शनिवार, सितंबर 26, 2009

प्रकृति का पूर्णराग - बैजनाथ


5



हैरानी होती है कि इन आद्यरूपों का संसार कितना विराट है - कितनी दूर तक उसकी सीमा जाती है। यह सीमा धरती के जीवन से लेकर आकाशीय नक्षत्र पिंडों तक है - जन्म से लेकर मृत्यु तक। दिशाओं के स्तम्भ हैं। ऋतुचक्र की बदलती यवनिका है। प्रकृति का मंच है और यहां पंचतत्त्वों ओर प्राणीजगत का अभूतपूर्व नाटय यहां खेला जा रहा है।

मंदिर के द्वारमंडप में पैरों पर उझक कर एकाध भक्तगण घण्टे बजा रहे थे जिनकी अनुगूंज देवालय के आकाश में घूम रही थी। अलंकृत सभामंडप से होकर हम गर्भगृह की ओर गए। वहां हमने शिवलिंग को प्रणाम किया - इसको समर्पित मानवीय कला और शिल्प साधना को प्रणाम किया और प्रणाम किया मनुष्य चिंतना के अनंत क्षितिज को। प्रसाद के रूप में पुजारी ने श्वेत गांधारी पुष्प हाथ में धर दिया।

मंदिर के भीतर जाने के अनुष्ठान को पूरा करके हम बाहर आए और अब शिल्पकृतियों के सम्मुख हुए। मूर्तियों से संवाद करने में - वहां के स्थानीय पुजारी के पुत्र जो भारतीय पुरातात्त्वि सर्वेक्षण से सम्बध्द थे - हमारे सहायक एवं मित्र सिध्द हुए। तस्वीरें खींचने की अनुमति तो उन्होंने न दी - पर धूप में हमारे साथ हो लिए। (जो चित्र आप यहां देख रहे हैं, वे जैसा कि पहले बता चुके हैं, हमारे मित्र सर्वजीत ने अलग से खींचे हैं और वि‍शेष आग्रह पर उपलब्‍ध कराए हैं.)

द्वार मंडप के एक ओर नवग्रह अंकित थे - मनुष्य रूप में। तो यह यात्रा अंतरिक्ष से शुरू हुई। दूसरी ओर अर्धनारीश्वर लक्ष्मी और नारायण थे। यूं तो स्त्री और पुरुष तत्त्व का द्वैत और संतुलन विश्व के सभी पुराने दर्शनों में प्राप्त होता है, जिनमें भारतीय तंत्र का वज्र और कमल प्रतीक और चीनी दर्शन का याङग और यिन हैं। बौध्द धर्म की वज्रयान शाखा में यही ओम् मणि पद्म हुमहो जाता है। लेकिन कला में जिस सुंदरता और पूर्णता के साथ अर्धनारीश्वर का बिंब आया है वह अनूठा है। मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियों में एक योजना थी। दस अवतार थोड़ी थोड़ी निश्चित दूरी पर चहुंओर मंदिर को घेरे थे। उनमें कहीं वामन रूप था - दैहिक विद्रूप और असामान्यता पर सत्वपूर्णता, नरसिंह थे - मनुष्यत्व एवं पशुत्व का संतुलन, पृथ्वी को जल प्रलय से उबारते महावाराह की नन्हीं प्रतिमा थी, कच्छपावतार और मत्स्यावतार थे जो जलीय सृष्टिवाद की कहानी कहते थे - अर्थात् यह संकेत कि जीवन का उद्भव जल से हुआ। वहां योद्धा कार्तिकेय भी थे। ऋषि परशुराम, गोचारी कृष्ण, वन में भटकने वाले राम और ध्यानी बुद्ध भी।


2 टिप्‍पणियां:

sanjay vyas ने कहा…

adbhut.neti neti!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार इस कथा के लिए.