मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए चौथी किस्त-
लेकिन फिल्म में सुविधा के लिए कानपुर और कलकत्ता को दिल्ली और मुंबई में बदल दिया गया है। यों दिल्ली की सुरम्यता पेड़ों की कतारों वाली चौड़ी सड़कों, पृष्ठभूमि की मुगलकालीन इमारतों, मकबरों के अलावा बसों और बस-स्टापों के बीच मध्यवर्गीय जीवन में मूर्त होती है। यद्यपि ये दिल्ली की टिपिकल छवियां नहीं हैं। फिल्म में मुंबई किंचित मांसलता से उभरती है, अपने शरीर और आत्मा के साथ। जिसमें टैक्सी की खिड़की से भागते दृश्य हैं तो वहां का व्यस्त जीवन, चिपचिपा पसीना, पानी की समस्या, जमीन से ऊंचे घर और लिफ्टें, मैजिक आई से देखना भी है। निशीथ का काम (फिल्म में इसका नाम नवीन है) फिल्म में मूर्त हो जाता है। यहां विज्ञापन की दुनिया उभरती है। एक पार्टी के दृश्य के जरिए फिल्मकार मुंबई के उच्चभ्रू जगत का एक चुस्त कोलाज रच देता है। पार्टी में इधर उधर झांकता कैमरा और बातों के कुछ टुकड़ों में रेस कोर्स, नाटक, बुटीक और फिल्म जैसे शब्द झरते हैं। इस मेलजोल के पीछे संपर्क बढ़ाकर बिजनेस पाने के निहितार्थ को भी फिलमकार ने रेखांकित कर दिया है।
फिल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं जिनसे लगता है सरलीकरण हो गया है। जैसे दीपा को नितांत अकेले नहीं, दिल्ली में भाई-भाभी के साथ रहते दिखाया गया है। इस बदलाव के कारण मन्नू भंडारी के पात्रों के रिश्तों के बीच जो छोटे छोटे पेंच और भंवर पड़ते हैं और जिन्हें वे छोटे से किसी संकेत, वाक्य या मुद्रा से कह जाती हैं, वे अनकहे तनाव यहां नहीं हैं। दूसरे अकेले रहने से जो दीपा की आत्मनिर्भर युवति की छवि कहानी में बनती है, वह फिल्म में किंचित मंद पड़ जाती है। और फिर अचानक भाई-भाभी को जाना पड़ जाता है जिससे दीपा कहानी की मूल स्थिति में आ जाती है। यह युक्ति बहुत ज्यादा समझ में नहीं जाती, जैसे यह बात भी खास समझ में नहीं आती कि कानपुर को दिल्ली और कलकत्ते को मुंबई में क्यों किया गया है।
फिल्म का एक और सुंदर विस्तार दो पुरानी सखियों के मिलने के दृश्य में हुआ है। इरा के चरित्र का पल्लवन करके उसे एक प्रामाणिक रूप दिया गया है। इरा के पति की अनुपस्थिति में उनका अनौपचारिक खुला व्यवहार, गिले-शिकवे, छेड़डाड़ और चुहल मूर्त हो जाती है। इन दृश्यों में इरा के खुले और निस्संकोच विवाहित रूप तथा दीपा के खामोश और शर्मीले रूप का भी कहीं न कहीं एक सहज सा कंट्रास्ट है। फिल्म में नवीन और दीपा के संबंध-विच्छेद को भी छात्रों की हड़ताल से जोड़ा गया है। इस तरह बासू चैटर्जी सामाजिक और व्यक्तिगत की टकराहट के माध्यम से दो प्रेमियों की ईगो की सहज व्याख्या कर देते हैं। फिल्म और कहानी में एक और बड़ा फर्क मुंबई में दीपा और नवीन की मुलाकात से जुड़ा है। कहानी में एक कॉफीहाउस में संयोगवश इन दोनों की मुलाकात होती है, जबकि फिल्म में यह संयोग न रहकर सुनियोजित उपक्रम बन जाता है। हालांकि इसके पीछे इरा की व्यस्तता के चलते रेलवे स्टेशन पर दीपा को रिसीव करने न जा पाना है। वैसे भी मुंबई जैसे जनसमुद्र में ऐसे संयोगों की जगह नहीं है। इसलिए यह परिवर्तन आरोपित नहीं लगता।
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