रामविलास शर्मा हमारे समय के एक गम्भीर अध्येता, मर्मी आलोचक और विचारक रहे हैं। दीर्घ काल तक व्याप्त उनके महत् कार्य का, उसके विभिन्न पक्षों-पहलुओं का ईमानदार मूल्यांकन शायद अब शुरू होगा।
उनके लेखन और उनकी सोच के रूबरू तो छिटपुट ढंग से हिंदी का सामान्य से सामान्य पाठक भी होता रहा है - कभी छायावादी कवि निराला पर उन्हें पढ़ते हुए, तो कभी नयी कविता और अस्तित्ववाद से गुज़रते हुए। वे एक ओर वृन्दावन लाल वर्मा, प्रेमचंद और नागर जी पर लिख रहे थे तो दूसरी ओर बंगला के कृती पुरुषों रवीन्द्र और शरत् पर भी बेहद बेबाक ढंग से सोच रहे थे। अंग्रेज़ी साहित्य के तो मर्मी अध्येता वे थे ही, रूसी लेखकों में लियो तोलस्तोय से लेकर बोरिस पास्तरेनाक के साहित्य की भी व्याख्याएँ कर रहे थे। संस्कृत में वाल्मीकि और भवभूति और कालिदास पर लिख रहे थे दूसरी ओर युनानी त्रासदियों और शेक्सपियर के नाटकों के पात्रों की मूल्य चेतनाओं की पड़ताल करते दिखते थे।
साहित्य तो उनके चिंतन-मनन का केन्द्र था ही - लेकिन भाषाविज्ञान, दर्शन, इतिहास, और कलाएँ भी उनका विषय थी। फिर देश और काल के ओर-छोर तक पसरा उनका यह लेखन साधारण लेखन या एकायामी समीक्षा भर न था। वे कृतियों की दुनिया में अपनी समाज दृष्टि और इतिहास दृष्टि के साथ प्रवेश कर रहे थे, कुछ ऐसे कि साहित्य के पात्रों, उनके भावों, उनके स्वप्नों, शब्दों और तमाम उपकरणों में एक समाज, एक युग एवं दौर की तमाम प्रवृत्तियों का प्रतिबिंब गोचर रूप में उभर आता था।
मार्क्सवाद या फिर द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद की मूल चेतनाओं को आत्मसात कर उसे अपने चिंतन-विश्लेषण का आधार बनाकर आगे बढ़ रहे थे - आज तक भी जब बडे़ बडे़ धुरंधर इस सब पर शास्त्रीय बहस-मुवाहिसों में लगे हैं - और वितंडा कर रहे हैं, रामविलास उसे प्रखरता से 'एप्लाई' कर रहे थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मार्क्सवाद के यथार्थ की मिररिंग वाले सिद्धांत को अपना कर वे सरलीकरण कर रहे थे - वे काफ़ी सतर्क और सावधान विचारक रहे हैं। सामन्त युग की रौशनी में जब वे कालिदास को पढ़ते हैं या कालिदास में सामन्त युग को पढ़ते हैं तो यह भी कहते हैं - ''कालिदास का साहित्य उस काल की समाज व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है, साथ ही उसका बहुत बडा़ भाग उस व्यवस्था से मुक्त होकर एक कल्पनालोक की सृष्टि भी करता है। इसलिए कालिदास में जो कुछ भी मिले, उस सभी को हम उस युग का सामाजिक यथार्थ नहीं मान सकते।''1
इसी तरह वे शेक्सपियर के दुखांत नाटकों के पात्रों ब्रूटस, हैमलेट, क्लौडियस, मैकवेथ, लेडी मैकवेथ, किंग लियर की बेटियाँ और डेस्डीमोना, इआगो नैतिक बोध और द्वन्द्व की व्याख्या कर यूरोप के नवजागरण के अंधेरे उजले कोने उभार देते हैं। और द्वन्द्ववाद और ऐतिहासिकता के दर्शन के आधार पर ही वे सदा चीज़ों में, कलाओं में, प्रघटनाओं में संबंध-सूत्रों की तलाश करते रहे। क्योंकि कोई भी चीज़ नितांत स्वायत्त और कट कर जन्म नहीं लेती। इसीलिए यूरोप के नवजागरण को समग्रता में समझने के लिए वे विभिन्न कलाओं, दर्शनों, विज्ञान एवं अर्थव्यवस्था को जोड़ कर देखा करते हैं। और भारतीय नवजागरण के बारे में कहते थे कि यह अकारण नहीं कि ताजमहल, तुलसी और तानसेन एक ही युग की उपज हैं। वे निरन्तर तुलनाएँ करते, पूर्व और पश्चिम की, वहाँ की कृतियों और व्यक्तियों की, (भरत के साथ प्लेटो अरस्तू) साहित्य एवं संगीत की, दर्शन एवं साहित्य की, लोकभाषाओं और लोकसंगीत की, ... और तब कोई स्थापना रखते।
ऐसे संवेदनशील और जिज्ञासु रामविलास अगर संगीत के इतिहास और नवजागरण से उसके संबंधों के बाबत गैर मामूली स्थापनाएँ करते हैं, तो हैरानी क्यों होनी चाहिए। संगीत ही नहीं उन्होंने नाटक, चित्र से भी गहरा प्रेम किया था। संगीत के प्रति उनका अनुराग इतना ज्यादा था कि वे हर कीमत पर गायन सीखना चाहते थे, वायलिन और तबला भी वे बजाते थे। वे लिखते हैं - ''मैंने तय कर लिया है कि मुझे म्यूज़िक सीखना है, म्यूज़िक उतना ही सुंदर है जितनी कि कविता, शायद उससे भी सुंदर। कविता के आनन्द का चाहे आप वर्णन कर दें ... मुख्य कारणों को भी ढूंढ़ निकालें, पर संगीत का आनन्द केवल हृदय से ही जाना जा सकता है।''2 या ''हर कला का अपना माध्यम होता है। हर कला का अपना स्थापत्य होता है, अपनी चित्रमय व्यंजना होती है। संगीत का माध्यम नाद है। नाद ऐसी संवेदनाओं को जगा सकता है, जिन तक अन्य कलाओं की पहँच मुश्किल है।''3
संगीत पर लिखी इस पुस्तक में रामविलास जी के बेटे विजय मोहन शर्मा ने उनके संगीत के निजी संग्रह की भी बानगी प्रस्तुत की है। उसमें हिन्दुस्तानी संगीत के दिग्गज गायकों और वादकों के कैसेट हैं (मल्लिकार्जुन मंसूर, पलुस्कर, उ. फैयाज़ खां, बडे़ गुलाम अली खाँ, भीमसेन जोशी, सिद्धेश्वरी देवी, किशोरी अमोनकर, रविशंकर, बिस्मिल्लाह खां, अलाऊद्दीन खाँ) तो कर्नाटक संगीत की विभूतियाँ भी हैं, शास्त्रीय संगीत के साथ श्मशाद बेगम और मुहम्मद रफ़ी के भी वे प्रेमी थे। पाश्चात्य संगीत की सिम्फनी रचनाओं को भी वे विभोर होकर सुनते थे और सुनते हुए प्रकृति के भू दृश्यों की कल्पना करने लगते थे। उन्हें बारव और मैण्डलसौन जिन्होंने ब्रिटेन के उत्तर में समुद्र तट पर बैठ कर संगीत रचा था, बेहद पसंद थे।
और इसी अनुराग का सहज फल यह था कि न केवल संगीत के अनुभव में वह डूबते, उतराते, भीगते रहे बल्कि वह संगीत के विषय में निरन्तर पढ़ते, सोचते और लिखते रहे। बचपन से लेकर जीवन के अंतिम वर्षों तक संगीत उनके अंग संग रहा। यहाँ तक कि वे संगीत की थरोप्यूटिक भूमिका को भी अपने पर आज़मा रहे थे। उनको निकट से जानने वालों ने यह भी लिखा है कि वे जब संगीत सुनते थे तो बाकी सब काम बंद कर देते थे- सभी इन्द्रियों को साथ ले, मन और आत्मा के संग वे संगीत के लोक में कदम धरते थे।
ऐसे मनस्वी रामविलास जी संगीत के इतिहास की खोज में ॠग्वेद के सूक्तों से लेकर नाट्यशास्त्र, अमीर खुसरो और संत, सूफ़ी और भक्तों के साहित्य और अन्तत: ब्रिटिश काल तक जाते हैं। इन्हीं में वे त्यौहारों और लोकसंगीत, लोकसंगीत और भाषाओं के प्रखर, लोकसंगीत और दरबारी संगीत, मज़हबी दृष्टिकोण और हिंदी जाति का अविभाजित संगीत, अरब और ईरान और ब्रिटिश युग की अंधकारमयता के बेहद ज़रुरी मुद्दे उठाते हैं - और तुलनात्मक तौर पर कभी कर्नाटकी संगीत परंपराओं से तो कभी वृहद फलक पर योरुप के नवजागरण के संगीत की चर्चा करते हैं।
जिस तरह रामविलास जी ने ॠग्वेद के सूक्तों में चित्र, नृत्य संगीत की संवेदनाओं और डिटेल्स को उभारा है, वह बेहद चामत्कारिक है। वेदों की मानवीय और यथार्थवादी व्याख्याओं के एवज़ उन्हें तथाकथित प्रगतिशीलों का कोपभाजन बनना पडा़ था - पर रामविलास जी ने ऐसी जड़ताओं और हदबंदियों को कब माना। वे साफ़ साफ़ कहते हैं -''ॠग्वेद को अगर कोई धर्मग्रन्थ या कर्मकांड समझता है तो समझा करे। मेरे लिए तो वे दार्शनिक काव्य के अनुपम ग्रन्थ है।''4
सूक्तों की उपमाओं में, क्रियापदों या बिंबनों में उन्हें वैदिकों के जीवन की झलक दिखने लगती है और वे रहस्य के पर्दों को उठा कर देखते हैं तो उन्हें रथकार के चक्र और अराएँ दिखती हैं जो चित्र और स्थापत्य का आधार है - रथ का यही पहिया कालचक्र बन जाता है, ॠग्वेद का कवि जिसे घुमाता है। सूक्तों में सूर्य आकर अंधकार को ऐसे समेट देता है जैसे चमडे़ का कारीगर समेट देता है - या अंधकार को समुद्र में चमडे़ की तरह डुबोता है। चित्रकला की अद्भुत संवेदना जगती है मरुतों के वर्णन में जो श्याम तुरंगों पर बैठे, सुनहले मुकुट और अस्त्र लिए आते हैं और अपने रथों से धरती पर कोष बरसाते हैं। रामविलास जी कहते हैं ये कोष बादल हैं और वे जो धन बरसाते हैं वह जल है। फिर उषाएँ आती हैं और अंतरिक्ष और द्युलोक को ही नहीं धरती को भी प्रकाश और रंगों से भर देती हैं, पूरब का दरवाज़ा खोलती हैं कि प्रकाश अंधकार से बाहर आ जाए।
नृत्य की छवियों के विवेचन के बाद रामविलास संगीत के वाद्यों के बीसियों नाम और उनके संदर्भ खोज लेते हैं। हर सूक्त को पढ़ते हुए रामविलास जी की कल्पना भी पश्यन्ति हो उठती है। वे वीणा और मजीरे जैसे वाद्यों को सुनते हैं और सात सुरों के संदर्भ भी ढूंढ़ लेते हैं। सबसे बढ़कर तो यह कि रामविलास जी वैदिक ॠषि को ॠषि न कहकर 'कवि' कहते हैं - ''पक्षी का स्वर सुनकर न कवि को इस बाजे (कर्करि) की याद आती है।''5
इसी तरह रामविलास जी भरत मुनि के नाटयशास्त्र की अन्वीक्षा करते हैं जो कलाओं (नाटय, नृत्य, संगीत) के सामंजस्य की, सहअस्तित्व की, और समाहार की भारतीय दृष्टि को सामने रखता है। वे नाटयशास्त्र के विशद हवालों के साथ साथ उसकी मूलवर्तनी, विचारों की लोकायतिक चेतनाओं, और ज़मीन के नीचे बहने वाली अन्त: सलिलाओं को डीकोड करते हैं। इस प्रयत्न में भी वे उसी युग के दो और प्रतिनिधि ग्रंथों को भी समकोण पर रख लेते हैं। शारीरिक रोगों पर लिखा ग्रन्थ चरक संहिता और राजनीति अर्थनीति और समाज व्यवस्था पर लिखा ग्रन्थ - कौटिल्य का अर्थशास्त्र। वे लिखते हैं - '' 'नाटयशास्त्र', 'चरक संहिता', 'कौटिल्य का अर्थशास्त्र' एक ही युग की संस्कृति प्रतिबिंबित करते हैं। तीनों ही यथार्थवादी लोकायत पंरपरा से प्रभावित हैं। एक में साहित्यशास्त्र है, दूसरे में शरीर विज्ञान और तीसरे में समाज विज्ञान और तीनों का उद्देश्य लोकरंजन, लोकोपदेश और लोक-उपकार है। यहाँ भी वे प्लेटो और अरस्तू के काव्य एवं नाट्य दृष्टियों से भरत की तुलना करते हैं और साबित करते हैं कि भरत का दृष्टिकोण कलाओं के प्रति ज्यादा स्वस्थ और सकारात्मक और ट्रांसेन्डेटेल है। प्लेटों के लिए तो काव्य एवं कलाकार भावावेश भड़काने वाले हैं, अरस्तू मानसिक भावों का रेचन नाट्य से करना चाहते हैं - पर भरत तो आनन्द की भूमि तक संतप्त मानवता को ले जाना चाहते हैं - वे भावों को रोग नहीं - रस का आधार मानते हैं। नाट्यशास्त्र विषयक 'मिथकों' को रामविलास जी यथार्थपरक संभावनाओं से खोलते हैं कि कैसे 'स्वर्ग में नटों को ॠषियों ने शाप दिया और नाटक धरती पर आ गया।' वे कहते हैं कि ये ॠषि दरअस्ल भरतकालीन पुरोहित थे और अपने उपहास पर क्रुद्ध हो गए थे और यों नट शूद्र वर्ण में रख दिए गए। संगीत का विवेचन करते हुए भरत सात स्वरों की 'प्रकृति' की चर्चा करते हैं। संगीत से रसों के संबंध के बारे में वे कहते हैं - 'मध्यम' और 'पंचम' स्वर की बहुलता होने पर हास्य और शृंगार... गांधार और निषाद की बहुलता से करुण रस... आते हैं। रामविलास जी का निष्कर्ष है कि यों 'नाट्यशास्त्र' में शास्त्र शब्द जुडा़ है पर उसमें शास्त्रों जैसी जकड़बंदी कहीं नहीं। और सर्वत्र लोक एवं कारीगर एवं अभिनेता का दृष्टिकोण प्रमुख रहा है।
रामविलास जी ने संगीत के बारे में जो भी स्थापनाएँ रखी हैं, उसकी ज़मीन आचार्य बृहस्पति की खोज एवं विचारों से बनी है। और रामविलास जी उसमें अपनी दृष्टि मिलाकर हिंदी के पाठक को बहुत कुछ देते हैं। जैसे हंगरी रूस मंगोलिया के लोक संगीत में आचार्य बृहस्पति को भारतीय राग (भोपाली, दुर्गा, मालकोंस, इत्यादि) साफ़ सुनाई पड़ते हैं - जिसे रामविलास जी भाषा विज्ञान की अपनी समझ के टुकड़ों से जोड़ कर पूर्ण कर लेते हैं।
स्पष्ट ही हंगरी निवासी मग्यार जनों के पूर्वज जब हमारे पडो़सी थे, तब यह लोकसंगीत निर्मित हुआ था। मग्यार भाषा तुर्क-मंगोल परिवार की है और इस परिवार के अनेक भाषिक तत्त्व द्राविड़ परिवार में सुलभ हैं।6
यों भी यह एक ज्ञात तथ्य है कि शास्त्रीय रागों की उत्पत्ति लोक संगीत के स्वर समूहों से हुई है और रामविलास शर्मा भी इस बात को पुरज़ोर ढंग से रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि जैसे भाषा के इतिहास लेखन के लिए लोक भाषाओं का सर्वेक्षण करना अनिवार्य है वैसे ही संगीत के इतिहास लेखन के लिए लोकगीत का सर्वेक्षण अनिवार्य है। इस दृष्टि से वे चार चरणों वाली एक क्रमबद्ध योजना भी पेश करते हैं। इनमें देशों का घेरा व्यापक होता जाएगा।
यूरोप और भारत के इतिहास की तुलना करते हुए रामविलास जी बडे़ मार्के की एक बात कहते हैं कि भारत का भक्ति आन्दोलन धार्मिक सुधार और सामाजिक नवजागरण दोनों भूमिकाएँ अदा कर देता है पर यूरोप में ये दो अलग अलग आन्दोलन हैं, रिनैसां के मूल में गैर ईसाई यूनान है और रिफौर्मेशन में धार्मिक पुनरुत्थान है और आपसी रंजिश, घृणा और टकराहटें हैं। 'भक्त कवियों ने प्रेम के मन्त्र से कर्म के बंधन काट दिए, पुरोहितों के रचे प्रलोभनों और आतंक (स्वर्ग-नरक) को पोंछ डाला और लोक जीवन में घुलकर मानववाद का उद्धोष किया। संतों भक्तों ने धर्मों के बीच की खाई को भर दिया था - वर्णभेद को भी पाट दिया था, पर यूरोप में ऐसा न हो पाया था। भाषा चाहे ब्रज-अवधी हो, या खडी़ बोली - मज़हब से परे थी।
रामविलास जी मानते हैं कि भक्ति साहित्य संगीत को महनीय देन की तरह था। वे कहते हैं जिसे शास्त्रीय संगीत कहा जाता है, और जो मूलत: लोकसंगीत है, भक्त कवि उसके निर्माता हैं।
वे कहते हैं कि ध्रुवपद और धमार गायकी ब्रज की थी और वहीं से वह ग्वालियर-आगरा और फिर दिल्ली के राजदरबारों में पहँची थी। यही ब्रजभाषा संगीत और फिर काव्य की मुश्तर्का भाषा भी थी। यही हिन्दुस्तानी संगीत और हिन्दी साहित्य का वैभव युग भी है। सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या इसे तानसेन का जीवनकाल मानते हैं जब उनके समसामयिकों में मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास और एक पीढी़ पहले अन्धे कवि सूरदास हुए थे। यही 'हिंदी जाति' के निर्माण का काल है जब हिन्दू मुस्लिम मिलकर सांस्कृतिक अभिव्यंजनाएँ कर रहे हैं। और फिर अगर दिल्ली-आगरे के सुलतानों ने फारसी को राजभाषा बनाया था- तो उसका संबंध धर्मभाषा से नहीं मातृभाषा से ही था। यह भारतीय स्थापत्य का भी ज़रखेज़ युग था (उत्तर-दक्षिण दोनों ओर) और इसी समय चित्रकला में राजपूत और मुगल शैली की चित्रकला के फूल भी खिले थे। रामविलास जी मानों एक आह भरते हैं और भविष्य में देखते हुए कहते हैं कि आज जब सांस्कृतिक विघटन ज़ोर पकड़ रहा है तब साहित्य और संगीत की वह एकताबद्ध संस्कृति ही सही राह दिखाएगी। आचार्य बृहस्पति के उद्धरण देते हुए रामविलास जी हिन्दी भाषा, ब्रज और हिन्दूस्तानी संगीत में अमीर खुसरो को भी बडे़ आदर से याद करते हैं। वे ब्रज में जन्मे थे, उसके बाद अवध और फिर दिल्ली (कुरु जनपद) पहुंचे थे। अमीर खुसरो का रुझान भी शास्त्रीय संगीत से ज्यादा लोक संगीत की ओर था।
ब्रिटिश भारत ने ही हर चीज़ की तरह संगीत को भी हिन्दू-मुस्लिम में बांटने की कोशिश की - जबकि संगीत में सबकी समान भागीदारी थी।
रामविलास जी सूफ़ियों के योगदान के सम्मुख भी नतमस्तक भाव रखते हैं - जिनके दार्शनिक आधार में नवप्लेटोवाद के साथ साथ वेदान्त का भी आधार था। जात-पात को संतों की मानिंद उन्होंने भी नकार दिया था - लोक भाषा को अपना लिया था, उनकी खानकाहों में संगीत के सुर गूंजा करते जबकि मौलवियों की स्थिति इनसे अलग थी। उन्होंने लोकसंस्कृति से साहित्य की सामग्री ली थी और कव्वाल भारतीय भाषाओं में रहस्यवादी गीत गाते थे। संतों की संस्कृति जनवादी थी, उनके पद लोकगीतों से ही उठी हुई एक लहर थी। इसीलिए आज भी शास्त्रीय गायक सूर-मीरा के पद गाते हैं या, कि साज़ पर कोई लोक धुन बजाते हैं या फिर गायिकाएँ कजरी इत्यादि से समापन करती हैं या कहें कि संगीत के मूल स्रोत को प्रणाम करती हैं।
इसी तरह रामविलास जी ने कन्नड़ भाषियों के जातीय संगीत की भी बारीकी से चर्चा की है और यूरोप की परंपराओं का भी खुलासा किया है कि इटली अन्य कलाओं के अलावा संगीत का भी गढ़ था। वहाँ स्वरलिपि लिखने की परंपरा थी - जबकि भारत में गुरू शिष्य परंपरा पर ज्यादा जोर रहा है - लेकिन औद्योगिक क्रांति और पूंजीवाद ने जहाँ संगीत को सर्वजन सुलभ कराया वहाँ वाद्य यंत्रों में इतना सुधार कर दिया कि उसमें भारतीय मिठास ही न रही और लोगों ने उन्हें त्याग दिया।
इस तरह संगीत पर रामविलास जी का यह ग्रन्थ एक बार फिर उनकी समग्रतापरक दृष्टि का, दार्शनिक गहनता का प्रमाण है।
1. शर्मा, राम विलास, आस्था और सौंदर्य, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 1961, पृष्ठ 58.
2. शर्मा, राम विलास, संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएं, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 236.
3. शर्मा, राम विलास, संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएं, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 222.
4. शर्मा, राम विलास, संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएं, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 14.
5. शर्मा, राम विलास, संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएं, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 21.
6. शर्मा, राम विलास, संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएं, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 79.
रामविलास शर्मा की किताब पर यह समीक्षा उद्भावना के विशेषांक में छपी है
2 टिप्पणियां:
हालांकि रामविलास शर्मा जी को पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट ही पढ़ा है पर वे समग्रता से विचार करके अपने लेखन में जो स्थापनाएं स्थापित करते हैं वे मठाधीशी विचारधाराओं की तुलना में एक सामान्य आम जन के जादा करीब होती हैं। संगीत का माध्यम नाद होता है और सुमनिका जी अपके इस लेख का नाद भी संगीतमय था। इस समीक्षा के माध्यम से संगीत पर रामविलास जी के विचारों से परिचय कराने के लिए बधाई।
आपने एक लंबा लेख पढ़ने की जहमत उठाई. इतना धैर्य आज किसके पास है. हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया.
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