सोमवार, नवंबर 24, 2008

ढूंढ़ लाया हूं वही गीत मैं तेरे लिए

ढूंढ़ लाया हूं वही गीत मैं तेरे लिए



बचपन की आंतरिकता के सरोवर तक स्मृति की सीढ़ियां पहुंचती हैं। जैसे समय का कोई दूसरा ही तल हो। यहां भी एक विराट संसार है। लेकिन उस सब को समेट ले, इतनी बड़ी अंजुरि नहीं। कच्चा सा मन, उससे भी कच्ची बुद्धि‍ लेकिन संवेदनाओं का संसार खूब टटका...। न जाने कितने दृश्य हैं जो भीतर तह दर तह दबे पड़े हैं। उनके रंग ज़रा भी तो फीके नहीं पड़े- शायद इसलिए कि तब हमने दृश्यों को, वस्तुओं को उनके रंगों और रूपाकारों में ही भीतर उतारा था। यादों की नीम अंधेरी सुरंग में घुसो तो रोशनी के अनेक रूप उभरते है - कई स्रोतों से फूटती, अलग अलग कोण एवं डिज़ाइन बनाती रोशनियां और अंधेरे। अनेक स्पर्श बोध सरसराते हैं। और विशिष्ट गंधों के झोकें तो समय के लंबे अंतराल को मानों अपने गरुड़ पंखों से एक पल में लांध जाते हैं। यहीं दबी पड़ी हैं अनेक ध्वनियां, आवाज़े और पुकारें - सृष्टि और प्रकृति की, मानव सभ्यता की और फिर घर की चौहद्दी की। यही ठहर ठहर कर और रुक रुक कर आने वाली पुकारें और आवाज़ें जो अनुभूति और आवेग की उद्दामता में स्वर लहरी बन जैसे हवा में लहराने लगी हों।

तो वो परिवेश और परिदृश्य मां और पिता की बांहों के दायरे से लेकर, बिस्तर की चौहद्दी, कमरे, गलियारे और घर आंगन से लेकर बाहर सड़कों, चौराहों, समृद्र और आकाश तक प्रसरित था। इस सब में दिन, शाम और रात के रंग जगते-बुझते, लोग, चेहरे और फूल खिलते, पेड़ झूमते। इसी ऐन्द्रिय गम्य संसार से कच्ची पक्की भावनाओं का रिश्ता भी बनने लगा था। तो इस विराटता और बहुरूपता में कुछ स्वर लहरियां होती जो कहीं से भी, कहीं भी बहते पानियों से बहने लगतीं और संपूर्ण परिवेश में हस्तक्षेप करतीं। ये स्वर लहरियां और उनमें ढल गए शब्द उन गीतों के होते जिन्हें बाद में हमने फिल्मी गीतों के रूप में पहचाना। ये स्वर हमारे अमूर्त और औघड़ से भावों के निकट आ जाते और भीतर और बाहर के दृश्य संसार में कुछ अतिरिक्त उजास सी भर जाती। जैसे कायनात ही कुछ कहने लगी हो, कोई वाणी उसके भीतर से फूटी हो। अनकहे - अरूप भावों में कोई सूरत सी उभरने लगती। मन ठहर कर सुनने लगता। कुछ शब्द भी होते जो हंस स्वरों की पीठ पर सवार आकाश में उड़ाने भरते होते, हमारी चेतना पर मंडराते और हमारे कंधों पर आ बैठते।

अपने बचकाने और सीमित अनुभव संसार की बिनाह पर ही हम शब्दों की छवियां एवं अर्थ ग्रहण करते हैं। बालमन खंड खंड शब्दों को पकड़ पाता है, संपूर्ण अर्थ या प्रोक्ति को नहीं। और ये अर्थ भी मनस बिंब के रूप में ही उभरते हैं। बाद तक भी शब्दों के साथ हमारा बचपन लिपटा रहता है। इरविन एडमैन कहते हैं - शब्द कभी अनासक्त अर्थों के वाहक नहीं होते यानी एक ओर वे ध्वनि एवं टोन होते हैं, दूसरी ओर त पूर्ण प्रतीक, तो तीसरी ओर भावनात्मक उत्तेजना। उनमें बाल्यकाल की स्मृतियां होती हैं, और उस समय की परिस्थितियों के साहचर्य (असोसिएशन्ज़) भी। तो तबका छोटा सा अनुभव संसार था। उसी से छन कर कुछ बिंब और छवियां शब्दों से झरतीं और हमारी झोली में आ गिरती। कुछ तासुरात, कुछ कैफियतें भी उनके गिर्द लिपटी होतीं - जिन्हें खोल पाना या जिनकी व्याख्या कर पाना तब उस अवस्था के बस की बात न थी। लेकिन कुछ तो था - कोई मीठी सी अनुभूति, एक झंकृति। अपने और इस संसार के होने का बोध सा जग जाता जो शेष अनुभूतियों से भिन्न होता। दो मिनट तक एक जादू सा तारी रहता, फिर अचानक तिलिस्म टूट जाता। देश और काल सबकुछ को वैसे ही धारण किए होता पर फिर भी जैसे अचानक खाली सा हो जाता। मन का जो संप वस्तुजगत से हुआ था, वो एकबारगी टूट जाता। कुछ समय पहले, निकटतम दृश्य का जो चौथा भावमय आयाम उभरा था - वो अब विलीन हो जाता। और चीज़े अपनी सामान्यता और सतही अस्तित्व में लौट आतीं।

गर्भ के भीतर धड़कन सुनने के बाद मां के हृदय की धड़कन और फिर थपकियों की ताल और गुनगुनाहटों की स्वरता के बाद संगीत की शक्ति से यह भी एक महत्वपूर्ण सामना था। और ये एक ऐसा साहचर्य था जो जीवन भर बना रहा। बहुत से अमूर्त भावों के नयन-नक्श इन्हीं गीतों ने उभारे और फिर कुछ विचार, जो विचार ही बने रहते तो ठीक से भीतर घुल नहीं पाते। इन्हीं स्वरों की भंगिमाओं में ढल गए और फिर हमारी निजी एवं जातीय भंगिमाओं का हिस्सा बने।

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लोकांचलों में जो स्थान लोकगीतों और लोक धुनों का है, कुछ कुछ वैसा ही आधुनिक शहरी अंचलों में फिल्मी गीतों का रहा है। भारतीय समाज में संगीत केवल मंच एवं फिल्म का ही नायक नहीं-- बल्कि जीवन की हर 'समवेतता' के रूप के साथ जुड़ा है। फिर वो चाहे राजनीतिक सभा हो, धार्मिक सभा, मेले--जुलूस हों, तीज त्यौहार हो या मृत्यु का मातम। बच्चे के प्रभाव ग्रहण और संवेदन-प्रत्यक्षीकरण के विकास और दूसरी ओर मानवजाति के संवेदन प्रत्यक्षीकरण के क्रमिक ओर ऐतिहासिक विकास में कुछ समांतरता तो जरूर है। और इसी आधार पर यह कहने का मन होता है कि फिल्मी गीतों ने तमाम शहरी और कस्बाई भारतीय जनमानस के दु:ख:सुख को ग्रहण किया है, उन्हें गाकर उन्हें ही लौटाते वक्त साथ में जीवन जीने का रोमान और संघर्ष की शक्ति दी है। इन गीतों ने इस जन की अनेक अनुभूतियों और स्थितियों को शब्द और बिंब दिए है,स्वर और लय बक्शे हैं। फिर इन्हीं गीतों ने अस्थाई रूप ही से सही दर्शन की उद्दात्त मनोभूमियों को भी जनमानस में रोपा है, पल्लवित किया है। समाज और व्यवस्था ने उन्हें जैसा भी न्यायविहीन जीवन दिया हो, चेहरों पर जैसी भी विडंबनाएं उकेरी हों, इन जन कलाओं ने ही जन को यह ताकत दी है कि वे इस जीवन को झेल ले जाएं। जीवन जैसा भी दारुण हो, उसे गीत में ढाल कर गाया जा सकता है। यह अनमोल दर्शक भाव भी वहीं से मिलता है। कुछ भी जी लेने के बाद उससे कुछ दूर खड़े होकर उसे देखा जा सकता है, अपलक, और शब्दों की माला में गूंथा जा सकता है, स्वर एवं लय में बांधा जा सकता है, रंग रेखाओं में निबध्द किया जा सकता है। और इस तरह निज से ऊपर उठकर उनका संस्कार किया जा सकता है। जीवन में ही क्षणिक ही सही पर मुक्ति का अहसास पाया जा सकता है। और फिर इसी ज़मीन से फूटती है संघर्ष की शक्ति और जीवन का रोमान।

जन के दु:ख तकलीफ़ों की छाया मन में घुमड़ती है तो मुकेश की सीधी, सच्ची आवाज़ में गाया एक गीत उभरता हैः
दिल का हाल कहे दिल वाला। सीधी सी बात न मिर्च मसाला। कह के रहेगा कहने वाला। छोटे से घर में ग़रीब का बेटा। मैं भी हूं मां के नसीब का बेटा। रंजोगम बचपन के साथी। आंधियों में जली जीवन बाती। भूख ने है बड़े प्यार से पाला....
भारत की दरिद्र जनता की यह एक ऐसी अभिव्यक्ति (तस्वीर) है जिसमें उसका दु:ख और संघर्ष, जीवट और रोमान घुलामिला सा है। गाने वाली की आवाज़ का असर, शब्दों का रचाव, सीधी धुन एवं ढोलक या ढफली की सरल थापों पर गाया गया गीत वाकई कला के करतबबाज़ो (सीधी सी बात न मिर्च मसाला) और भाषाई छल से परे जाता है। दरिद्र के कठिन जीवन को यह काव्य बना देता है। लेकिन ये ग्लोरीफिकेशन नहीं, अफ़ीम नहीं, कोई ऐसा भुलावा नहीं जो दु:ख से दूर किसी नकली दुनिया में बहका कर ले जाए। यहीं, इसी समाज में रहते हुए, उसकी तमाम विसंगतियों के बीच यह एक आकलन है, जो निश्चय ही जीवन जीने की शक्ति को प्रखर करता है। सामाजिक अन्याय की बात एक ओर हृदय में घुटन भरती है तो दूसरी और उसका सार्वजनिक कलात्मक कथन शक्ति भी देता है।

बचपन ही की सतह से एक और पुकार उठती है। और गांवदेवी, मुंबई के पहले तल्ले के फ्लैट के बरामदे में शाम को सुन पड़ती है
राही मनवा दु:ख की चिंता क्यों सताती है / दु:ख तो अपना साथी है / सुख है एक छांव -- ढलती / आती है-जाती है...

गीत की दार्शनिकता को छू ले, ऐसी तो बुध्दि न थी। पर फिर भी स्वरों और कुछेक शब्दों के 'मेल' में कुछ ऐसा था कि सुनना भला लगता। बाद में आभास हुआ कि यह दु:ख की मस्ती है या फिर मस्ती से दु:ख को गाने का भाव है। गीत के बीच बीच में माऊथ आर्गन का बड़ा विशिष्ट पीस था जो शब्दों से भी ज्यादा उस धुन (जो स्वयं में एक भावानात्मक एवं दार्शनिक प्रोक्ति थी) की भावानात्मक टेक था। बाद में पाया कि वह संगीतत्मक टुकड़ा पूरी फिल्म का थीम संगीत था। खैर! तो वो शायद कोई भिखारी था (कौन जाने) पर उसके जीवन की व्यथा ने उस गीत में आश्रय खोज लिया था। दु:ख के प्रति यह स्वीकार भाव तो जीवन का अंतिम सत्व है। जबकि उस सुंदर गीत ने बालमन पर उसकी कोई प्राथमिक भूमि तो ज़रूर बनाई थी। ऐसी ही भूमि, या फिर उससे उच्चतर भूमि जन मन में भी तो बनी होगी। क्या इसे प्रतिक्रियावाद कहकर नकारा जा सकता है। दु:ख के अस्तित्व को कौन नकार पाएगा लेकिन डरकर, भागकर उसका सामना क्या संभव हो पाता है। उसके करीब जाना होता है, मैत्री करनी होती है, बुध्द की तरह।

कुछ और बड़े होने पर जब करुणा के अंखुए भीतर फूट रहे थे तो एक और गीत सुनाई पड़ा फिल्म (दोस्ती) का

जाने वालो ज़रा / मुड़के देखो मुझे / एक इंसान हूं / मैं तुम्हारी तरह... फिल्म बाद में देखी पर गीत के टुकड़ा टुकड़ा शब्द, मन को मसोसने वाले स्वर तो पहले से छूते रहे। फिल्म में एक अंधा किशोर, हालात का मारा, सड़कों पर गुहारता दिखता है।

मेरे पास आओ, छोड़ो ये सारा भरम / जो मेरा दु:ख वही है तुम्हारा भी गम / फिर रहा हूं भटकता / मैं यहां से वहां / और परेशान हूं।

छटपटाती हुई टेक बार बार लौटती है - ''मैं तुम्हारी तरह''।

अंतरे में अद्वैतवाद की स्पष्ट गूंज है लेकिन लौट लौट कर जो सत्य गीत के भीतर छटपटाता है, वह है मनुष्य का मनुष्य को पुकारना, सब वर्गीय, जातीय भेदों को नकार कर। एक का दूसरे से यह कहना कि देखो, ठीक से, भीतर तक। मैं कोई 'अन्य' नहीं। तुम सा ही हूं। दीवारों के पार, बराबरी के रिश्ते से इंसान, इंसान से संवाद साधने की कोशिश करता है। यह भाव बोध शब्द और संगीत के मेल से जन्म लेता है-- ताकि अर्थ से आगे।

वर्षोँ बाद विद्यार्थी जीवन के दौरान गुरुनानक विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए, ऊब कर जब हम चौथे तल्ले से भोले की दुकान में चाय पीने उतरते तो फिर ठिठुरन भरी सर्दी में कुछ गीत होते जो पास सिमट आते और उमस भरी गर्मी में ठंडे झोके से बहते। अंधेरे से कमरे में स्टोव से काले पड़े धातु के बर्तनों और शीशे के गिलासों का संसार था। खस्ता हाल स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा रहता और इसी संसार में रमा भोला सबको ढाल ढाल कर चाय पिलाता। वो मुहम्मद रफ़ी के गीतों का दीवाना था। एक से एक सुंदर, मधुर और दर्द भरे गीत बजते रहते और भोला गुनगुनाता हुआ अपना काम करता। खूब काली दाढ़ी और काली आंखे वाले सरदार की आंखों में अजीब सी कोमलता थी। यह स्वप्नमयता और मस्ती यकीनन उस संगीत का प्रभाव था जो उसका बेहद आत्मीय संगी था।

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कहा जाता है कि भारतीय फिल्मों में फिल्मी गीत एक पुरानी रूढ़ि है (संस्कृत नाटकों से आई हुई)। संगीतशास्त्री अशोक रानाडे शुरुआती गीतों को बाद के फिल्मी गीतों से इस अर्थ में अलगाते हैं कि वे मौखिक संस्कृति का ही (वार्तालाप) हिस्सा थे। शुध्द गद्य से छंदों में और छंदों से सरलतम धुनों में यह वार्तालाप सहज आवा-जाही करता था और यहां ज़रूरत सौंदर्यात्मक से ज्यादा सम्प्रेष्ण ही की अधिक थी। खैर आज जिस अर्थ में हम 'फिल्मी गीत' को जानते हैं वह एक ओर तो रागों की छाप तो दूसरी ओर लोक धुनों के मेल वाला, पाश्चात्य वायलिनों, गिटार, ड्रम के साथ अनेक भारतीय साज़ों की संगत वाला, ढाई मिनट का यह गीत अपनी तरह की एक उत्कृष्ट संकर विधा है। लेकिन संगीत निर्देशकों में मधु मास्टर, प्रभात स्टूडियो के केशवराव भोले, कृष्णराव फुलम्व्रीकर, न्यू थियेट्रज़ के तिमिर बरण और रायचंद बोराल से लेकर सरस्वती देवी, चितलकर, एस.डी. वर्मन, हेमन्त कुमार, ओ.पी. नैयर, मदनमोहन इत्यादि तक तथा गायकों में अशोक कुमार, कानन बाला, उमादेवी, सी.एच. आत्मा, सहगल, सुरैया, शमशाद बेगम से लेकर मुकेश, रफ़ी, हेमन्त, तलत, मन्नाडे, लता, आशा, किशोर कुमार, येसूदास... तक यह दीर्घ परंपरा क्या केवल रूढ़ि के ज़ोर पर जिंदा है। संगीत भारतीय जनमानस का एक अंग ही नहीं, एक महत् मूल्य है। अनेक फिल्मों में संगीत स्वयं में एक थिमेटिक मोटिफ़ है। जहां नायक संगीत का साधक है, दिवाना है। किसी एक पुरानी फिल्म में जब नायिका नायक से संगीत छोड़ देने की शर्त रखती है तो नायक को गहरा सदमा लगता है और वह नायिका से रिश्ता तोड़ लेता है। 'बैजू-बावरा' जैसी फिल्मों में प्रेम और संगीत एक दूसरे के पूरक हैं, अविभाज्य से हैं। प्रेम के बिछोह और पीड़ाओं से संगीत उर्जस्वित होता जाता है और राजसत्ता तक को चुनौती दे डालता है। एक ओर ग़रीब, फटेहाल गायक के दु:ख की फहराती पताका है तो दूसरी ओर राजाश्रित उस्ताद का स्फ़ीत अंह। लेकिन ग़रीब की ज़िंदगी से उपजा संगीत, सुख-सुविधाओं में साधे गए अवकाश भोगी संगीत को पराजित कर देता है। यह संगीत का वर्ग चरित्र है - इस या उस कला का आमना-सामना है।

फिर सामान्य रूप से एक ओर कला की उज्ज्वलता और दूसरी ओर संसार की मलिनता का चिरंतन द्वंद्व भी हमारी फिल्में उठाती रही हैं। कला अच्छाई और संवदेनशीलता की प्रतीक है, सामाजिक न्याय की पक्षधर है और जन जन की उदात्तता का सघन रूप है। फिल्म का नायक इसी की मशाल जलाता है और जनता भी उसके गाये गीतों की अंगुलि थाम लेती है। 'सुर' जीवन की अंतिम आकांक्षा बनता है। संगी और साथी बनता है। बार-बार वेदना में डूबे स्वर उभरते हैं।

सुर सजे, क्या गाऊं मैं / सुर के बिना, जीवन सूना.... मेरे गीत मेरे संग सहारे / कोई मेरा संसार में / ..... तू ही बता मैं कैसे गाऊं बहरी दुनिया के आगे.....
सात सुरो के सातों सागर / मन की उमंगों से जागे.....

जीवन एवं प्रेम के लिए संगीत का संसार उपमान भी बनता है
साज़ हो तुम / आवाज़ हूं मैं / तुम बीना हो, मैं हूं तार.....

एक ओर संगीत एवं कला की पवित्रतम प्रतिमा है दूसरी ओर मलिनताओं भरा संसार। काव्य और साहित्य के लिए भी यह सत्य है, चित्रकला, मूर्तिकला और नृत्य कला के लिए भी। 'प्यासा' में कवि की कोमल एवं मानवीय कवि दृष्टि और समाज की महलों, तख्तों, ताज़ों और रिवाज़ों वाली शोषक दृष्टियां आमने-सामने हैं। 'नवरंग' के कवि की सुमधुर कल्पना एवं कटु यथार्थ के बीच भी एक खाई पैदा हो गई है। 'अनुपमा' में शोर शराबे और रंगीनी से भरी पार्टी में एक कवि भरी आवाज़ में गा रहा है -
या दिल की सुनो दुनिया वालो / या मुझ को अभी चुप रहने दो / मैं गम को खुशी कैसे कह दूं / जो कहते हैं, उनको कहने दो....


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बदलते हुए समाज की छायाओं को गीतों में पढ़ा जा सकता है। पूंजीवादी युग के बढ़ते कदमों और उसके साथ व्यवसायीकरण और अनन्त लोभ की आहटें इस प्रसिध्द गीत में क्या साफ सुनाई नहीं पड़तीं
रमइया वस्ता वइया..... उस गांव में, प्यार की छांव में / प्यार के नाम पर ही धड़कते थे दिल / इस देश में, तेरे परदेस में / सोने चांदी के बदले में बिकते हैं दिल.....
भोली भाली गंवई जनता के हार्दिक प्रेम और प्रकृति से जुड़े सौंदर्य बोध को इस 'बदलते मन' से गहरी शिकायत है...
तू और था, तेरा दिल और था / तेरी आंखों में यह दुनिया दारी थी / ..... तेरी बातों में मीठी कटारी थी.../ चांद तारों के तले, रात ये गाती चले... दिल, नज़र और जुबा का पूरा बदला पैटर्न यहां अंकित हो गया है।
ऐसे समय एवं समाज से कटते जाते मनुष्य के अकेलेपन और पराएपन के गीत भी अनेक हैं जो पूंजीवादी समाज में एक संवेदनशील मनुष्य की वास्तविक नियति को उजागर करते हैं।
जाने वो कैसे लोग थे जिनके / प्यार को प्यार मिला... हमको अपना साया तक.... अक्सर बेज़ार मिला....ऐसी ही अनुभूतियां एवं अकेलापन साहिर के इस गीत में भी उभरा है, जिस में स्वर भंगिमा दर्द और हताशा के नशे में इधर-उधर टकराती सी लगती है....
महफ़िल से उठ जाने वालो / तुम लोगों पर क्या इलज़ाम / तुम आबाद घरों के वासी / मैं आवारा और बदनाम.... / मेरे साथी मेरे साथी..... खाली जाम....धन के वर्चस्व के खिलाफ़ इन गीतों ने तान छेड़ी है, गहन विलाप किया है। ये और बात है कि अधिकतर प्रेम की भूमि से ही ये बादल घुमड़े और बरसे हैं।
ताज या तख्त या दौलत, हो ज़माने भर की / कौन सी चीज़ मुहब्बत से बड़ी होती है --
व्यवस्था और धर्मसत्ता के विरुद्ध भी आवाज़ सुनाई पड़ती है --
बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो / बुल्लेशाह ये कैहन्दा......मज़दूरों, किसानों के ऐसे हल्के-फुल्के गीत भी अपनी चौंध में प्रखर हैं --
कैसे दिवाली मनाएं हम लाला / अपना तो बारहों महीने दिवाला...गीत अवसाद में डूब जाते हैं और बार बार सवाल करते हैं कि ये कैसी दुनिया और समाज है जहां निगाहों में उलझन है, दिलों में उदासी और हर सू बदहवासी का आलम है। ऐसे समाज का पूर्ण अस्वीकार है --
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
(एक तीखे एवं उद्दाम प्रश्न की सांगीतिक भंगिमा)। ''यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है --'' (निश्वास की भंगिमा)।

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न जाने कितने कृषक गीत हैं, मांझी गीत हैं, गाड़ीवानों, तांगेवालों, रिक्शेवालों, नटों, बाज़ीगरों, बंजारों, कैदियों और भिखारियों के गीत हैं जो भारतीय जन जीवन को लोक गीतों के बाद फिर से प्रतिष्ठित करते हैं। कृषक गीतों में सामूहिक स्वरों की पुकार का सौंदर्य बोध अलग है। मांझी गीतों में चप्पू की लय और पानी के विस्तार पर बैठे व्यक्ति की अकेली गूंज है। किसान की प्रतीक्षा और सावन के आने की ठेठ किसानी खुशी

हरियाला सावन ढोल बजाता आया.... तक तक तक मन के मोर नचाता आया....


दूसरी ओर रोमांतिक विश्वदर्शन वाले मध्यवर्गीय व्यक्तिवादी (प्रगतिशील) गीत भी अनेक हैं जिनमें अलमस्त जिप्सी भाव, प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति और व्यापक मानवतावाद या छायावादी स्वरूप उभरा है।
पुकारता चला हूं मैं / गली गली बहार की / हरेक शाम जुल्फ़ की..... हरइक निगाह प्यार की.....गिटार की मीठी 'स्ट्रमिंग्ज़' के बीच में टुकड़ा टुकड़ा छिटके हुए पलों की तरह के शब्द एवं स्वर उभरते हैं
आगे भी.. जाने न तू.. पीछे भी.. जाने न तू... जो भी है... बस यही इक पल है।


फिल्म संगीत में क्षणवाद और आनंदवाद का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही मिले।

व्यक्ति चेतना के पूर्ण रूपांतरण का भाव भी 'फिल्मी गीत' जैसी नाकारा समझी जाने वाली विधा में उभरा है। मुक्तिबोध की कविता जिसे 'व्यक्तित्वांतरित' होना कहती है और जो सामाजिक क्रांति का ही व्यक्ति परक पक्ष है, आत्मा की उस नयी रसायनिक प्रक्रिया का अक्स क्या यह नहीं है?
आज पुरानी राहों से, कोई मुझे आवाज़ न दे / दर्द में डूबे गीत न दे / गम का सिसकता साज़ न दे.....स्वर उर्जस्वित होते जाते हैं
न वो भरम... न वो दीन धर्म... अब दूर हूं सारे गुनाहों से....

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दार्शनिक भूमियों के अतिरिक्त प्रकृति का संपूर्ण संसार है जो गीतों में खुलता आता है, कभी सीधे तो कभी उपमा रूप में। हवाएं और आंधियां गीतों के पट खोलकर बहती हैं, काली घटाएं छा जाती हैं, बिजलियां गीतों के आकाश में कौंधती हैं, धूप और बारिश की परियां नाचती हैं। पुरवा, बयार, ठंडी हवाओं के तेवर अनेक हैं। सुबहें, शामें और रातें मोटिफ़ की तरह आती है, कभी प्रतीक तो कभी कैफ़ियत के रूप में। नींद और जागृति भी एक मोटिफ़ के रूप में आते हैं
जाग दर्द इश्क जाग.... जाग दिले दिवाना... रुत जागी वसले यार की...

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अनेक भाव और उनके उनके शेड्ज़ हैं, मंद से उद्दाम तक उनकी अनेक डिग्रियां हैं। दु:ख के भाव अंधेरों, सपनों के टूटने, दियों के बुझने के मोटिफ़ बन गए हैं। घनीभूत दु:ख का भाव कहीं धीमे, उदास निश्वासपूर्ण कथन के रूप में आता है (हेमन्त ) तो कहीं ऊंची ऊंची तानों के क्रंदन में बदल जाता है (मुहम्मद रफ़ी)। कैफ़ी आज़मी के लिखे और रफ़ी के गाए 'हकीकत' के गीत में तो वियुक्त होने की पूरी प्रक्रिया ही संगीत के प्रकथन में ढली है। आकांक्षा धीरे धीरे हताशा में पर्यवसित होती है और फिर हताशा भी गहन से गहनतर होती जाती है। एकांतिक आत्मकथन के रूप में नीचे स्वर धीमे धीमे उभरते हैं --
मैं यह सोचकर उसके दर से चला था --

पैर आगे बढ़ते थे, पर आकांक्षा थी कि पीछे की ओर लहराती थी। ''हवाओं में लहराता आता था दामन'' यहां स्वर लहरी भी पीड़ा से मानों दामन ही की तरह लहरा गई है। शब्द एवं संगीत और रूप और अर्न्तवस्तु एक हो गए हैं । आहिस्ता- आहिस्ता बढ़ना और अंत में 'जुदा हो जाना' -- भांति भांति से इस 'चरम वाक्य' का सांगीतिक रूप उभरता है।

धीरोदात्तता के चरित्र गुण को व्यक्ति के संपूर्ण व्यवहार में पढ़ने के बाद, व्यक्ति की आंख और दृष्टि में पढ़ा जा सकता है, आवाज़ और संगीत में भी उसे सुना जा सकता है। हेमंत कुमार की आवाज़ की शायद यह खासियत थी कि पीड़ा से भरा होकर भी भाव एक प्रशांत मुद्रा में बाहर आता था।
जीवन से किया गया एक शिकवा या एक सवाल, गीता दत्त की मांसल आवाज़ और पियानों की मधुरता के बीच मंद होकर भी गहन है।
कैसे कोई जिए... ज़हर है ज़िंदगी... उठा तूफ़ान जो... रात के... सब बुझ गए दिए....

इसी प्रकार मानवीय आकांक्षाओं की ऊंचाई मापता, राग भीम पिलासी के स्वरों में बंधा रफ़ी का गीत --
मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी / मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ मिला....

इसी तरह तलत महमूद पर ही फिल्माया और उन्हीं की आवाज़ में एक गीत था। अंधेरा, एकांत, बग्घी में लौटता नायक, चेहरे पर आती जाती छाया और प्रकाश में, भागती बग्घी की तीव्र एकरस घुड़चाल में बंधा उदास गीत --

रात ने क्या क्या ख्वाब दिखाए / रंग भरे सौ जाल बिछाए / आंख खुली तो सपने टूटे / रह गए गम के काले साये....
प्रेम की अभिव्यक्तियों पर बात शुरू करेंगे तो एक अलग संसार ही खुल पड़ेगा। क्योंकि प्रेम गीतों की रेंज तो ऐन्द्रिक से लेकर सूक्ष्म रोमांतिक तक है। एक गीत में 'गीत' ही प्रेम की संपूर्ण कोमलता और स्वप्नमयता का स्थानापन्न बन गया है। ये वो 'गीत' है जिसके लिए आंखों के दिए जलते हैं, जो गीत फूलों से भी कोमल है, शीशे से भी नाज़ुक है और जिसे केवल दिल में रख लेना होगा।

जलते हैं जिसके लिए / मेरी आंखों के दिए / ढूंढ लाया हूं वही / गीत मैं तेरे लिए....

गीतों में 'प्रतीक्षा' और 'प्यास' की अनेक भंगिमाएं हैं। पंछी भी एक मोटिफ़ है जो कभी कबीर का 'प्राण' एवं 'जीव' बनकर आता है तो कभी स्वच्छन्द वृत्ति का। 'मौन' भी गीत में ढला है।
बस यों .. चुपसी लगी है / नहीं, उदास नहीं...
या दिल की सुनो दुनिया वालो / या मुझको अभी चुप रहने दो......

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फिल्म बीसवीं सदी की तकनॉलोजी प्रधान विधा है। सुखद संयोग है कि इस कला विधा का विकास हमारे देश में भी दुनिया के दूसरे देशों के समकक्ष ही हुआ है। यह एक लोकप्रिय कला माध्यम है जो अपना सार लोक से ही ग्रहण करता है। फिल्मी गीत तो मानो आधुनिक लोकगीत ही हैं। इनकी संगीत रचना में भी भारतीय शास्त्रीय और लोक संगीत का घुलाव है। फिल्मी गीत संगीत एक तरह से भारतीय मानस का आईना है। इसलिए इसमें वो सब मिल जाता हे जो लोक में व्याप्त है।

15 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.

एक निवेदन: कृप्या वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें तो टिप्पणी देने में सहूलियत होगी.

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

bahut sunder lekh likhne ke liye hardik dhanyavad.mun kli tarangon ko andolit ker diya apne .swagat bandhu
dr.bhoopendra

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

बाप रे बाप, इतनी बड़ी पोस्ट?

सुमनिका जी,
शुरुआत के हजार शब्द पढ़ने के बाद हिम्मत जवाब दे गयी, तो सीधे टिप्पणी पर उतर आया। ब्लॉगजगत में आपका पदार्पण यहाँ के लिए गौरव की बात है। आपकी भाषा से शहद टपक रही है। साधुवाद।

आलेख की लम्बाई किसी पुस्तक के लिए तो ठीक है, पर ब्लॉग पोस्ट में इसे छोटा रखना चाहिए। चाहें तो धारावाहिक किश्तें बना दें।

और हाँ, ये वर्ड वेरिफिकेशन तत्काल हटा दें। अपनों के बीच यह अवरोधक क्यों?

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा…

चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक अभिनन्दन है, आपकी लेखनी का स्वाद लेना शेष है शीघ्र ही एक अन्य टिप्पणी आपके ब्लाग पर होगी !आपसे अनुरोध है कि मेरे ब्लाग पर भी भ्रमण करें और अच्छी या बुरी जैसी भी पाठ्य सामग्री हो टिपण्णी अवश्य दें!

हिन्दीवाणी ने कहा…

लेख वाकई बड़ा। कलम पर काबू रखें। चाहते हैं कि पूरा लेख पढ़ा जाए तो इससे बचना होगा। कुछ दिन बाद आप सुनेंगे – अरे, भाई आपकी फिलासिफी को समझना टेढ़ी खीर है। फिसासिफी और खीर को स्वादिष्ट और सबकी पहुंच में बनाएं। शुभकामनाएं। मेरे ब्लॉग पर कभी पधारें।

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

हो प्याला गर गरल भरा भी
तेरे हाथों से पी जाऊं
या मदिरा का प्याला देना
मैं उसको भी पी पाऊँ
प्यार रहे बस अमर हमारा
मैं क्यों न फ़िर मर जाऊं


स्वागत और बधाई बहुत बड़ा आलेख वास्तव मैं पूरा नही पढा डर गया माफ़ करना भाईसाहेब

yadu ने कहा…

I read the whole thing. Reading was effortless.All these songs with the souls, dipict your way of appriciating life and taking the sahara of somebody else's experience and the words which ofcource ars true. Sumanikaji, lets not be a tracing paper for the other's originals.

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

आपने बहुत अच्छा लिखा है ।
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
लिखते रहिए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
कविता,गज़ल और शेर के लिए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
मेरे द्वारा संपादित पत्रिका देखें
www.zindagilive08.blogspot.com
आर्ट के लिए देखें
www.chitrasansar.blogspot.com

adil farsi ने कहा…

बहुत अच्छे..मनपसंद गीत, लाजवाब

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

agar aisa itna bada likhoge to tippani likhane wale bina read kiye comments post karengen.kam shabdon me kaho jo kahana hai.
narayan narayan

संगीता पुरी ने कहा…

आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है। आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे । हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

Dev ने कहा…

Chitthajagat me aapka svagat hai..
Etane sundar lekh ke liye badhai..

अजेय ने कहा…

vaqayi..... kishto me detin to theek rehta

Unknown ने कहा…

अच्छा लिखा है..

बेनामी ने कहा…

रसात्मक और सुंदर अभिव्यक्ति