मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए तीसरी किस्त
पूरी कहानी दृश्य-गंध-ध्वनि और गति को शब्द के माध्यम से आंकती एक फिल्म जैसी ही है। कहानी में रजनीगंधा के फूलों की महक भरी है। कहानी की एक एक भंगिमा, एक एक वाक्य ऐसा है कि फिल्मकार कुछ भी कहां छोड़ पाया है। उसने शब्द की हर भंगिमा को अपनी निजी भाषा में ढाला है। जिस तरह किसी चित्र को देखते हुए हम चित्रकार की दृष्टि के भी रूबरू होते हैं, उसी तरह फिल्म को देखने से आभास होता है कि फिल्मकार कहानी पर इतना मुग्ध है कि न केवल ऐसे ऑफबीट विषय को फिल्म के लिए चुनने का जोखिम उन्होंने उठाया, बल्कि कहानी के सौंदर्य से छेड़छाड़ किए बगैर उसे बरकरार रखने की कोशिश भी की है, उसे पूरा सम्मान दिया है। फिल्मकार इस मार्मिक कहानी की उंचाई तक फिल्म को पहुंचाना चाहते थे, उसकी सूक्ष्मता और मानवीय सार को व्यक्त करना चाहते थे। विश्व फिल्म इतिहास में ऐसा कम हुआ है कि अच्छी कहानी या उपन्यास पर फिल्म भी उसी स्तर की बनी हो। पर यह फिल्म इस दृष्टि से अपवाद है।
फिल्म माध्यम की अनिवार्यता के तहत फिल्मकार ने जहां कुछ तब्दीलियां और सरलीकरण किए हैं, वहीं कुछ विस्तार अैर पल्लवन भी फिल्म के हक में किए हैंý
फिल्म ने कथा के दृष्टिकोण को लगभग यथावत् रखा है। यानी फिल्म भी दीपा के ही दृष्टिकोण से कही गई है। मन्नू भंडारी इस तकनीक की - बेहद सांद्र तकनीक की, बड़ी माहिर प्रयोक्ता रही हैं - हम याद कर सकते हैं आपका बंटी और त्रिशंकु की युवा होती किशोरी को। यह कहानी के शिल्प का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि कहीं भी लेखिका अपने या दूसरे पात्रों की नजर से कुछ नहीं कहती। जो कुछ भी प्रतिबिंबित हो रहा है वो सब दीपा के दृष्टिबिंदु से और उसी के मन में हो रहा है। लेकिन फिल्मकार के लिए इसे यथावत दिखाने में बड़ी चुनौती छिपी थी। दीपा के मन में हर पल चलने वाली उलझन, बाहरी खामोशी के भीतर चलने वाले संवादों-प्रतिसंवादों, एकालापों को, विस्मय और संवेग के तमाम उद्गारों को कैसे दिखाया-सुनाया जाए। पर बासू चैटर्जी जैसे फिल्मकार ने इसके लिए अपने माध्यम को तरह तरह से आविष्कृत किया। क्योंकि वह इस कहानी को उसी रूप में और उन्हीं डिटेल्स के साथ, अपने माध्यम में दर्शकों को सुनाना चाहते थे, जिस रूप में यह मन्नू जी की कलम से निकली थी।
कहानी के शिल्प को खुला छोड़ दिया गया है। यानी आदि से अंत वाली कालक्रमिकता यहां नहीं है। कहानी दो समय खंडों में और दो स्थानों में आवाजाही करती है। फिल्म में भी कहानी के उस मूल शिल्प को बरकरार रखा गया है जिसमें पूरी कहानी दो स्थानों, दो भूगोलों या दो परिवेशों में बंट जाती है। ये दो स्थान मूल द्वन्द्व का प्रतीक बन जाते हैं, ये संजय और निशीथ के प्रतीक बन जाते हैं - दीपा के वर्तमान और अतीत के प्रतीक। इनमें भविष्य के अंकुर अलग अलग ढंग से फूटना चाहते हैं। दोनों स्थानों का द्वन्द्व अंतत: उभरता है। पर पृष्ठभूमि में किंचित दूरस्थ अतीत में पटना भी है जहां पिता और भाई-भाभी के संरक्षण में पढ़ते हुए सत्रह साल की उम्र में दीपा ने निशीथ से प्रेम किया था।
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