एक
ऐसी भाषा पर बोलना, लिखना
या सोचना कठिन प्रतीत होता है जो अपने भीतर समाई हुई हो, जिसे अपने से अलग करके देखना आसान नहीं, क्योंकि
उसने आपके बहुत से हिस्से को गढ़ा होता है - जो सातवीं इंद्रिय की तरह व्यक्ति और
संसार के बीच निरंतर एक अदृश्य तंतुवाय रचती है। हिंदी के विषय में सोचना कुछ ऐसा
ही है मेरे लिए। लेकिन मुझसे अलग भी तो, मुझ से बाहर भी तो,
उसका एक जीवन है - विराट स्वरूप है। फिर शायद मेरे भीतर की इस भाषा
और मुझसे बाहर बहुत बड़ी इस भाषा का वजूद भी तो अलग-अलग कहां है!
हिंदी
वही भाषा है जो कि विश्व के सबसे बड़े भाषा परिवार - भारोपीय भाषा परिवार की
भारत-ईरानी शाखा की वंशज है। इस भाषा के शरीर, इसकी आत्मा में साढ़े तीन हजार सालों की भाषा की अटूट
श्रृंखला, एक परंपरा समाई हुई है। उसकी ध्वनि और शब्द परंपरा
में ही नहीं - अर्थतत्व में भी।
यह
भाषा एक दीर्घ समय-क्रम में संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंशों की
एक लंबी यात्रा तय करके आज यहां तक पहुंची है। यही है वह भाषा जिसमें वज्रयानी
सिद्धों ने सहज सुख एवं शून्य तत्व की खोज की थी, नाथों ने
वैराग्य और हठयोग गाया था तथा जैनों ने पुरा-कथाओं को अहिंसा और निर्वेद में ढाला
था। इसी भाषा में राजस्थान की वीर गाथाएं गूंजीं और अमीर खुसरो का मस्ती भरा जन
साहित्य पल्लवित हुआ। इसी में कपड़ा बुनते हुए कबीर ने परम तत्व की खोज की तो
रैदास, नानक जैसे संतों ने अपने गूढ़ आध्यात्मिक मंतव्य
कहे। इसी भाषा में सूफियों ने प्रेम को ईश्वर बना दिया और इसी में कृष्ण भक्ति और
राम भक्ति की धाराएं बह निकलीं। इसी ने दरबारों में पहुंचकर श्रृंगार, नीति और भक्ति की त्रिवेणी बहाई और फिर भारतेंदु और महावीर प्रसाद
द्विवेदी के कारखानों में ढलती ढलाती हुई खड़ी बोली बनी। इसी में छायावादियों ने
प्रकृति, प्रेम और उद्दात्त कल्पना के रंग भरे, प्रगतिवाद ने मानवीय न्याय के गीत गुंजाए और प्रयोगवाद और नई कविता की सूक्ष्म
संकेत व्यवस्था बुनी गई। इसी में प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल, अश्क, आचार्य द्विवेदी, नागार्जुन, अज्ञेय, इलाचंद्र
जोशी, भारती, राकेश, निर्मल वर्मा ने अपने-अपने संसार रचे। यही गालिब,
मीर, सौदा, इस्मत, मंटो, बेदी और फैज़ अहमद फैज़ की जुबान बनी।
यही
क्यों, मेरे लिए
और मुझ जैसे सैकड़ों हजारों के लिए यह भाषा एक ऐसा सेतु भी बनी जिसने हमारा परिचय
रूसी साहित्य से, बांग्ला के रवींद्र और शरत से कराया था।
यह
वही तो विराट-स्वरूपा भाषा है जो आज मुझ जैसे अदना वजूद की रगों में, रस बनकर बहती है, चेतना बनकर उजास देती है।
हिंदी
का यह विराट स्वरूप इस पृथ्वी के गोलाकार पर जगह-जगह पर प्रसरित सा है। भारतीय
उपमहाद्वीप में और जहां जहां भारत मूल के लोग रहते हैं जैसे पाकिस्तान, नेपाल,
भूटान, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका, इत्यादि देशों में उसका अस्तित्व है तो
भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी देशों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया तथा जापान जैसे देशों में भी इसकी
उपस्थिति है। फिर वे देश हैं जहां हिंदी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ा-पढ़ाया
जाता है जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया,
कनाडा, यूरोप के देश। और फिर दुबई,
अफगानिस्तान, मिस्र जैसे इस्लामी देशों के अलावा मॉरीशस जैसे
दीपों में भी उसका अनिवार अस्तित्व है। मॉरीशस में हिंदी सन् 1834 से गिरमिटिया या बंधुआ मजदूरों के साथ गई थी तो फिजी यानी दक्षिण प्रशांत
सागर में 322 देशों के समूह में जनसंख्या का 44% भारतीय है। नेपाल राजनीतिक रूप से अलग होकर भी भारत से जुड़ा रहा है। वहां
के तराई क्षेत्र में स्कूलों की भाषा भी हिन्दी रही है। श्रीलंका में बिनाका
गीतमाला को कौन भूला होगा। इसी तरह यूएई में इंडो पाक मुशायरे की परंपरा रही है।
जर्मनी, हंगरी, ब्रिटेन, कनाडा के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है और रूसी में तो
हिंदी पुस्तकों की सर्वाधिक अनुवाद हुए हैं। इन देशों में हिंदी भाषा का शिक्षण
भारत-विद्या (इंडोलॉजी) का अंग रहा है।
आज
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने व्यापार के लिए यह भाषा महत्वपूर्ण लगती है तो टेक्नोलॉजी
के संदर्भ में भी हिंदी को लेकर जो भय थे, वे काफी हद तक दूर हो चुके हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने यह बात रेखांकित की है कि भारत के
तकनीकी रूपांतरण की प्रक्रिया हिंदी और दूसरी भाषाओं की सहभागिता के बिना अधूरी है।
माइक्रोसॉफ्ट अपने उत्पादों तथा सेवाओं को ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं में
उपलब्ध कराने के लिए कृतसंकल्प है। और फिर यह भी कि जब बोलकर टाइप करने की तकनीक
और विकसित हो जाएगी तो हिंदी को एक नई तरह की पंख मिल जाएंगे।
ये
सब बातें आशान्वित तो करती हैं, फिर भी अपने देश के संदर्भ के बिना ये बातें थोड़ी हवाई प्रतीत होती हैं।
भारत का भाषाई नक्शा देखें तो दिखेगा एक बेहद बहुवर्णी देश। अनेक भाषाएं और उनके अनेक
रंग। फिर भी ऊपर हिमाचल से लेकर नीचे छत्तीसगढ़ तक एक रंग ऊपर नीचे दाएं बाएं फैला
दिखेगा - जो हिंदी भाषा का रंग है। तब लगता है कि यह भाषा कितनी व्यापक है और इसके
कितने रूप हैं, कितनी बोलियों वाला एक भरा पूरा परिवार है
हिन्दी का। एक कल्पना उभरती है मन में कि एक संवेदी रिकॉर्डर लेकर भारत भ्रमण
किया जाए- जगह जगह थमते हुए, जगह जगह रमते हुए, ऊपर से नीचे, हर गली-कूचे-बाज़ार-सड़क-घर पर बोली
जाती जुबानों, हिंदी की अनेकों छवियों,
रंग और वर्णों से एक ऑडियो महाग्रंथ रचा जाए। तब दिखेगा कि हिंदी का भी कोई एक रंग
नहीं - रंग में रंग घुल-मिल रहे हैं- अलग-अलग लहजे उभर रहे हैं।
इसी
वैविध्य के बीच कई बार अन्य भारतीय भाषाओं की तरफ से यह दबी दबी जुबान में कहा
जाता है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों की जगह कम कर रही है- उन्हें प्रसरित
होने से रोक रही है। पर हिंदी तो स्वयं उन तमाम बोलियों और भाषाओं के समाहार से
बनी है - वहीं से उसका उद्भव हुआ है - और
वह जो भारतीयता की समग्रता की पहचान है, भारतीय भाषाओं की प्रतिनिधि है, कभी उनके विरुद्ध नहीं हो सकती। खड़ी बोली के महत्व पाने के कारण भौगोलिक
भी रहे हैं, राजनीतिक और सांस्कृतिक भी। वह तो भारत की एकता
एवं उसकी अनूठी सामासिक संस्कृति का, गंगा जमुनी तहजीब का
साकार मूर्त रूप है। भारत में तमाम राष्ट्रभाषाएं हैं पर कोई भी देख सकता है उन
भाषाओं की क्षेत्रीय सीमाएं हैं, जबकि राजकाज की भाषा के
अलावा हिंदी एक संपर्क भाषा, एक मैटा लैंग्वेज, एक कौमी जुबान की तरह उभरी है। उर्दू भी तो हिंदी की ही शैली है - या यूं
कहें कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के चेहरे के दो परिपार्श्व या प्रोफाइल हैं। उर्दू
की रंगत वहां नजर आती है जहां हिंदी में अरबी फारसी के शब्दों की मात्रा बढ़ जाती
है और वहां परिनिष्ठित हिंदी होती है जहां संस्कृत के तत्सम शब्द आने लगते हैं।
आज
भाषा पर हमारा चिंतन कुछ बहुत ही उपयोगितावाद से भरा या रिडॉक्शनिस्ट किस्म का हो
गया है। हम कहने लगे हैं कि वह बस विनिमय का, संप्रेषण का जरिया भर है। लेकिन क्या इतनी ही होती
है कोई भी भाषा ?
न्यूंगी
व थ्योंगो कहते हैं कि भाषा में हमारी पूरी स्मृति परंपरा समाई रहती है, वह एक स्मृति भंडार होती है, सहस्रों वर्षों का एक ‘मेमरी बैंक’ - एक सांस्कृतिक ‘स्टोर हाउस’। क्या भाषा एक ऐसी नदी सरीखी नहीं होती जो अनेक युगों अनेक जगहों से बहती
हुई हमारे पास आती है और उनमें हमारे पूर्वजों के अनुभवों,
मूल्यों, स्वप्नों और संस्कृति का जल भरा होता है ? यह एक रिक्थ, एक दीर्घ विरासत की वाहक है, जिसके एक घूंट जल में सदियां समाई रहती हैं - हम उस नदी में नहाते हैं तो
वे सारे स्वप्न और मूल्य हमारे रक्त में उतर जाते हैं, वह
सारा परिवेश, वे तमाम तत्व हमारा हिस्सा हो जाते हैं। अगर
हमें ऐसी जादुई नदी का जल पीना न चाहें तो यह चुनाव सचमुच में ही त्रासद है।
‘मेरा
दागिस्तान’ के लेखक रसूल हमजातोव ने इसी बात को कुछ यूं कहा
था कि हमारी संस्कृति, हमारे अनुभव और हमारे मूल्य मालमत्ते
से भरे एक भारी संदूक की तरह हैं और भाषा है उस संदूक की चाबी है।
आजादी
से पहले और आजादी की जंग के दौरान जिस हिंदी को तबके इतिहास पुरुषों ने अंगीकार
किया था - आज आजादी के बाद हमारी नजर में यह कैसा विकार, कैसा टेढ़ापन आ गया है कि हम अब लाभ-लोभ
के चश्मे से ही भाषा का आकलन करते हैं।
समय
क्रम में हम बहुत सी चीजों से कटे हैं- राजेश जोशी के शब्दों में कहें तो ‘टूटने के क्रम में टूटा है बहुत
कुछ’।
हम
कटते गए हैं अपनी सामासिक जीवन शैली से, प्रकृति से... भाषा को लेकर भी यही सच है।
आज
हिंदी मीडिया की भाषा है,
विज्ञापनों की भाषा है, आम जन की भाषा भी है पर विद्वत समाज हिंदी को तिलांजलि देने पर तुला है।
क्यों यह सभा गोष्ठियों में, अकादमिक हलकों में, गंभीर विमर्श की और ज्ञान विज्ञान की भाषा नहीं बन पा रही है? क्या यह भाषा की कमी है या इस भाषा के बोलने वालों की ?
कुछ
दिन पहले एक ‘तथाकथित
उपयोगी’ विषय पढ़ाने वाली अध्यापिका ने जब जाना कि मैं हिंदी
पढ़ाती हूं तो उन्होंने बताया कि उनका नौ वर्षीय नौनिहाल उनसे पूछता है कि हम
हिंदी-मराठी पढ़ते ही क्यों हैं? एक तो इसमें मात्राओं की
गड़बड़ी के कारण ‘मार्क्स’ कटते हैं और
फिर यह मेरे ‘करियर’ के लिए नितांत अनावश्यक
है। बच्चे की बातें बचकानी हों तो क्या मुज़ायका – पर क्या यह केवल बच्चों की दलीलें
हैं ? क्या यह अभिजन वर्ग की दबी-ढंकी कभी खुली आवाज नहीं है
? क्या जीवन से तमाम सूक्ष्म संवेदनाएं, पूर्ण मनुष्य होने की जरूरत एक झटके में गायब हो जाएंगी ?
जब
मैं छोटी थी तो मां के गीत और कहानियों से बनने वाली छवियों के बाद कार्टूनों से
मोहित होने लगी थी। यह कार्टून लाहौर टीवी पर एक खास वक्त पर आते थे। तब मन ललकता
था कि ये सब अपनी भाषा में हो। बड़े होने पर लगा कि पुरातत्व, इतिहास,
समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, कला पर अपनी
भाषा में उम्दा लेखन पढ़ूं। कुछ कुछ मिला भी- पर वैसा नहीं जैसा अंग्रेजी में
उपलब्ध था।
तो
कहां कमी रह गई ? शायद
हमारे प्रेम करने में ही कुछ दरार आ गई होगी! अगर भाषा से
प्रेम करते हैं तो केवल सम्मेलनों, दिवसों, बड़ी-बड़ी बातों से आगे तो जाना ही होगा। यह प्रेम मौन भाव से अपनी भाषा को बूंद दर बूंद समृद्ध बनाने
से ही फलित होगा। यही होगा हमारे इस इश्क का इजहार और बयान।
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