मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को याद करना साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है, इसलिए किस्तों में पढि़ए.
कई साल पहले एक शाम एक फिल्म देखी थी - नाम था रजनीगंधा। तकनीकी बारीकियां, फिल्म माध्यम, तब भला कहां समझ में आती थीं। पर फिल्म की छवियां थीं कि मन में अटकी रह गई थीं। कुछ था जो मुंबइया फिल्मों की भीड़ से अलग था। बेहद सहज और अपने आसपास की दुनिया के पात्र और चेहरे। नकली और झूठा सा तो कुछ भी नहीं था। न जोरदार संगीत, न शब्दबहुल नाटकीयता न चकाचौंध और ग्लैमर। कहानी प्रेम से जुड़ी थी जिसमें एक स्त्री और दो पुरुष छवियां थीं। दोनों पुरुषों के व्यक्तित्व कितने अलग-अलग थे। पर दोनों अपनी अपनी तरह से भले लगते थे। कोई खलनायक न था। न कोई नायक था। बस एक कोमल सी कहानी में एक कोमल सी नायिका और उसके प्रेम को लेकर या कहें प्रेमपात्र को लेकर एक उलझन।
फिर कुछ अंतराल के बाद मन्नू भंडारी की कहानी पढ़ी - नाम था यही सच है। एक एक पंक्ति पढ़ते हुए मन उमगने लगा था। और रहस्य खुलता गया था कि इसी कहानी पर ही तो बनी होगी वह फिल्म। सभी कुछ तो वही है - दीपा की इंतजार करती आंखें, वो खुद कभी बालकनी से झांकती तो कभी कमरे के भीतर आती, किताब खोलती कभी बंद करती, कभी अलमारी खोलती, कभी दीवार घड़ी की सुइयों को देखकर परेशान सी होती। हवा से पर्दा कांपता और वह चिंहुक कर उस तरफ देखती कि शायद संजय आ गया। वाह क्या कहानी थी! जैसे कोई खूबसूरत नीलाभ पारभासी पत्थर, जिसे प्रकृति ने ताप और ठंडक के मेल से बनाया हो - भीतर तक जिसमें रंग और बुलबुले दिखते थे। कितना अनूठा था कथ्य और उतना ही अनूठा शिल्प भी। लय से भरा हुआ, मानो आलाप की नींव से एक संगीत लहरी धीरे धीरे ऊपर उठती जाती है। लेकिन अनूठा होकर भी शिल्प इतना सहज था जैसे एक डाल पर से दो टहनियां फूटें और उनमें अपनी अपनी कोंपलें और फूल पत्ते हवा के झोंको में लरजने लगें।
प्रेम पर अनेक कहानियां लिखी गई हैं। स्वयं मन्नू ने भी प्रेम पर कई कोणों से कई बार लिखा है। पर यह कहानी प्रेम के पारंपरिक मिथक को जिस मासूमियत से, बिना किसी क्रांतिकारी तेवर के ध्वस्त करती है, उसकी मिसाल शायद ही मिले। खासकर स्त्री मन का ऐसा निर्वचन शायद तब तक हुआ नहीं था। कहानी में बाहरी तौर पर कोई बड़ी घटना नहीं घटती, कोई लंबा चौड़ा इतिवृत्त नहीं बनता, फिर भी एक छोटी सी परिस्थिति से मन:स्थितियां बदलती हैं, कुछ ऐसे, जैसे रेगिस्तान में हवाएं चलने से रेत के बदलते आकारों से भूदृश्य बदल जाता है। पूरी कहानी में पल पल मन की तरगें कभी उठती हैं, कभी गिरती हैं। वृत्त बनते जाते हैं। एक पल उमस भरा है तो दूसरे ही पल हवा का झोंका आ जाता है। यानी यह मन:स्थितियों की ही कहानी है । अंतत: भीतर ही भीतर एक द्वन्द्व में उलझती दीपा की कहानी। लेकिन उलझने का स्पेस भी तो जब कोई खुद को देता है, विशेषकर स्त्री, तो मन की यह उड़ान एक खास चेतना की परिचायक बन जाती है। मन को टटोलना, ईमानदारी से भावों के आधार पर प्रेम में चुनाव के संकट से जूझना, यह जोखिम उठाना, स्त्री की एक अभूतपूर्व छवि की रचना करता है। कई सवालों के बीज कहानी से फूटते हैं। क्या प्रेम कोई स्थिर धारणा है? क्या एकनिष्ठता ही प्रेम का चरित्र है? क्या अतीत बस अतीत हो जाता है? क्या वह नया जन्म लेकर हमारे सम्मुख लौटता नहीं? और क्या वर्तमान को अतीत बनते बहुत देर लगती है? और फिर इसके अलावा प्रेम की अभिव्यक्ति और संप्रेषण के उजले और धुंधले कितने स्तर हैं? कितने चौड़े रास्ते और संकरी गलियां हैं? क्या प्रेम मादक कल्पना और रोमान से जन्म लेता है? या सहज स्वाभाविक मैत्रीपूर्ण अंतरंगता का नाम प्रेम है?
3 टिप्पणियां:
कहानी से उपजे सवालों के बीज जाने कितनी कहानियों की पृष्ठभूमि बन जाते हैं ...
सुन्दर चर्चा ...!
मनु जी की ज्यादातर कहानिया असल जिंदगी के पन्नो से ही उठाई हुई है .....आपका बंटी पढ़िए .....
कल दिनांक 5 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट प्रेम की गलियां शीर्षक से प्रकाशित हुई थी, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें। कल अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण यह शुभ सूचना आप तक नहीं पहुंचा सका, जिसके लिए मुझे खेद है।
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