मंगलवार, सितंबर 29, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग : बैजनाथ





7


सभामडप की दीवारों पर शारदा लिपि में इस मंदिर को बनाने वाले मन्युक और अहुक नामक व्यक्तियों का बखान है और साथ में इसके राजगीरों के मुखिया का नाम नयका और सम्मान आदि भी उल्लिखित हैं जिन्होंने मिलकर सभामंडप और वितान बनाया था।
मंदिर के पृष्ठ भाग में सूर्यदेव की प्रतिमा है - सूर्यमुखी के फूलों के संग। इन्होंने पैरों में जूते पहन रखे हैं। लेकिन सूर्यदेव तो उस दुपहरी में मंदिर के अंग उपांग में - धरती आकाश में व्याप्त थे - और हमने जूते नहीं पहन रखे थे। तथापि एक पूरी सृष्टि थी जो एक मंदिर की सूरत में हमें घेरे हुए थी। तभी किसी भक्तगण ने द्वार मंडप का घड़ियाल बजाया और एक नाद इस सम्पूर्ण कला सृष्टि के सर चढ़ कर गूंजने लगा।
इस सृष्टि दर्शन के बाद मंडी की तरफ बढ़ते हुए कई मिले जुले एहसास थे। गाड़ी की सीट से पीठ टेक कर मैंने आंखें मूंद लीं। एक ओर वह प्रत्यक्ष देश काल और सृष्टि थी जिसमें हम विचर रहे थे। फिर एक वो सृष्टि थी जो डॉ. खन्ना के छाया चित्रों के माध्यम से मूर्त हुई थी। और अभी अभी कुछ ही देर पहले मंदिर और वास्तु के शिल्प के जरिए हम एक प्राचीन काल में प्रविष्ट हुए थे - वहां भी सृष्टि का एक क्लासिकल सा बोध हुआ था और जिसने समय चक्र को घुमा दिया था। बिनवा नदी में जल का प्रवाह कम था। प्राचीन विपाशा नदी भी अब कई धाराओं में बंट चुकी थी पर आज भी उन शिल्पकृतियों से काल एक अजस्र धारा के रूप में बहता हुआ हमें सराबोर किए जा रहा था।

इसी के साथ यह लेख सम्‍पन्‍न हुआ.

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

अच्छा संस्मरण