विनोद कुमार शुक्ल के नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी उपन्यासों पर सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद. उपन्यास कया कहते हैं की आखिरी किस्त. इसके बाद आएगा कैसे कहते हैं और अंत में विनोद कुमार शुक्ल का देखना.
अनूप : दीवार में खिड़की रहती थी के रघुवर प्रसाद साइकिल के पैडल मारने वाले परिवार से हैं। नौकर की कमीज के संतू बाबू भी साइकिल से आगे नहीं सोचते। उन्हें दफ्तर के बड़े बाबू माल गोदाम से एक नई साइकिल निकलवा देते हैं। रघुवर प्रसाद को उसके पिता अपनी साइकिल भेज देते हैं। विभागाध्यक्ष स्कूटर वाले हैं। रघुवर को स्कूटर या कार खरीदने या उनकी सवारी करने की इच्छा नहीं है। हाथी पर भी वे डरते डरते ही चढ़ते हैं। हालांकि बाद में उस भारी भरकम पशु के मोह में भी पड़ जाते हैं। पर अंतत: उसकी जंजीर खोल कर उसे मुक्त कर देते हैं। हाथी को मुक्त करने की उन्हें बड़ी खुशी है.
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे के अंतिम हिस्से में पहाड़ी से जो आदमी कांवर लिए उतरता है उसमें कंद, धान के बीज और शहद भरा है। ये कंद भी जमीन से निकले हैं। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं, 'धान के मोटे बीज थे जिससे पेट भरता था। .. ये धान तेज आंधी में भी खेत में गिर नहीं जाता था, लहलहाता था। लहलहाने से बांस की धुन सुनाई देती थी।'
अनूप : अगर नौकर की कमीज में कमीज के जरिए विरोध का रूपक रचा गया है तो दीवार में खिड़की रहती थी में उपभोक्तवादी सभ्यता का एक बेहद रोमानी और मासूम प्रतिपक्ष रचा गया है। रघुवर प्रसाद की खिड़की एक स्वप्न लोक में खुलती है। सुबह-सवेरे, शाम-रात, सोते-जागते वे कभी भी उस खिड़की से बाहर प्रकृति की गोद में जा रमते हैं। यहां तक कि नहाना-धोना, कपड़े धोना जैसी नेमि क्रियाएं भी वहीं पूरी हो जाती हैं। रघुवर के माता पिता और विभागाध्यक्ष भी उस खिड़की से नीचे उतर चुके हैं। विभागाध्यक्ष के भीतर उस जगह के यथार्थ को जानने की छटपटाहट है। खिड़की से खुलने वाला यह संसार बड़ा सुरम्य है। वहां एक बूढ़ी अम्मा है जिसने सोनसी को सोने के कड़े दिए हैं। मजेदार बात यह है कि यह दुनिया भौतिकवादी दुनिया से बिल्कुल अलग है। यहां स्वच्छ जल वाले तालाब हैं। हरे-भरे पेड़ हैं। बंदर हैं, मछलियां हैं। हवा है, बादल हैं। लाभ-लोभ से परे का स्वच्छ निर्मल संसार है। ऐसा लगता है कि उपन्यासकार नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगे के खुरदुरे लेकिन बेहद देशज यथार्थ के बरक्स उतना ही देशज, लोककथाओं वाला रोमानी स्वप्न-संसार खड़ा करना चाहता है। यहां समृध्दि, सुख और तृप्ति के अर्थ ही भिन्न हैं। शायद इसीलिए यह वर्णन हमें अलग तरह का लगता है और अचम्भे में डालता है.
सुमनिका : शायद वे आदमी के भीतर उस दृष्टि को जगाना चाहते हों, उस खिड़की को खोलना चाहते हों, जहां से कल्पना लोक दिखता है और जो चीजों में सौंदर्य देख पाती है। कल्पना के रेशे बुनने वाली बुढ़िया से हमें मिलाना चाहते हों जो इस भौतिकवादी दुनिया में कहीं खो गई है।
अनूप : नौकर की कमीज और दीवार में खिड़की रहती थी में पारिवारिक रिश्तों की एक टीस भरी कड़ी पिता-पुत्र के संबंध के रूप में आती है। बड़े बाबू का बेटा घर से भाग गया है। उन्हें लगता है वह उनके पीछे से घर में आता है। सामने नहीं पड़ता। एक स्वप्न जैसे प्रसंग में संतू मूंगफलीवाले को एक बच्चे के डूबने का किस्सा सुनाता है। बड़े बाबू को पता चलता है तो वे सच्चाई जानने मूंगफली वाले के पास पहुंच जाते हैं, यह जानते हुए भी कि यह सच्ची घटना नहीं है। सारे किस्से में उन्हें अपना पुत्र दिखता रहता है। इसी तरह दीवार में खिड़की रहती थी में दस ग्यारह साल का एक लड़का रघुवर के घर के सामने एक पेड़ पर चढ़कर बैठा रहता है। वह पिता की मार से डरता है और यहां छिपकर बीड़ी पीता है। पिता घर में होने न होने को अपने डंडे से जतलाते हैं। बाहर डंडा रखा हो तो पिता घर में है, डंडा नहीं है तो पिता घर में नहीं हैं। डंडा बाहर न होने पर ही पुत्र घर में घुसता है। सोनसी कभी कभार इस लड़के को कुछ खाने को भी दे देती है। रघुवर और सोनसी इन पिता-पुत्र का मेल करा देते हैं। विधुर पिता का पुत्र पर स्नेह अपने हिस्से की जलेबी देने से प्रकट होता है.
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में संबंधों की बड़ी प्रामाणिक और साथ ही बड़ी काव्यमय छवियां हैं। बेटी जिसके जन्म पर माता पिता एक चिड़िया की सीटी सुनते हैं और उसका नाम बेटी चिड़िया रख देते हैं। बेटा मुन्ना जो भूख को सहता रहता है फिर अचानक अवश होकर गिर पड़ता है और पूरा परिवार भूख की इस जंजीर से बंधे बच्चे की रक्षा का उपाय सोचा करता है.
अनूप : ये प्रसंग बहुत करुण और निष्कलुष हैं। असल में विनोद कुमार शुक्ल के सारे ही आख्यान में करुणा जीवन जल की तरह व्याप्त है। यथार्थ बहुत सच्चा और अकृत्रिम है। समाज का यह तबका कथा-साहित्य में कम ही आया है। बिना किसी तामझाम के आने की वजह से पाठक को हतप्रभ भी करता है। सच्चाई, निष्कलुषता और करुणा मिलकर सारे आख्यान को बेहद भावालोड़न से भर देते हैं।
6 टिप्पणियां:
विनोद कुमार शुक्ल का गद्य अद्भुत है। वह शब्दों से चित्र उकेरते हैं । आपने रोचक चर्चा छेड़ी है। बधाई।
निरंजन जी, आपने सही कहा. धन्यवाद.
दिलचस्प ....कभी आलोक वर्मा जी ने भी "इस दीवार में खिड़की रहती थी" की अद्भुत समीक्षा की थी .....वागर्थ के २००७ अगस्त अंक में
जी अनुराग जी, इसी तरह खिलेगा तो देखेंगे के गद्य पर राजेंद्र यादव ने संपादकीय में लिखा था. नाम को संक्षिप्त भी कर दिया था - खितोदे.
एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इतना सघन गद्य पढ़ने की पाठकीय सहमती हमारे यहाँ कितनी बन पाई है। यहीं यह सवाल भी पैदा होता है कि लेखक किसके लिए लिखता है और लेखन को कितना कलात्मक बना लेना चाहिए। निर्मल वर्मा ,क़ृष्ण सोबती , कृष्ण बलदेव वैद और विनोद कुमार शुक्ल में सघन यथार्थ की परतों को परिष्कृत भाषा के माध्यम से खोलने का आग्रह कितना तर्क संगत है।
मुझे लगता है कि लेखक इसलिए लिखता है कि पाठक को चीजों का वह अनुभव दे सके जो उसकी नजर के सामने खुल रहा होता है.
वैसे इस मुद्दे पर आगे हमने बात की है. पाठक को लेखक की गति से तादात्म्य करने की आदत कहां है. शुक्लजी के लिए क्या परिष्कृत विशेषण सही होगा. यह तो हमें तरल दृश्यात्मक और बाल भाषा जैसी सहज लगती है.
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