हमारे चिंतक और सौंदर्यबोध शास्त्री रमेश कुंतल मेघ पर हाल में प्रदीप सक्सेना के संपादन में बनास जन का विशेषांक मेघ:सौंदर्य चिंतन के वातायन प्रकाशित हुआ है। मेरा यह लेख इस अंक में शामिल है।
डॉक्टर कुंतल मेघ का कृतित्व विराट है, एक विराट ज्ञानात्मक
अनुसंधान। अनुसंधान किसका? मनुष्य
का, मनुष्य के कृतित्व का, कृतित्व
में समाए उसके संसार का और अपने देश,काल और संसार से मनुष्य
के संवाद का।
न तो मनुष्य की धारणा कोई स्थिर धारणा है और न ही मनुष्य की यात्रा कोई
छोटी यात्रा है। इस प्रदीर्घ यात्रा के निशान अनंत काल की ज़मीन पर छूटे हुए हैं-
जिसकी निशानदेही करने कुंतल मेघ निकले थे - और यों बढ़ते ही चले गए...
जब हम मनुष्य, विभिन्न देश-काल और संस्कृति से संवलित मनुष्य तक पहुँचना
चाहते हैं, उसके भीतर उतरना चाहते हैं, उसके मूल्यों, उसके स्वप्नों, उसके
संघर्षों और पीड़ाओं तक पहुँचना चाहते हैं, तो उन तक पहुंचने
का अगर कोई रास्ता दिख पड़ता है तो वह शायद मनुष्य के कृतित्व से होकर ही तो गुजरता है। समाज एक प्राणी की तरह
ही युगों-युगों से जीता रहा है, अपने
तमाम विचारों, संवेगों के साथ, एक ही
समय में मरता और जीता हुआ। फिर मनुष्य का कृतित्व जो
प्रकृति, समाज और ऐतिहासिक यथार्थ
के बीचोंबीच, और फिर भी उनके
समानांतर, मनुष्य का अपना संसार है। कृतित्व यानी जीवन
और जगत से मनुष्य के सम्वाद का रूप, उसकी अभिव्यक्ति,
उसकी स्वतंत्रता का एक चिलचिलाता क्षण। इस कृतित्व में कितना मनुष्य का अपना है, कितना संसार, परंपरा, विरासत और ऐतिहासिक
शक्तियों का, इन प्रश्नों के
उत्तर भी आसान नहीं हैं। फिर भी मनुष्य की रचनात्मकता
में कुछ तो ऐसा है जहां कई विरोधी प्रतीत होने वाली
चीजें एक रूप, एक आकार पा जातीं है। अपनी तमाम बद्धताओं में, तमाम सीमाओं में, मनुष्य का कर्म, उसका श्रम, उसका
ध्यान, उसका प्रेम एवं कोमलता, करुणा
और समानुभूति जिसमें संचित हो जाती है, वह साकार रूप,
साधारण हो कर भी साधारण नहीं। इसी कृतित्व का नाम कला है। एक होकर भी जो एक अनेकता का अभिधान है।
द्वंद्व न्यायों का समन्वय है और मुनष्य
की तरह ही समय मे गतिमान है।
डॉ. मेघ के अनेक ग्रंथों के नाम याद आते हैं, ‘तुलसी आधुनिक वातायन
से’, ‘क्योंकि समय एक शब्द है’, ‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’, ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’, ‘आधुनिकता
और आधुनिक बोध’, ‘मिथक और स्वप्न’, ‘वाग्मी
हो लौ’, ‘मनखंजन किनके’ .... साहित्य
कृतियों और कृतिकारों पर उनका कार्य, मूर्ति कला, चित्र और वास्तु,
और फिर देशकाल और कलाओं के आर-पार उनका चिंतन। यानी उनकी ज्ञानमीमांसा का दायरा सुदूर अतीत से वर्तमान तक, बल्कि कहना चाहिए भविष्य के स्वप्नों तक पसरा हुआ है। सुदूर अतीत वह प्रागेतिहासिक समय है, जो चेतना की गोधूलि वेला है
जहां वास्तविकता आर्केटाइपल प्रतीकों में ढल जाती है। ये बिंबन मनुष्य बल्कि मानवता की शैशव अवस्था के (आदिम अवस्था) अनुभव पुंज
हैं, प्राथमिक अनुभव हैं, जो सामूहिक
अवचेतन में सुरक्षित हो गए हैं, बिंबों और रूपकों और
रूपांतरणों से बने मिथकों के रूप में। इनके कूटों को खोलने को फायरबाख ने
अवमिथकीयकरण कहा, जहां समाजशास्त्र और नृतत्व के सहारे मनुष्य के अंतर्लोक और मानस के आयाम खोले जा सकते हैं।[1] डॉ मेघ यह कार्य करते रहे हैं
और अपने ‘विश्वमिथक सरित्सागर’ नामक
वृहत् ग्रंथ में तो वे इनके माध्यम से विश्व
(यूनिवर्सल) मनुष्य की धारणा की स्थापना करते हैं।
मिथकों से ढके प्रतीकों को खोलते हुए उनका मानना है कि प्रतीकों के रूप (फॉर्म्स)
तो राष्ट्रीय होते हैं, किन्तु अंतर्वस्तु
(कंटेंट) वैश्वक।
तो सुदूर अतीत से लेकर आज तक मनुष्य की
अभिव्यंजना के रूप और प्रतीक ही तो हैं जिनके निकट
पहुँचने के लिए डॉ मेघ देश और कालों के आर-पार भटकते रहें हैं। इन अभिव्यंजनाओं के शरीर क्या केवल ‘शाब्दी’ या ‘भाषिक’ होते है? शायद नहीं। ‘शब्द’ भी है जब वह साहित्य कृतियों में ढलता है,
संवेग, स्वर एवं ताल में ढल कर वह सांगीतिक
रचना हो जाता है, रंग-रेखाओं और स्थान संयोजन में ढलकर
चित्रकृति और ठोस पदार्थ में दो आयामों से आगे बढ़ कर
मूर्ति। जहां देह ही अभिव्यंजना का माध्यम बन मुद्राओं और गतियों में बात करने लगे
तो अभिव्यंजना नृत्य हो जाती है। इन कलाओं की विशिष्टता के बावजूद इनका एक संश्लेष बनता है, सौंदर्य-अनुभव और अभिव्यंजना इन सभी की धुरी है। अनेक हो कर
भी कहीं उनकी एकता के कुछ मूल बिंदु हैं। सौंदर्यबोध शास्त्र इन्हीं से मुखातिब
होने वाला शास्त्र है। सौंदर्यबोध शास्त्र की परिभाषा करना सरल नहीं रहा, फिर भी यह विभिन्न कोणों से कलाओं की अन्वीक्षा करने वाला शास्त्र है।
कहने को तो एक स्वतंत्र ज्ञानानुशासन के रूप में यह एक नया शास्त्र है पर वास्तव में इसका इतिहास पुरातन
है- और कालक्रम में इससे जुड़े प्रश्न, विषय और उद्देश्य भी कमोबेश बदलते रहे। इसके विराट दायरे में दर्शन, विज्ञान
और मानविकी का समाहार था और यह खासा अमूर्त और फ्लूइड भी रहा। यूनानी दार्शनिकों
और पायथागॉरियन चिंतकों ने इसे दर्शन का अंग माना जो जीवन का एक पूर्ण चित्र दे, फिर यह कलाओं के अनुभव से जुड़ कर काव्यशास्त्र और सौंदर्य की प्रकृति से
जुड़ गया (अरस्तू)। कभी यह नैतिकता के करीब था (सुकरात)।
कभी प्रकृति और कला के संबंधों की परख कर रहा था (लियोनार्डो
डा विंची) या कला की कसौटियां रच रहा था (बॉयल्यू Boileau) या
संसार की ऐन्द्रीयिक समझ और संज्ञान का विश्लेषण था (बॉमगार्टन) या फिर कला और कला
में सुंदर की तलाश।
डॉ मेघ के शब्दों में- ‘यह विषय व्यापक तौर पर साहित्यशास्त्र
और काव्यशास्त्र से आगे सौन्दर्यबोधशास्त्र कहलाया जिसमें अनेक प्रकार की कलाएँ और
कौशल, विधाएँ और विलास शामिल हो गए। इस संश्लेष में नेत्रों,
कानों, नासिका, जिह्वा,
त्वचा की संवेदनाएँ और आवेश भी शामिल हो गए। अतः पंचेन्द्रियों के
उत्सवों से युक्त नाना कलाओं – विधाओं - सहित्यरूपों
का महाशास्त्र ही सौन्दर्यबोधशास्त्र की संज्ञा पा गया।’[2]
·
अब आइये, ज़रा भारतीय परिदृश्य में सौंदर्य या कला चिन्तन का जायज़ा
लें। ईसा की दूसरी या तीसरी शताब्दी में भरत का नाट्यशास्त्र,
जिसे नाट्यवेद कहा गया था, भारतीय कला-चिंतन
की बुनियाद है- क्योंकि इसमें नाट्य ही नहीं, काव्य, संगीत, भाषणकला,
तथा मुरली वादन जैसी लिरिकल कलाओं की भी सूक्ष्म मीमांसा हुई थी। (डॉ मेघ) उसके बाद ईसा की छठी सदी में भामह, आठवीं सदी में दंडी, फिर रुद्रट और वामन आते हैं, जिसे कला की देहवादी परंपरा माना जाता है। इसी
दौरान शिल्प पर विष्णुधर्मोत्तर पुराण, एवं अग्नि पुराण में
चित्र एवं अन्य कलाओं की भी चर्चा थी। वात्स्यायन के कामसूत्र में भी नागरक के
संदर्भ में कला और कौशलों की सूचियां थीं। कामसूत्र की टीका लिखने वाले यशोधर ने चित्र कला के षडंगों की चर्चा की थी- रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य, सादृश्य एवं वर्णिकाभंग। संगीत और वास्तु विषयक शास्त्र भी थे ।
इन अलंकार शास्त्रीय ग्रंथों की दूसरी परंपरा में (8वीं से 11वीं सदी) जिन्हें मध्यकालीन शास्त्रीय
चिंतन कह सकते हैं, भट्ट लोल्लट, श्रीशंकुक, भट्टनायक, आनंदवर्धन एवं अभिनवगुप्त के ग्रंथ आते हैं। इनमें काव्य
के सारत्व या आत्मा की चर्चा होने लगती है। यह थे तो
काव्य शास्त्रीय ग्रंथ लेकिन इन सिद्धांतों को दृश्य कलाओं पर भी लागू किया जा
सकता था। इनमें आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त थे, जिन्होंने कला
की दैहिक, शास्त्रीय और व्यावहारिक चर्चा को लगभग दार्शनिक
बना दिया। लेकिन फिर भी था यह सब कुछ भरत की बनाई नींव पर ही। कलाकृति के वस्तुगत रूपों का विश्लेषण एक बात है, लेकिन जब विश्लेषण सौन्दर्यानुभव का होने लगा तो अनुमानों
और कल्पनाओं का बढ़ना स्वाभाविक ही था।
आधुनिक समय में पदार्पण करने पर दृश्य
खासा बदला हुआ है। हमारी स्वयं और पूरे विश्व की भी भारतीय कला के विषय में जो धारणा बनी- वह अतीत के उन कला अवशेषों के पुनरुद्धार के कारण ही
बनी, जो कि सदियों तक भूमि की गहराइयों में सुप्त पड़े रहे। या
फिर साहित्य ग्रंथों में अनदेखे पड़े रहे। कुछ सामंतकाल और अर्धसामंत काल के दरबारों का बचा पर वह भी धुंधलके में ग़ुम गया। ग्राम एवं
कबीलाई रूप एवं कलाएँ भी पश्चिमी व्यापारिक अर्थव्यवस्था की मार से प्रभावित हुईं।[3] अवनींद्रनाथ टैगोर
उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश एवं यूरोपीय प्राच्यवादियों
की एक पांत है जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्स और सर विलियम जोन्स की परम्परा में
भारतीय धर्म, दर्शन एवं साहित्य
पर तो बात की पर दृश्य कलाओं के संदर्भ में वे निरुत्साहित ही रहे। भारतीय कला कभी
उन्हें विकृत, कभी ग्रोटेस्क, कभी विचित्र प्रतीत हुई। अनेक हाथों और सरों वाले देव और देवियां उनके लिए
अजब थे। (रोजर फ्राई, क्लाइव बेल, विन्सेन्ट स्मिथ) उनका ख्याल था कि भारतीय कला मानवीय भावों को व्यक्त कर ही नहीं सकती। गर उन्हें कहीं सार दिखा भी तो केवल ग्रेको-रोमन कला में ही।
भारतीय परंपराओं, उसके उद्देश्यों, उसके स्वभाव और
चरित्र से उनकी पूर्ण अनभिज्ञता ही इसकी वजह थी। 19वीं सदी के मध्य तक
आते-आते भारतीय रचनात्मकता जड़ होने लगी थी। अग्रेज़ी
भाषा, साहित्य, विचारों और
संस्थाओं के कारण आए बदलावों के कारण भारतीय भद्रलोक की अभिरुचियाँ और दृष्टिकोण बदल रहे थे। जिसे हम नागर अभिजन कहें-वह
काफी कुछ बदल गया था, क्योंकि अतीत के जो अवशेष उनके सामने
थे भी, उन्हें भी उनकी आंखें देख
नहीं पा रहीं थी।[4] रवींद्रनाथ टैगोर
और जो गरीब जनता आदतवश इनसे जुड़ी थी उनके पास तो उस के संरक्षण के कोई साधन
कभी थे नहीं। अतःप्राच्यवादियों ने धर्म, दर्शन साहित्य को टटोला और कलकत्ता में ‘एशीयाटिक सोसाइटी’ की स्थापना हुई, अभिज्ञान
शाकुन्तल के अनुवाद हुए जिस पर गोएथे दिलोजान से फिदा थे। कोई एक-आध रोडिन जैसा था
जो नटराज की प्रतिमा देख कर स्तब्ध हुआ था। फिर भी अगर भारतीय दर्शन की प्रशंसा हुई भी तो उसकी कल्पना की ऊंचाई, सौंदर्य
प्रभाव, और मानव मूल्यों के लिए नहीं हुई।
राष्ट्रवाद के क्रमिक विकास के साथ राष्ट्र की कला-विरासत का भी पुनर्मूल्यांकन शुरू हुआ। बंगाल कला निकाय के अवनींद्र नाथ टैगोर और नंदलाल बोस इससे जुड़े थे। दूसरी ओर भारतीय बुद्धिजीवी का मानस निरंतर पश्चिमी विचारों से आकार पा रहा था। और यों इन्हीं दो विरोधी दिशाओं की जोड़ाई से पुनर्मूल्यांकन घट रहा था।
भारत की जो छवियाँ बनाई जा रहीं थीं वह एक, रहस्यवादी, भाववादी, पारलौकिकता में विचरते भारत की थी। दूसरी
आकर्षक छवि थी भारत की अकूत धन सम्पदा और रोमानीपन की, तीसरी
छवि सीधे-सादे धर्म प्राण ग्रामश्री वाले भारत की थी और चौथी छवि उन साधुओं-संन्यासियों, फकीरों दरवेशों की थी जो समाज
से कटकर, लौकिक जीवन से अलग-थलग खड़े
थे। यह छवियाँ पूरी तरह गलत नहीं थीं तो पूरा सच भी नहीं
थीं। वे अंश को ही पूर्ण मान लेने की भ्रांति से ग्रस्त थीं।[5] भारत तब भी अनेकताओं का देश
था। दर्शन का आधार भी लें तो भी भारत में केवल वेदान्त
या अद्वैत दर्शन ही न था, दूसरे भी थे (षड्दर्शन)।
लेकिन भारतीय बुद्धिजीवी अपनी जड़ों से कट चुका था अतः उसे ये विचार इतने
बुरे न लग रहे थे- वे इस पर गर्वित होने लगा था। उसने अध्यात्मवादी भारत और भौतिकतावादी पश्चिम की इन श्रेणियों को स्वीकार कर लिया था। बंकिमचंद्र चटर्जी और रवीन्द्र नाथ टैगोर भी कुछ हद तक इसकी ज़द में रहे।
इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि
में उभरे ई. बी. हैवेल एवं आनंद केंटिश कुमारस्वामी, माइकल
मधुसूदन दत्त आदि। सुदूर दक्षिण में भारतीय और तत्कालीन
अंग्रेज़ी कला परंपराओं से अछूते राजा रवि वर्मा तैल
रंगों में अंग्रेज़ी नैरेटिव चित्रों और शबीह को एक
किस्म के अकादमिक यथार्थवाद में ढाल रहे थे। लेकिन
भारतीय मिथकों और निजंधरों के अंकन में भारतीय अन्तर्वस्तु
और प्राणमयता लुप्त सी थी।
इस परिदृश्य में हैवेल और कुमारस्वामी ने अपनी आवाज़ बुलंद की। हैवेल की
सौंदर्य दृष्टि पैनी थी और मद्रास और कलकत्ता में
कला शिक्षण करते हुए वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता, धर्म और
दर्शन के रूबरू भी हुए थे। उन्होंने मुख्यतः वैदिक, औपनिषदिक एवं बौद्ध दृष्टियों को पढ़ा था
और भारतीय कला कृतियों का अध्ययन भी किया था। लेकिन फिर भी वे भी उसी भ्रांति के शिकार हुए कि भारत का मानस
और सांस्कृतिक दृष्टि धार्मिक, आध्यात्मिक और जीवन से परे
देखने वाली है। उन्हें लगा कि भारतीय सौन्दर्यबोधशास्त्र का उत्स ट्रांसीडेंटल
दर्शन में खोजा जा सकता है। उन्होंने भारतीय कला पर, कलाकार
पर इसी दृष्टि से लिखा। वे मानो पश्चिम के लिए भारत की कला-दृष्टि के प्रबल प्रवक्ता बने। दूसरी ओर अंग्रेज़
माता और सिंहली पिता की संतान आनंद केंटिश कुमारस्वामी अंग्रेज़ी समाज की श्रेष्ठ
अकादमिक परंपराओं में प्रशिक्षित थे। एशिया के कुछ भागों और भारत में राष्ट्रवाद
के ज्वार में विज्ञान को तज वे भारत के आध्यात्मिक चिंतन को भारतीय कला में तलाशते रहे। बहुत गहरे श्रम से वे अपने स्रोत अनेक भाषाओं, पुरातत्व,
इतिहास, धर्म और आध्यात्म में खोजते रहे। अपने
पूर्वजों की धरती के प्रति उनमें एक गहरा नास्टेल्जिया था कि इस तरह उससे जुडने में वे प्राणपण से जुट गए।[6]आनंद कुमारस्वामी
●
अब इस सब के बीच से एक अहम सवाल यह उठता है कि अगर कलाशास्त्र एक स्वतंत्र
ज्ञानानुशासन है, तो कलाकृति के अपने कलामूल्य और सौंदर्य मूल्य भी तो होंगे,
फिर वह कृति चाहे सहित्यकृति हो, शिल्पकृति हो, सांगीतिक रचना हो, चित्रकृति
हो या नाट्यरचना। उसका विमर्श केवल धार्मिक, प्रतीकात्मक
या बुद्धिजीवी किस्म का कैसे हो सकता है। कला की भाषा कोई बौद्धिक भाषा नहीं,
बल्कि इन्ट्यूटिव (intuitive) संज्ञान वाली होती है जो अनुभूति और अनुभव से
दीप्त रहता है, अतः वास्तविक जीवन
से भी। पारंपरिक भारतीय कला जिसे
हम धार्मिक की श्रेणी में रख देते हैं, है तो वह भी
अनिवार्यतः मानवीय ही, मानवीय इन्द्रियों और संवेदनाओं के
स्तर पर निवास करती हुई। उदाहरण के लिए शिव की छवि, या बुद्ध प्रतिमा या फिर भारतनाट्यम का एक नृत्यखण्ड...। है तो उसकी भाषा भी ऐन्द्रीयिक
ही। वह भी अनिवार्य मानवीय अपील और महत्व से मंडित ही
है। लेकिन आधुनिक शास्त्रीय व्याख्याओं ने बदकिस्मती से इस केंद्रीय अर्थ को नहीं पहचाना। एक कलाकृति या शिल्पकृति को केवल धर्मशास्त्रीय इलस्ट्रेशन या किसी निजंधर या प्रतीक
में ही समेट लेना क्या कला का प्रकार्य है? इनमें यह तत्व हो सकते हैं, पर पूरी व्याख्या की धुरी का सन्दर्भ यही कैसे हो सकता है? देखना
होगा कि कलाकृति के रूप में वह कैसी है, हमारी इन्द्रियों,
हमारे मानस के साथ वह कैसे सम्वाद करती है, उनमें
कोई मानवीय भावदशाएँ, अनुभूतियाँ और संवेग हैं जो मानवीय अनुभव को अंततः ज्यादा व्यापक और गहन बनाते हैं, उन्हें कृति कैसे साकार करती है।
अर्थात कला की अन्वीक्षा को मानवीय, सामाजिक और रूपपरक दृष्टि से रखना ही शायद पहली शर्त होगी। उसमें अपने समय की, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आकृतिबन्ध की व्यवस्था भी होगी जो कलाकृति का
वृहत्तर परिपाठ या कॉन्टेक्स्ट हो सकता है। उसमें डूबकर
निर्वचन व्यापक सत्यों को भी
खोल सकेगा।माइकल मधुसूदन दत्त
●
डॉ मेघ ने यही महनीय कार्य किया है कि 'अथातो सौंदर्य जिज्ञासा'
नामक अपनी पुस्तक में सौन्दर्यबोधशास्त्र के तरल ज्ञान-अनुशासन को ठोस आकार दे दिया है। उसकी महत्तम परिसीमा तय कर दी है
जिसके भीतर कला और उसकी प्रक्रिया के तमाम अनिवार्य
अनुषंग समेट लिए हैं। और उन तक पहुँचने की प्रविधि भी बतलाई है। यानी एक स्वतंत्र शास्त्र की सम्पूर्ण रूपरेखा को स्थिर करने का प्रयास। यह शुद्ध सिद्धांत निर्माण का क्षेत्र है, एक बेहद कठिन डगर। एस्थेटिक्स पर पश्चिम में तो खूब मनन हुआ है पर हमारे देश में वह अस्वीकृत
सा ही रहा है। या तो उसे कलावाद और बूर्ज्वा कह कर ठुकरा दिया जाता है, या फिर दार्शनिक व्यायाम। इस विषय में,
और इसकी जरूरत के विषय में भ्रांतियां छाई हुई हैं।नंदलाल बोस
‘अथातो सौंदर्य जिज्ञासा’ में दस
अध्याय हैं। पहला अध्याय ‘कला, सौंदर्य
और सौन्दर्यशास्त्र’ है तथा अंतिम ‘संस्कृति,
मनुष्य और इतिहास’। यह सबसे बाहरी और व्यापक फ्रेम है। इसमें कला और आशंसा का रिश्ता वृहद स्तर पर सक्रिय होता है। इस व्यापकतम परिवृत्त के भीतर कलाकृति, कलाओं का
वर्गीकरण, कलाकार, आशंसक और
सृजनप्रक्रिया, अभिव्यंजना और सम्प्रेषण और सौन्दर्यबोधानुभव
पर अध्याय हैं। यहां शास्त्र
का पूरा वास्तु गढ़ा गया है। पहले अध्याय में कला चिन्तन की विराट ऐतिहासिक विरासत उभरती है- कला के चरण, कलाचिन्तन की तीन दृष्टियां यानी कला कला की भावना,
कला-प्रक्रिया और कला-प्रभाव के रूप में देखी जाती है।
सौंदर्य
की खोज प्रकृति एवं कला दोनों में की गई है। सौंदर्य की अवस्थिति कहां है, यह दार्शनिक विवाद भी आकार ग्रहण करता है। लेकिन डॉ मेघ के चिंतन के शिखर
तो वे महान प्रश्न एवं जिज्ञासाएं हैं जिन्हें द्वन्द्वात्मकता, समांतरता, अंतर्विरोधों को समन्वित करते हुए वे
मानव-मेधा, संस्कृति और इतिहास के सम्मुख अपनी खास शैली में,
बेहद सच्ची आकुलता से उठाते हैं।
‘मनुष्य कलाकार है तो भौतिक और प्राकृतिक शक्तियां भी कहां किसी कलाकार से
कम हैं। वे भी तो बेहद सुंदर रूपों को आकार देती हैं। विज्ञान प्रकृति की इसी कला का
अनुसंधान करता है।’ अत: कुंतल मेघ विज्ञान एवं कला का
द्वन्द्व-न्याय रचकर अंतिम ध्वनि में उन्हें समन्वित भी कर डालते हैं। रूप के
तत्वों अर्थात् अनुपात, संतुलन, कंट्रास्ट,
सिमेट्री को वे वनस्पति जगत और प्राणी जगत में भी घटाकर दिखाते हैं।
वे ‘मैथेमैटिक्स ऑफ ब्यूटी’ की झलक
दिखलाते हैं और सौंदर्य और विज्ञान का समतोलन कर देते हैं।
‘कलाकृति’ के अध्याय में केवल साहित्य कृति नहीं,
बल्कि तमाम कलाओं के संदर्भ आते हैं। कलाकृति को वे कलाभवना, कलासृजन, काला आशंसा, और तमाम
सौन्दर्य मूल्यांकन की केंद्रीय धुरी करार देते हैं। कला अनुभव मे और कलाकार मे भी, रूप और अंतर्वस्तु अविभाज्य होते हैं। ये कलाकृति के रूप और
अन्तर्वस्तु की एकता ही है जिसके अगर तीन आयाम माने जाएं तो इन्द्रिय बोधों के
सम्मुख प्रस्तुत होने वाला आकार या गठन कृति का रूप तत्व और अर्थ का, गहराई वाला आयाम जो संवेद्य और बुद्धिगम्य है, अन्तर्वस्तु
है। रूप केवल दृश्य कलाओं का ही विषय नहीं। लेकिन हर कला मे वह भिन्न तरह से आता है। जैसे रूप में कई तहें और चरण हैं,
तो अर्थ भी सूचनात्मक, भावात्मक, प्रतीकात्मक और सौंदर्यपरक होता जाता है। पूरा अध्याय चित्र, संगीत और वास्तु पर अद्भुत अन्तर्दृष्टियां प्रदान करता है। लगभग गणितीय
ढंग से हर कला मे वे रूप और अंतर्वस्तु की दूरी मापते हैं। राजा रवि वर्मा
फिर
‘कलाकार’ की धारणा की भी बारीक तहकीकात फ्रायड,
जुंग, एडवर्ड सेपीर, मैलिनोवस्की,
रेडक्लिफ ब्राउन और रूथबेनेडिक्ट जैसे नृतत्वशास्त्रियों के सहारे
उन्मीलित होती है।
और
फिर अवतीर्ण होता है एस्थेटिक्स के क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे रहस्यमय
प्रश्न- अर्थात् सृजन प्रक्रिया। विभिन्न कृतियों, महाकाव्यों,
कविताओं, वास्तु भवनों, मूर्तियों
का निर्माण कैसे होता है – क्या इसका कोई एक खाका खींचा जा सकता है? विभिन्न कलाओं के संदर्भ में चेतन-अवचेतन की भूमिका, करने और होने की द्वन्द्वात्मकता, इन्द्रियों,
मन, बुद्धि की सम्पूर्णता (स्नायु-संस्थान,
मस्तिष्क और मांसपेशियों के आपसी संबंध भी) मनोविज्ञान, दर्शन, सौंदर्यबोधशास्त्र – सहित अनेक विज्ञान
शाखाएं इस रहस्योन्मीलन में लगी हैं।
कला
के अन्य घटकों की तरह अभिव्यंजना एवं सम्प्रेषणीयता की व्याख्या भी लगभग सभी कलाओं
के संदर्भ में की गई है। प्रेषणीयता को संकेत विज्ञान (सिमियॉटिक्स) के सहारे अनेक
कलाओं में घटाया गया है।
सौंदर्यानुभव
के अध्याय में बदलते सौंदर्यानुभवों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। उदाहरण
के लिए नाटक के संदर्भ में भरत का रस सूत्र, ब्रेख्त का
एपिक थियेटर, बैकेट और आयेनेस्को का ‘एब्सर्ड
थियेटर’ और ज्यां जेने के एंटी थियेटर के रूप देखे जा सकते
हैं। इतिहास-क्रम में उनके सामाजिक उत्सों को खोजा गया है। संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, प्रेक्षण, भावना,
चिंतन की सीढ़ियां यहां भी चढ़ी गई हैं।अथातो सौंदर्य जिज्ञासा
कह
सकते हैं कि कुंतल मेघ का यह मेघवर्णी विवेचन हर धारणा के भीतर छिपे बारीक तंतुओं, रज्जुओं, संबंधों को उन्मीलित करने वाला विवेचन है –
जहां हर रहस्य अनेक विरोधाभासों की पकड़ में खुलता है। यह पुस्तक सौंदर्यबोध
शास्त्र की गंभीरतम संहिता है – जिसमें एक ओर अब तक के तमाम सौंदर्य चिंतन का
वृहद् फलक पर समाहार हुआ है, वहां इस परंपरा से आगे प्रस्थान
एवं नए प्रयाण, नई प्रतिपत्तियां, नई
दृष्टियां भी रखी गई हैं। एक सम्पूर्ण शास्त्र, एक सम्पूर्ण सिस्टम का निर्माण भारतीय
सौंदर्यशास्त्र के लिए एक अनुपम योगदान है। लेकिन अवदान इतना ही नहीं है कि
उन्होंने कला के जिज्ञासुओं के हाथ में एक सुनिश्चित शोध अभिकल्प और संयत्र थमा
दिया है, सिद्धांत निर्माण के साथ साथ उन्होंने निरंतर
सौंदर्यबोधशास्त्रीय आलोचिंतना के अनुप्रयोग भी तो किए हैं।
·
अब
क्यों न उनकी सौंदर्यबोधी दृष्टि की विशिष्टता की बात करें जिसका आधार ऐतिहासिक
द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन रहा है – उनका तमाम लेखन सूक्ष्म स्तर पर इसी उपागम
का महती अनुप्रयोग है। यह आधारशिला है – जिसकी दीप्ति उनके लेखन में, विश्लेषणों में हर जगह है – फिर वह चाहे आधुनिकता पर उनका लेखन हो,
एक सुदीर्घ इतिहास में, हिन्दी साहित्य के विभिन्न कवियों (सिद्धों से
लेकर सूरदास, तुलसीदास, मीरा, महादेवी और प्रसाद आदि) रीतिकालीन साहित्य हो, आधुनिक
साहित्य की कृतियां और कृतीकार हों। और यही क्यों, उनका
मानना है कि अन्य कलाओं की कृतियों में भी कला की अविरल मानवीय अपील को रेखांकित
और संबोधित किए बगैर सौंदर्यबोधी- कला-चिंतन अधर में लटका रहेगा। अत: इसके हित
सौंदर्यबोध शास्त्र और समाज दर्शन का आमना-सामना करना ही होगा – तभी कला और जीवन
का तादात्म्य फलित होगा –
‘इसीलिए अजंता के चित्रों में शृंगार करती हुई युवती और दैनिक लौकिक जिंदगी
में शृंगार करके खड़ी हुई अपनी प्रिया के प्रति प्रतिबोध में सौंदर्यबोध शास्त्र फर्क
न कर सकेगा। हमारे लौकिक जीवन में घटी हुई त्रासदी तथा
भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ में राम की त्रासदी के मानवीय गुणों का समान महत्व हो
जाएगा। इस तरह कलामय जीवन तथा जीवनयुक्त कला एक जैसे प्रत्यय बन सकेंगे।’[7] अत: उनके अनुसार सौंदर्यबोध का सही आधुनिक संदर्भ होगा
– पहले साहित्य और कलाओं का कांत संयोग,
तदुपरांत कला-साहित्य और जीवन की द्वन्द्वात्मक एकता ।
दूसरा महत्वपूर्ण प्रयाण कला एवं कलाकृति को उसके
अनिवार्य सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिपाठ (context) में समझने का भी है – उसके सामाजिक उत्सों की तलाश से वह
सम्पन्न होगा। डॉ. कुंतल मेघ ने जब भी किसी कृति का, कृती
कलाकार की कला भावना का डीकन्स्ट्रक्शन किया है – सदा देश, काल, संस्कृति
से जोड़कर ही। कला की संरचना के रूप भी समाज के जटिल यथार्थ से दीप्त होते ही हैं।हमारी प्रति
‘यूनान में त्रासदी की संरचना के पीछे वहां के यथार्थ
जीवन एवं इतिहास की आतंकपूर्ण यथार्थता थी – जिसके कारण दुर्भाग्य देवता (नेमेसिस)
कुलीन नायक को एक हेमार्शिया (कोई बड़ी भूल) की ओर धकेल देता है। दूसरी ओर आर्य
गोत्रों की ऋचाओं में ‘स्वस्ति’ का अभिषेक हुआ था – आर्यों का ‘ऋत’
(नैतिक व्यवस्था) के मंगल पक्ष पर प्रबल विश्वास था’[8] – अत: यहां जो नाटक का आकृतिबंध उभरा उसमें हत्या का
आतंक या त्रासदी के भाव न थे।
तीसरी
बात जो उनके इतिहास बोध से ही उपजती है कि तथाकथित भौतिकवादियों की तरह डॉ मेघ कभी इतिहास का परित्याग नहीं करते – और न
ही उसका पुनरुत्थान करते हैं। वे न तो इतिहास के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त हैं – न
उसके अंधभक्त। तभी वे इतिहास दर्शन के सच्चे अन्वेषक हो पाए हैं। कहते हैं कि ‘इस के
लिए आवश्यक है कि हम नए ज्ञान औजारों का इस्तेमाल करके (सामाजिक विज्ञानों की
सहायता से) उसका पुनर्मूल्यांकन करें। नहीं तो कलाशास्त्रों की इतनी ज्योतिर्मयी
परंपरा का अतीत हमसे छिन जाएगा।’[9] भारतीय सौंदर्यबोध के संदर्भ मे यही हुआ है की या तो
वर्तमान से विछिन्न हो हम अतीत मे लुक छिप जाते हैं या फिर उसे सिरे से ही नकार
देते हैं।
फिर
गतिमान सभ्यता का हर चरण ज्ञान के संधान में अपने लिए विचार के नए औजार और नयी
ज्ञान शाखाएँ जोड़ता आया है। जैसे जैसे ज्ञान का क्षितिज व्यापक होता है वैसे वैसे
साधक और जिज्ञासु का मानस क्षितिज भी तो
विस्तार पाता है। डॉ. मेघ चूंकि सुपरिगठन के, संस्कृति
के रहस्यों के साधक हैं – वे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के ‘सहवर्तन’ में
विश्वास करते हैं, तभी तो उनके निर्वचन में समाज विज्ञान, नृतत्वशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, पुरातत्व, राजनीति
और दर्शन शास्त्र ही नहीं – भौतिकी, रसायनशास्त्र,
जीवशास्त्र,
चिकित्सा के अलावा सायनेटिक्स और सायबरनेटिक्स जैसी अधुनातन
प्रशाखाएं भी शामिल हैं। वे आवश्यकतानुसार उनके दृष्टिबिंदुओं और औजारों का प्रयोग
करते हैं। इसे लोगों ने घटाटोप भी कहा है- पर है यह सत्य की समग्रता तक पहुंचने का
आधुनिक मार्ग ही । वे मानते हैं ज्ञान के समाजशास्त्र का सहस्रदल कमल अक्सर तीन
ढंग से खिलता है। (अ) परस्पर व्यवहार द्वारा (आ) शब्दों के रजिस्टरों की अदला बदली
से (इ) रूपकों के अंतरबंधन से।[10]
चूंकि
सौदर्यबोधशास्त्र स्वयं कलाओं का संश्लेष है तो सौंदर्यबोधशास्त्रीय शोध की
प्रकृति भी अंतर्कलानुशासनो वाली और
तुलनात्मक होगी ही। कम से कम दो या उससे अधिक कलाओं का ‘मिलवर्तन’ किसी कलात्मक शोध को सौंदर्य बोधशास्त्रीय शोध में
रूपांतरित कर सकता है ।
जैसे
सौंदर्यबोधशास्त्र को लेकर एक भ्रांति यह रही है कि यह मात्र अनुभूति केंद्रित है
– यानी नितांत वैयक्तिक है- अत: ज्ञानानुशासन नहीं बन सकता, वहीं
दूसरी ओर दार्शनिक अमूर्तनों के चलते यह धारणा भी है कि यह ठेठ शुष्क बौद्धिक
तर्कजाल है। उसी तरह एक दूसरी भ्रांति ‘सौंदर्य’ शब्द को लेकर यह भी छायी रही है कि यह केवल सुखकर या
सुखात्मक अनुभूति ही है। कैसे यह हम भूल गए कि पारंपरिक भारतीय काव्यशास्त्र में
भी स्थाई भावों और रसों की जो गणना हुई है – उसमें
यह बात पहले से विद्यमान है – श्रृंगार के साथ-साथ वीभत्स है, रौद्र
भी, करुण भी। और यह सब ‘आनंद’ या रस
में ही समाहित है – आनंद का अर्थ क्या ‘हर्ष’ है?
बिल्कुल भी नहीं – यह तो वास्तविक लौकिक अनुभवों से कुछ भिन्न मानसिक कला अनुभव
है। मानवीय भाव दशाओं की रेंज नौ रसों में भी काफी व्यापक है और फिर यह भी कभी
दावा नहीं किया गया है कि यह अंतिम है – इतिहास, सभ्यता, संस्कृति
के बढ़ते कदम इन्हें बदलते भी हैं – इनमें नए-नए भाव जोड़ते भी हैं। उसी तरह
सौंदर्यबोध शास्त्र के परिवृत्त में असुंदर, आतंकपूर्ण, कुरूप, कुत्सित
और किमाकार को भी स्थान प्राप्त है।
डॉ.
मेघ सच ही तो कहते हैं कि कलाओं और उनमें भी दृश्य कलाओं को लेकर ‘दृश्य
अनपढ़ता’ का गहरा सूनापन पसरा है। चित्र, मूर्ति
और वास्तु की औसत समझदारी भी हम हासिल नहीं कर पाए। तब इतनी विशाल विरासत तथा
धरोहर हमें क्या दे पाएगी? फिर
नग्नता और काम को लेकर भी हमारी दृष्टि में विकार आ चुका है। पारंपरिक कला की
दृष्टि हमसे ज्यादा स्वस्थ थी।मेघ अंक
विचारों
का इतिहास इस तरह नहीं लिखा जाता कि विचारधारात्मक अंतरों को हम सुनना ही न चाहें।
भारतीय दार्शनिक ग्रंथों में एक अद्भुत तरीका था – पहले पूर्वपक्ष को प्रस्तुत
किया जाता – फिर उसका खंडन-मंडन करते हुए अपनी स्थापनाएं रखी जाती थीं –
पूर्वग्रंथों पर टीकाएं और भाष्य लिखकर भी उन्हें अपने रंग में ढाल लिया जाता था –
इस तरह दार्शनिक विवाद का जो क्रम चलता था वह शताब्दियों तक को समेट लेता था
(मध्ययुगीन रसदर्शन और समकालीन सौंदर्यबोध की प्रस्तावना)। हर दार्शनिक यही करता
है – भट्टलोल्लट का विरोध श्री शंकुक करते हैं और मीमांसा दृष्टि को न्याय दृष्टि
में ढाल देते हैं,
श्री शंकुक का विरोध भट्टतौत और भट्टनायक करते हैं .... मध्यकालीन
कलाशास्त्रीय इतिहास लेखन की यह तरकीब रही है कि इसमें विरोध को कभी अनुचित नहीं
माना जाता बल्कि एक अनवरत संवाद चलता रहता है।
कलाओं
के विषय में उनकी आंखें एक स्वप्न देखती हैं जैसे-जैसे धीरे-धीरे एक गुणात्मक परिवर्तन
घटित होगा, समाज बदलेगा – कलाओं का संसार भी नागरक और मध्यवर्ग से
उतर कर जन-जन के अनुभवों का वाहक होगा – सौंदर्य के रूप बदलेंगे, धारणाएं
विकसित होंगी – और तब सौंदर्य भी रति और शोभा की बंद सीपियों से मोती की तरह बाहर
आकर कर्म एवं विचार से जुड़ जाएगा।
[1] देखिये
रमेश कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली : नेशनल
प्ब्लिशिंग हाउस, 1980) पृष्ठ– 316-17
[2] रमेश
कुंतल मेघ, अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (नयी
दिल्ली : द मैक्मिलन कंपनी आफॅ इंडिया लि., 1977)
(प्रस्तावना)
[3] निहार
रंजन रे, एन अप्रोच टू इंडियन आर्ट (चंडीगढ़
: पब्लिकेशन ब्यूरो, पंजाब यूनिवर्सिटी, 1974) पृष्ठ-1
[4] वही,
पृष्ठ- 3 से 5
[5] वही,
पृष्ठ- 9
[6] वही,
पृष्ठ- 12 से 16
[7] रमेश कुंतल
मेघ, अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (नयी
दिल्ली : द मैक्मिलन कंपनी आफॅ इंडिया लि. 1977) (प्रस्तावना)
[8] देखिये
रमेश कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली :
नेशनल प्ब्लिशिंग हाउस, 1980) (भूमिका)
पृष्ठ– 19
[9] रमेश
कुंतल मेघ, मध्ययुगीन रसदर्शन एवं सौंदर्यबोध (नयी दिल्ली,
राधाकृष्ण प्रकाशन, 2012) (मुखबंध)
[10] देखिये रमेश
कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली : नेशनल
पब्लिशिंग हाउस, 1980) (भूमिका) पृष्ठ– 29