बुधवार, अगस्त 18, 2010

स्त्री मन का अद्भुत निर्वचन



मन्‍नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्‍म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्‍वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्‍तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए पांचवीं किस्‍त -


फिल्म में कहानी के पात्रों का चरित्रांकन बहुत महत्वपूर्ण है। शायद इस कथा और फिल्म के बीच जो संवाद घटित हुआ घटा है वह इस कहानी के तीन पात्रों को लेकर है। फिल्मकार ने उन्हें चेहरा और रूप देकर स्थिर सा कर दिया है। यानी कहानी की मूर्तता पर अंतिम मुहर लगा दी है। और इसके अलावा तीनों चरित्रों को विशिष्ट मैनरिज्म देकर प्रामाणिकता और कंट्रास्ट को गहरा किया है। इससे ये चरित्र दर्शक के मन में स्थाई जगह बना लेते हैं। दीपा की सहज सुंदर पर सादा छवि को विद्या सिन्हा ने मूर्त किया है। सूती साड़ी पहने हुए उसका सादा और भावमय रूप आंखों में बस जाता है। फिल्मकार ने उसका आभरण भी बेहद सादा रखा है। सादगी भरी यह सुंदरता ही उसकी पहचान बन जाती है। क्लोजअप में कभी कभी बस एक मोती का कर्णाभूषण चमकता है। अपनी लंबी चोटी को कभी आगे कभी पीछे ले जाती, अनजाने में कभी खोलती कभी गूंथती उसकी अंगुलियां एक मैनरिज्म रचती हैं और उसके खुलते और बंद होते मन की भंगिमा बन जाती हैं। कहानी तो दीपा के भीतरी स्पेस से ही रची गई है पर फिल्म को तो बाहर से ही भीतर जाना पड़ता है। फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में दीपा चुप है इसलिए फिल्म में उसकी देहभाषा का ही बारीक अंकन है। उसकी खीझ और तुनक, फिर उसका पिघल उठना, उसकी असुरक्षा, उलझन, कातरता को कहानी में शब्दों के जरिए व्यक्त करना इतना कठिन नहीं, लेकिन फिल्म में उसकी लंबी नि:शब्दता को पार्श्व संगीत से, छोटी छोटी हरकत और अभिनय से मूर्त किया गया है और मन के भीतर समानांतर चलने वाले एकालापों, उलझनों और इच्छाओं को फिल्मकार ने दृश्य को फ्रीज करके सुनाने की तकनीक अपनाई है। उसके चरित्र में भी अंतर्निहित विरोधाभास है कि वो एक स्तर पर आधुनिका और आत्मनिर्भर होकर भी हृदय के स्तर पर अपराजेय और अभेद्य नहीं है। सपनों में खोई सी या अपने में उलझी सी यह भावुक लड़की कभी कभी बेहद कातर, अकेली, असहाय और असुरक्षित नजर आती है। और इसी पक्ष को उभारने के लिए बासु दा ने फिल्म की शुरुआत एक ऐसे दु:स्वप्न से की है जहां चलती ट्रेन में वो नितांत अकेली छूट गई है या एक निचाट प्लेटफार्म पर अकेली छूट गई है
नवीन के व्यक्तित्व को फिल्मकार ने लेखिका की आंखों से ही देखा है। यह और बात है कि उसमें कुछ आयाम और जोड़ दिए गए हैं। कहानी में निशीथ का अंतर्मुखी रूप संजय के खुले और सहज व्यक्तित्व का लगभग प्रतिपक्ष ही है। कवियों जैसे लंबे बाल और दुबला संवलाया चेहरा कहानी की तरह फिल्म में भी है। तो भी संजय के बरक्स उसे थोड़ा विशिष्ट बना दिया गया है। संजय की वेषभूषा और अंदाज ऑफिस जाने वाले किसी भी आम और मध्यवर्गीय युवा क है, और उसके कपड़ों और बालों पर ध्यान नहीं जाता। दूसरी ओर फिल्म का नवीन सादा होकर भी कुर्ते और पतलून में दिखाई पड़ता है। उसके व्यक्तित्व में उस समय के मीडिया की दुनिया और कलात्मकता का हल्का सा पुट है। थोड़ा सा बुद्धिजीवियों वाला अंदाज और अदा। फिल्म का नवीन एक के बाद एक सिगरेट जलाता रहता है और बहुत बार उसकी आंखों पर एक गहरा चश्मा रहता है जो उसके स्वभाव की अंतर्मुखता के अनुरूप उसके भावों को छुपाए रहता है। नवीन की जो छवि फिल्म में उभरती है वह अपने समय के बौद्धिक अथवा कलाकार वर्ग की हैý
दूसरी ओर संजय के व्यक्तित्व को काफी विस्तार दिया गया है। अनेक सहज दृश्यों के माध्यम से उसके व्यक्तित्व और दीपा से उसके संबंध की दृश्यात्मक व्याख्या की गई है। सबसे बढ़कर इस चरित्र के माध्यम से बासु दा ने हल्के ह्यूमर की सृष्टि की है। उसके आते ही पात्रों और दर्शकों के होठों के कोरों पर एक मंद मुस्कान आ जाती है। अक्सर उमस के बाद एक खुश्बूदार हवा के झोंके की तरह वो आता है। उसका मुस्कुराता चेहरा जब जब दिखता है, फिल्म का तनाव बिखरकर, धुंआ बनकर उड़ने लगता है। वह खिलखिला के दूसरों को हंसा देने वाला पात्र है, बला का बातूनी और भुलक्कड़। लेकिन अंतत: हर समस्या को गोली मारो के तकिया कलाम से उड़ा देता है। दीपा के साथ रहते हुए भी दफ्तर, चीफ, प्रमोशन, रंगनाथन, मेमोरेंडम और आखिर यूनियन की मांगें उसके दिमाग में भरी रहती हैं - और कभी कभी दीपा चिढ़ भी जाती है। दिल्ली की बरसात में अपनी फटी छतरी में जिस निर्कुंठ भाव से वो दीपा को बुलाता है, वो दृश्य बेहद सुंदर ही नहीं, रोमान की एक नई व्याख्या भी करता है। कहानी में बार बार देर से आने का जो सूत्र लेखिका ने दिया है, फिल्मकार ने उसे तरह तरह से उठाया है। फिल्म की शुरुआत में ही थियेटर के बाहर बेचैनी से इंतजार करती दीपा का दृश्य है। एक और दृश्य में वो फिल्म आधी बीत जाने पर पहुंचता है ओर उसके बाद भी टिककर फिल्म देख नहीं पाता। इसी बिंदु पर बासु दा फिल्म में फिल्म दिखाकर मानों मुंबइया फिल्मों पर एक टिप्पणी कर जाते हैं। भड़कीले गीत, चालू नाटकीयता दि‍खाकर वे एक विरोध का आभास भी यहां दे देते हैं

1 टिप्पणी:

yadu ने कहा…

suman di's narrative has her signature style of describing sweet imagery with difficult hindi words! But ofcourse, the subject is sensitivity of the writer (novel), creator ( of the movie) the actors and yes the blogger.