मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए दूसरी किस्त -
कहानी एक पढ़ी-लिखी युवती दीपा की है, उसकी नजर से और उसी की जुबां में लिखी गई है। दीपा कानपुर में अकेली रहती है और अपने थीसिस पर काम कर रही है। वह संजय नाम के एक युवक, जो एक ऑफिस में काम करता है से प्रेम करती है। अक्सर उन दोनों की शामें कभी घर तो कभी बाहर घूमते हुए साथ कटती हैं। कहानी की शुरुआत ही दीपा के इंतजार से शुरू होती है। यह इंतजार पूरी कहानी में रूप और पात्र बदल-बदल कर आने वाला मोटिफ है। उसी तरह एक सहज पर मार्मिक मोटिफ विदा करने का भी है। इन सब के बीच जगहों की, पात्रों की भूमिकाएं शिफ्ट होती रहती हैं। चीजें वही रहती हैं पर आलंबन बदल जाते हैं।
मन्नू भंडारी ने दीपा में ही दो तरह की छवियों को अंकित किया है। इंतजार में भटकते मन और निगाहों वाली तथा सपनों के रोमांच में खोई खोई सी दीपा, तथा अचानक विभक्त-मना, उलझी, असुरक्षित और कातर दीपा। कहानी में संजय के व्यक्तित्व की रेखाएं कम सही, पर बड़े अचूक ढंग से उसे अंकित कर देती हैं कि प्रेम के अलावा भी वह पूरी दुनिया में डूबा है। उसका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा सरल है कि वह जहां हो वहीं का हो कर रह जाता है। अत: बार बार देर से आना उसकी आदत बन गई है। पर वह दिल का साफ और बच्चे की तरह मासूम है इसलिए लाड़ दुलार, प्रेम मनुहार करके दीपा को मना भी लेता है।
दीपा का एक अतीत भी है जब पटना में पढ़ाई करते हुए उसने निशीथ से प्रेम किया था। फिर किसी बात पर वह संबंध निशीथ की ओर से टूटा था और अपने पीछे अपमान का तिक्त स्वाद, आंसुओं का ज्वार और घनी रिक्तता छोड़ गया था। अत: अब निशीथ का नाम मजाक में भी सुनना उसे पसंद नहींý
लेकिन कहानी में मोड़ तब आता है जब दीपा को नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने अकेले कलकत्ता जाना पड़ता है। वहां एक नए परिवेश में अचानक उसकी भेंट फिर से अपने अतीत यानी निशीथ से हो जाती है। निशीथ दीपा की नौकरी के लिए पूरी तरह जुट जाता है। इधर दीपा इन तीन चार दिनों के साथ में उसकी अनकही भावनाओं का आकलन करते करते अपने ही मन में विभक्त होने लगती है। एक गहरे नैतिक संकट के तहत उसे लगता है कि निशीथ को संजय के बारे में सब बता देना चाहिए ताकि किसी तरह की गलतफहमी न रहे। पर दूसरी ओर अनकहे आकर्षण के चलते उसके ओंठ भी नहीं खुलते ... ।
अपने लिए खामोशी से इतना कुछ करते देख और अतीत की मंद रोशनी में उसका हृदय पिघलने लगता है। कभी जिज्ञासा होती है, कभी हल्की सी मोह भरी सहलाहट। और वह चाहने लगती है कि वह साफ साफ कह क्यों नहीं देता। वह उसके पसंदीदा रंग की नीली साड़ी पहन लेती है। साथ कॉफी पीते हुए निशीथ के कांपते ओठों की धड़कन तक महसूस करती है। और एक वह क्षण आता है कि वह चाहने लगती है कि निशीथ हाथ बढ़ाए और उसे छू ले। उसे घेर ले एक आलिंगन में। पर मानो निशीथ का हृदय बस फड़फड़ाता है।
फिर कलकत्ता और निशीथ से विदा होने का वह क्षण आता है जब निशीथ को देखते हुए उसकी आंखें कातर हो उठती हैं। वह सुनना चाहती है वह बात जो उसके कानों और हृदय में बज रही है। गाड़ी की सीटी के साथ आंखें छलछलाती हैं और झटके से गाड़ी के सरकने पर आंसू बह आते हैं... और तब निशीथ के हाथ का क्षणिक स्पर्श ....ý
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