हुआ है। यह एक दुर्लभ गुण है। इस तरह उपन्यासकार जीवन-जगत
के सम-स्तर पर रहते हुए उसे करुणा-आप्लावित नजर से देखता है। इस वजह से उनका गद्य अनूठा बनता है। करुणा से देखे जाने के कारण ही रचना श्रेष्ठ होती
है, इसमें कोई
शक नहीं है। यहां रचनाकार
प्रकृति और प्राणि जगत को भी उसी सजल नजर से देखता है। चाहे वे पेड़ पौधे हों, हाथी हो, चाहे बादल आकाश
प्रकाश और अंधेरा हो।
सुमनिका : हां, यह उनकी बहुत बड़ी शक्ति है। और यह करुणा सपाट बयानी की तरह नहीं आती। करुणा पर वो एक झीना परदा डाल्ते हैं। यह उनके खास शिल्प का पर्दा है जिसमें लोक कथाएं, बच्चों के खेल और परी कथाओं का शिल्प है। सच और झठमूठ के
खेल का एक निराला संतुलन बनता है।
अनूप : विनोद कुमार शुक्ल की नजर में एक और गुण है, उनकी आर पार देखने की शक्ति। इसी नजर से वे आकाश को देखते हैं और उसमें अंधेरे उजाले को देखते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे हाथी की खाली होती जगह देखते
हैं और लिखते हैं 'हाथी
आगे आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी। ' यह पंक्ति दीवार में खिड़की रहती थी के पहले अध्याय का
शीर्षक बनती है। यथार्थ को रूढ़िबध्द ढंग से देखने का आदी पाठक इस पंक्ति को निरर्थक पाता है। रूढ़ि में नवीनता देखने वाला पाठक इस पंक्ति में
चमत्कार देखता है। लेकिन अगर आप
ध्यान से पढ़ें और देखने लगें तो हाथी की जगह आपको दिखने लगेगी।
सुमनिका : हम कह सकते हैं कि एक दृश्य के गतिशील तत्वों को वे देखते हैं तो रुके हुए तत्वों को भी। फोरग्राउंड को देखते हैं तो बैकग्राउंड को भी। और उन्हें इंटरचेंज भी कर देते हैं। कभी अग्रभूमि का आकार देखते हैं तो कभी पृष्ठभूमि
का। जैसे अंधेरा और
हाथी। फिर अंधेरे के हाथी।
पानी के भीतर और पानी के ऊपर का अंधेरा। मनोविज्ञान में यह परसेप्शन का खेल होता है।
अनूप : असल में विनोद कुमार शुक्ल को हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा सकता। धीरज से पढ़ने पर ही अनूठी दुनिया खुलती है। जाते हुए हाथी से हाथी की विशालता, कालेपन और मंद चाल का एहसास होता है। लेखक उसे दत्तचित होकर जाता देखता है। रघुवर प्रसाद, सोनसी और छोटू हाथी को इसी नजर से देखते हैं।
सुमनिका : हां, वो दृश्य में इतने गहरे उतरते
जाते हैं .. क्षण क्षण के विकास के साथ। और हम से भी उसी चाल की मांग करते हैं। और शायद ऊब की तोहमत इसी कारण लगती है कि हमारी नजर
ऐसी विलंबित और दृश्य में डूबी हुई नहीं होती।
अनूप : इसी तरह रचनाकार प्रकाश और अंधेरे की छटाओं की विलक्षणता को देख और दिखाकर
पाठक को आह्यलाद से भर देता है। खिड़की से बाहर जाता या अंदर आता अंधेरा या प्रकाश वास्तव में ही दिखने लगता
है। गहन अंधेरे के
बाद अत्यधिक उजाले को वे दो सूर्यों का उजाला कहते हैं। विरह के अंधेरे में पड़े रघुवर को दिन का उजाला
इतना ज्यादा चुभता है मानो वह दो सूर्यों का उजाला हो। हाथी को स्वतंत्र करने का सुख रघुवर प्रसाद को इतना
ज्यादा है कि उन्हें आगे पीछे अंधेरे का स्वतंत्र हुए हाथियों का जूलूस निकला हुआ
महसूस होता है। इससे एक तरफ
अंधेरे की सघनता का बिंब बनता है, दूसरी तरफ
हाथी को आजाद करने का उल्लास सारे वातावरण में घुल जाता है। एक अन्य प्रसंग में बिजली के उजाले में गिरती हुई
पानी की बूंदें दिखती हैं जो पतंगों की जरह जीवित दिखती हैंý
इसी में सोनसी का अपने घर जाने और रघुवर प्रसाद के
विरह का प्रसंग भी बहुत मार्मिक है। यहां 'नहीं
है' शब्दों की ध्वनि मानो कई दिन तक हवा में अटकी रहती
है। रचनाकार मानो
ध्वनि को भी देख रहा है। रघुवर प्रसाद हाथी को खोलने के लिए जा रहे हैं। जाते जाते सोनसी पेड़ पर बैठे रहने वाले लड़के के
बारे में पूछती है। वे धीरे से
चिल्ला कर कहते हैं 'नहीं
है'। रात के सन्नाटे
में यह आवाज आगे तक चली गई। एक और आदमी जो अपने घर के सामने बैठा था, उसने भी यह आवाज सुनी। वह सहज बोल उठा, 'कौन नहीं है' इसके बाद सोनसी के
जाने का प्रसंग है। रघुवर प्रसाद को लगता है कि बस इस तरह रवाना हुई जैसे सोनसी को
छीन कर ले गई। जो रघुवर खिड़की
से बाहर अपने मन के लोक में रमे रहते थे, वे अचानक यांत्रिक हो जाते हैं। नवविवाहित का पत्नी के बिना मन नहीं लग रहा। रात को नींद खुलने पर वे सड़क पर आ जाते हैं। वे रात के सन्नाटे में 'नहीं है' शब्द
बोलना चाहते हैं। उन्हें लगा 'नहीं
है' जैसा वातावरण गहराया हुआ है। वे दृश्य की कल्पना सी करते रहते हैं जिसमें कोई
आदमी फिर पूछता है 'कौन
नहीं है भाई'। रघुवर कातर मन से कहते हैं 'सोनसी नहीं है'। यह ध्वनि मानों कई दिन तक अटकी रही आती है। यह रघुवर की अटकी हुई मन:स्थिति ही है।
सुमनिका : कदम कदम पर उनके वर्णन करुण-हास्य या ब्लैक कामेडी के जीवित उदाहरण हैं।
अनूप : हां। इस तरह हम कह
सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की विषय-वस्तु और शिल्प का आस्वाद तभी
लिया जा सकता है जब हम उनके देखने को भी तनिक समझ लें। अगर उनकी तरह के देखने से हम तदाकार नहीं होते हैं
तो हमें कथा, कथ्य, विषय-वस्तु बहुत साधारण लगेगा। उनके कहने का तरीका चामत्कारिक लगेगा। तब उपन्यासों को रूपवाद की तरफ ठेल दिया जाएगा। ऐसा करना इन उपन्यासों के साथ अन्याय होगा। इसका अर्थ है कि उपन्यासों के क्या और कैसे को उनकी
अप्रतिम दीठ के जरिए समझने में मदद मिलती है।
(विनोद जी की छवि हिन्दवी से साभार)
1 टिप्पणी:
विनोद कुमार शुक्ल दृश्य लेखन करते हैं, हमारी इस बात की पुष्टि वे खुद कर रहे हैं। हाल में आए पाखी के विशेषांक में राकेश श्रीमाल के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए वे कहते हैं, ''मैं भाषा में नहीं सोच पाता। दृश्य के रूप में सोच मेरे पास होती है। दृश्य में सोचता हूं। यदि मैं सोचता हूं कि एक आदमी जा रहा है तो अपनी सोच में उस आदमी को जाते हुए देखूंगा। मैं यह भी सोचूंगा या देखूंगा कि वह कैसा है ? क्या पहना है ? कैसा नाक-नक्श है। सोच की इच्छा के अनुसार हर तरह से उसे देखूंगा और पात्र बना लूंगा। उससे पहचान बढ़ाऊंगा। भाषा में दर्ज करूंगा। दरवाजा सोचूंगा तो दरवाजा देख लूंगा, कि नववेडि़या है कि नहीं। उसमें पीतल के फूल या खीले लगे हैं या नहीं। यदि लोहे का गेट होगा तो उसमें लगा हुआ माला भी देख लूंगा। देखने की जरूरत के हिसाब से या जो दृश्य है उसे देखकर भाषा में उसी तरह लिखना चाहूंगा जैसे सकेच बनाता हूं। मैं अपने लिखने में एक चित्रकार, एक फिल्म निर्देशक की सबसे बड़ी कमी महसूस करता हूं। मैं भाषा की अपनी रचना-प्रक्रिया में नौसिखिया चित्रकार, फिल्म निर्देशक हूं।''
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