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द्वार के एक तरफ कोई बैठा पारंपरिक नगाड़ा या नौबत बजा रहा था - अलग अलग ताल - समय की बदलती चाल। उजली धूप में अचानक राजस्थान के वे पुरातन महल एवं किले झिलमिलाने लगे जहां अक्सर राजस्थानी मांड गाते और बजाते पगड़ीधारी लोक संगीतकारों के तपे चेहरे वाली जोड़ी दिख जाती। फिर उभरी, देवी के पर्वतीय मंदिरों के बीहड़ रास्तों में सुनाई पड़ने वाली स्थानीय कंठ स्वरों की हेक और तानें। ये मंदिर कभी तमाम कलाओं के रंगस्थल थे। मंदिर के सभा मंडप से पहले नाटय मंदिर का वास्तु भाग नृत्य, नाटय एवं कीर्तन के लिए ही बना होता था। वास्तु, मूर्ति, संगीत, नृत्य और नाटय के आश्रय स्थल ये मंदिर, कलाओं के जरिए सम्पूर्ण सृष्टि की लय को रूपायित किया करते।
तो मंदिर में प्रवेश करते ही हम एक विशाल प्रांगण में थे .. खुला .. उन्मुक्त .. झरझर बरसती धूप, रोशनी, नीले आकाश और बहती हवाओं को समर्पित। वास्तुकला के चिंतकों ने खुले आंगनों के चरित्र और प्रभाव पर लिखा है कि ये वास्तु रूप मनुष्य के प्रकृति के साथ सीधे तादात्म्य की तड़प को व्यक्त करते हैं। इनमें पुरातन मानव के बेघर होने की स्मृति संजोई गई है। यह सभ्य मनुष्य को ससीम से असीम की याद दिलाता आया है। दीन से दीन कुटिया के गिर्द भी थोड़ी ही सही खुली जमीन छोड़ी जाती थी। इसमें एक आध पेड़, कुछ पौधे और एक खुला विस्तीर्ण आकाश होता था, रात में जिसमें असंख्य सितारों का वैभव उमगता था, दिन रात की घूमती चक्की अनेक रंगपटल रचती थी, घुमड़ती बदली, बरसाती बौछारें, तूफानी हवाओं और धूल मिट्टी के अलावा चिड़िया - तोता मैना - गाय, बकरी को भी यही स्थान न्योतता था।
यह विशाल प्रांगण चंहुओर दीवार अथवा प्राकार से घिरा था। इस आंगन के बीचोंबीच शिखर शैली का भव्य बैजनाथ मंदिर खड़ा था। कुछ नन्हें नन्हे मंदिर और थे। उन्हें देखना ऐसा था जैसे किसी खुले खेत में कहीं कहीं फसल रखने की फूस के छाजनों वाली कुटियां हों। चारों ओर की भित्ति पर एक उड़ती सी नजर डालते ही दिखा कि मंदिर की बाहरी सीमा भी सूनी सपाट न थी। उसमें जगह जगह आले बने थे जिनमें अधिकतर दैवी और मानवी युगल अंकित थे - शेषशायी विष्णु और लक्ष्मी, शिवशक्ति, एक तांत्रिक काममुद्रा। कभी कभी लगता है कि मंदिर या देवायतन का वास्तु किसी भव्य केंद्र का ग्लोरिफिकेशन न होकर सम्पूर्ण जीवन और सम्पूर्ण सृष्टि का स्तुति गान करता है। यह सम्पूर्ण प्रकृति की विभिन्नता को समर्पित होता है और जीवन के हर आद्य तत्त्व को स्वीकारता है। हां यह जरूर है कि बाहर से भीतर गर्भगृह की ओर बढ़ते हुए एक यात्रा है जो काम और अर्थ के सोपानों को तय करते हुए धर्म और मोक्ष की तरफ बढ़ती है। यात्रा जो धीरे धीरे क्रमश: एक आध्यात्मिक अनुभव में संक्रेंद्रित होती जाती है - लेकिन साथ ही जो जीवन की सम्मपूर्णता की आग्रही है। जीवन का प्रवाह आत्मा के चारों ओर प्रवहमान है। आत्मन् उसी जीवन जल में नहाता है - बार बार अवगाहन करता है फिर बाहर निकल कर इस प्रवाह को देखता है - किंचित अलग होकर - और जीवन की लय और गति का एक बोध पाता है।
2 टिप्पणियां:
meri samajh me baijnath kabhi "arajak paramparaon" ka kendra raha hoga.
keergram nam chounkaata hai. ye nam pauraNik hai, ya ki "folk" ?
jare rahe. maza a rahaa hai.
आपके विवरण में यह राग सचमुच पूरा हुआ है.
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