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अब आगे बढ़ते हैं. इस बीच हमारे मित्र सर्वजीत ने मंदिर के चित्र भी भेज दिए है. अब यह यात्रा और भी सुहानी हो जाएगी.
हमारी गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। दृश्य बदलते जाते हैं - फिर भी कुछ है जो नहीं बदलता। कभी कोई छोटी सी बस्ती - कोई छोटा सा गांव आता है। सड़क के किनारे परचून की एक आध दुकान .. और उनमें ठहरे हुए से कुछ चित्र लिखे चेहरे। हम वहां ठहरे होते तो चेहरे अपने चित्र रूपों से बाहर आ पाते लेकिन अभी तो वो फ्रेम में जड़े से लगते हैं और ओझल हो जाते हैं।
एक बस्ती के बीच हम छोटी सी सड़क से गुजर रहे हैं। अचानक गाड़ी के आगे गायों का झुण्ड आ जाता है। उस झुण्ड में से एक गाय घबरा कर इधर उधर भागती है। उसकी प्रौढ़ा मालकिन हाथ जोड़ कर गाड़ी रोकने का इंगित करती है और स्वयं गाय के पीछे भागती है। उसे कभी यहां से तो कभी वहां से समेट कर, पुचकार कर लाती है और एक सुरक्षित गली में धकेल देती है। शायद यह रास्ता आम नहीं। लेकिन गाय की बदहबासी हवा में लटकी रहती है देर तक। आधुनिक विकास और प्रगति के बरक्स यह पयस्विनी प्रकृति की बदहवासी की एक झलक है शायद। लेकिन क्या इस प्राकृतिक जीवन के लिए ऐसा कोई ममता भरा स्पर्श बचा है जो उसे थाम ले और रास्ता दिखा दे - क्या उसके लिए कोई सुरक्षित गली बची रह पाई है?
लगभग आधा रास्ता बीत चुकता है तो हम बैजनाथ पहुंचते हैं। जगह का नाम ही मंदिर के प्रताप से बैजनाथ पड़ चुका है। सुनते हैं पहले यह स्थान कीरग्राम कहलाता था। ब्यास नदी की एक सहायक नदी बिनवा के तट पर यह स्थित है। बैजनाथ शब्द वैद्यनाथ का विकृत रूप है। हिमालय की प्रकृति जड़ी बूटियों की खान है। आयुर्वेद का विज्ञान इसी प्राकृतिक वैभव का ऋणी है। शिव इसी मंगलरूपिणी प्रकृति के नियामक और अधिष्ठाता देव हैं - वैद्यों के स्वामी एवं नाथ हैं। चट्टानों पर जड़ी-बूटियों को घिस कर निकाला गया रस एवं सत्व ही तो शिव है - जो कभी मनुष्यों के रिसते दुखों पर आलेपन सा लगता है तो कभी उसके रक्त में घुल मिल कर विकारों से लड़ता है।
यहां छोटी मोटी दुकानों का सिलसिला दूर तक चला गया है। इनमें चाय और कामचलाऊ मिठाई और मठरी समोसों के चिर परिचित स्वादों के साथ नए अंतर्राष्ट्रीय स्वाद भी घुस आए हैं। बेहद भड़कीले रंग की पन्नियों में बिकते चने चबेने के आधुनिक अवतरण भी दिखते हैं। यह सब है पर मंदिर के गिर्द फूलवालों और प्रसादवालों का वैसा बाजार नहीं दिखता जैसा आमतौर पर प्रसिध्द मंदिरों के आसपास होता है। समृति में सिंदूर के लाल ढेर, बिंदी, चूड़ियां और लटकती मालाएं झूलने लगती हैं।
तपती दोपहरी थी। बिनवा नदी काफी नीचे बह रही थी - पहाड़ी पर वही थे - धूप में चिलकते कैंथ के सफेद वृक्ष। मंदिर का ऊंचा विमान या शिखर बाहर से ही दिख रहा था। मंदिर के आसपास जमीन घेर कर हरी भरी घास लगाई गई थी और क्यारियां बनाई गई थीं। यह नई सज्जा हरी भरी होने से खटकती तो न थी, पर पुरातन मंदिरों की छवि और उनके परिवेश की बीहड़ता के संस्कार से कुछ अलग जरूर पड़ रही थी।
हाथ पैर हमने एक नल से बहते जल के नीचे किए और तीन चार सीढ़ियां चढ़ कर एक कोने के द्वार से मंदिर में प्रविष्ठ हुए। पैरों के तलवों में तिलमिलाहट होने लगी... फर्श के सलेटी पत्थर आवेग में तप रहे थे। काश पहाड़ी बरसात कहीं छिपी हो और आकर इन तपते पत्थरों पर बरस जाए। एक भावप्रवण पहाड़ी लोग गीत की टेक है -
कुथू ते उमगी काली बादली / कुथू ते बह्यरेया ठंडा नीर वो .../ छातिया ते उमगी काली बादली / नैनां ते बह्यरेया ठंडा नीर वो
3 टिप्पणियां:
सुमनिका जी आपका ब्लॉग अकसर पढ़ता हूं । ये यात्रा विवरण अच्छा लग रहा है । एक बात कहूं । हर पोस्ट का शीर्षक 'सुमनिका' आ रहा है । शायद ये ग़लती से या अज्ञानता-वश हो रहा होगा । आप ब्लॉगर से पोस्ट करते समय टाइटल वाले ख़ाने में अपनी पोस्ट का टाइटल लिख सकती हैं । इससे हर पोस्ट अलग अलग आइटेन्डिफाई हो जायेगी ।
मेरी तो ससुराल है तो फिर तारीफ तो करनी ही होगीए!! लेकिन सुमनिका जी आपने बहुत ही रोचक लेख प्रस्तुत किया है। उम्मीद है आस-पास की और बातें भी आएंगी। शुभकामनाएं
gali me bidakti gaaye ka prasang achchha tha.
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