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बुधवार, मई 07, 2025

शिल्प और काव्यकला : परस्पर संवाद

 

 


शिल्प और काव्यकला : परस्पर संवाद

शिल्प और काव्यकला के बीच परस्पर संवाद करता हुआ यह पत्र पिछले वर्ष यानी 2024 में कविता मुंबई की संगोष्ठी में प्रस्तुत किया गया था। यह उनकी पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ है।  


कभी सोच के देखें कि तरह तरह की कलाओं का अस्तित्व आखिर है ही क्यों। क्यों नहीं कोई एक ही कला सब कुछ समेट ले । लेकिन यह सम्भव नहीं दिखता। विभिन्न कलाओं के होने का कारण ही शायद यह है कि यह जीवन इतना परिपूर्ण, इतना समग्र है, उसमें इतने आयाम हैं, इतने पक्ष हैं कि हर कला अपने विलक्षण अंदाज़ में जीवन की व्याख्या अपने निजी ढंग से करती है। जीवन के सार तत्व को अपनी अपनी विशिष्ट भाषा, निजी व्याकरण में ढालती है। यह दुनिया तो एक ही है पर उसी एक दुनिया में संगीतज्ञ संगीत के संयोजन सुना करता है, चित्रकार रंग-वर्णों के संयोजन देखा करता है, रेखाओं के साथ बहता रहता है। हर कला  इसीलिए बेहद ज़रूरी है कि वह ऐसा कुछ मौलिक अनुभव देती है, जीवन का विशिष्ट सौन्दर्यबोधात्मक दर्शन कराती है, संज्ञान कराती है, और कल्पना को उद्भुद्ध करती है जो उस रूप में दूसरी कला नहीं कर सकती। और यों सब कलाएँ मिल कर ही इस जीवन की समृद्धि और जटिल सौंदर्य को प्रतीकित करती हैं, रचती हैं।

लेकिन फिर इन कलाओं  में आपसी रिश्ते भी हैं, साम्यताएँ भी हैं, इनमें परस्पर सम्वाद भी होता है, आपसी आकर्षण और प्रतिस्पर्धाएँ भी हैं, आंतरिक नज़दीकियाँ और दूरियाँ भी हैं। भारतीय कला-परंपरा में भी अक्सर कुछ कला युग्म मिलते हैं जैसे काव्य-चित्र, काव्य-संगीत, काव्य-नाट्य, शिल्प और वास्तु, चित्र एवं शिल्प इत्यादि।  यानी हर कला किसी न किसी बिंदु पर दूसरी में प्रवाहित हो जाती है। कब कोई इम्प्रेश्निस्ट चित्र अपने वर्णों के सामंजस्य में, हारमनी में, संगीत हो जाता है, और फिर कितनी भी मूर्त कला हो, शायद हर कला संगीत की तरह अमूर्त होने की कामना रखती ही है। शिल्पकला को शायद इसीलिए ‘फ्रोजेन म्यूजिक’ कहा जाता है।

तो जब मैंने अपना प्रदत्त विषय पढ़ा, अर्थात मूर्ति और काव्य के सम्बंध.. तो मैं एकबारगी अचकचा गई। पहली नज़र में यह लगा कि ये दो कलाएँ तो ललित कलाओं के स्पेक्ट्रम में, उनके विस्तार में काफी दूर दूर हैं- लगभग दो सिरों पर, बल्कि ध्रुवों पर खड़ी हैं। लेकिन जब सोचना शुरू किया तो लगा कि यद्यपि दूरी हो सकती है पर दोनों में परस्पर संवाद तो होता आया है, तरह तरह से।

                                                                                  *

मूर्तिकला और चित्रकला जैसी दृश्यकलाएँ प्राचीनतम कलाएँ मानी जाती हैं, शिल्पकला तो प्रागैतिहासिक काल की है। पाषाणकाल में जब मनुष्य ने पत्थर घिस घिस कर औज़ार बनाए थे तब वह शिल्पकला के अन्तराल में प्रविष्ट हो चुका था।

मूर्तिकला या शिल्पकला का माध्यम भी पाँचों ललित कलाओं में सबसे अधिक कठोर है, कठिन है, श्रम एवं कौशल साध्य है। माध्यम की प्रकृति के अनुरूप ही उसके औज़ार (टूल्स) भी हैं जैसे हथौड़ी, छेनी, विभिन्न तरह के चाकू इत्यादि। और फिर माध्यम में तरह तरह की प्रकृति और रंग वर्ण के पाषाण, धातुएँ, काष्ठ, मिट्टी इस फिर मोम.... 

दूसरी ओर साहित्य या काव्यकला का माध्यम  बेहद नमनीय है- अर्थात शब्द एवं भाषा जो  कदापि अपरिष्कृत या ‘रॉ’ नहीं है। वह तो पहले ही से अर्थवान है, एक  रचित व्यवस्था है, संकेतों की, रेडियम की तरह रेडियोएक्टिव, जीवित, सप्राण, निरन्तर आकार लेती, बदलती, जेनेरेटिव प्रकृति वाली। शब्द और भाषा की उत्पत्ति सामाजिक तहों से होती है अतः  उसकी प्रकृति सामाजिक है।  कवि उस पर  एक स्वर्णकार की तरह काम करता है। शब्द के संयोजनों, बिम्बों, प्रतीकों , वाक्यों को रचता है।  शब्द जिसमे पहले ही से कमसकम तीन आयाम तो होते ही हैं -शब्द का अभिधात्मक अर्थ, उसका नाद गुण और  फिर उसके साथ अर्थ की मनोवैज्ञानिक छायाएँ भी शब्द में ही समाई होती हैं। कभी काव्य को श्रव्य कलाओं में गिना जाता था लेकिन दीर्घ समयक्रम ने  इसे पाठ्य बना दिया है, और  पुस्तक के पृष्ठ पर छपी हुई कविता का एक भौतिक रूप या  स्ट्रक्चर  भी होता है। 

फिर शिल्पकला और काव्यकला का एक बड़ा भेद स्थानिक और कालिक कला का भेद भी है। शिल्पकला को  स्थानिक या (spatial) कला कहा जाता  है, क्योंकि यह एक स्थान में आकार लेती है, स्थान को घेरती या भरती है, बल्कि कहना चाहिए कि एक स्थान को अपने रूपाकार से परिभाषित कर देती है। और वही क्यों वरन उस स्थान के चहुंओर के स्पेस को भी जीवंत बना देती है।  चित्र कला की तरह यह नयनों का विषय तो है ही, अतः यह  दृश्यकला है और प्लास्टिक आर्ट अर्थात सुनम्य कला भी है, यानी जीवन के अनेक रूपों को  त्रिआयामी छवियों में ढालने वाली, आयतन  या  वॉल्यूम में ढलने वाली कला। शायद इसीलिए जीवन रूपों के यह सबसे अधिक निकट भी तो है। 

 दूसरी ओर काव्य, संगीत, नृत्य और नाट्य आदि कलाएँ कालिक या (टेम्पोरल) कलाएँ कहलाती हैं- यानी समय में गतिमान, आशंसक के सम्मुख क्रमशः प्रकट होती हुईं, आकार ग्रहण करती हुईं, अनुक्रम में (सीक्वेंस), शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, सम्वाद दर सम्वाद …..

यानी एक साथ या सहक्रम में प्रकट न होकर धीरे धीरे प्रकट होती हैं।

शिल्पकला  की अपील भाषा-भेद की दीवारों से परे बेहद आद्य (आदिम) और वैश्विक है, बहुत हद तक उम्र और संस्कृतियों के विभाजनों से भी परे… क्योंकि उस के पास चित्रभाषा है, देह भाषा है, मुद्रा और भंगिमा की भाषा है। ऐसे तो  जीवन-जगत का हर रूप शिल्पकला का विषय है पर सब से केंद्रीय विषय तो मनुष्य ही है। मनुष्य  रूप शिल्पकला का इकलौता विषय नहीं पर फिर भी नाभिक तो ज़रूर रहा आया है, यों वहां पशु रूप हैं, वानस्पतिक रूप हैं, अनेक दैनिक उपादान या फिर काल्पनिक और मिथकीय रूप भी अपनी विशिष्ट भंगिमाएँ लिए खड़े मिलते हैं- हमारी तमाम इंद्रियों के सम्मुख। नयन तो नयन, हमारी स्पर्श सम्वेदनाओं के सम्मुख भी। शायद इसीलिए शिल्प कृतियों को देख कर उन्हें स्पर्श करने की लालसा होती है, और शायद  इस स्पर्श सम्वेदना  के  कारण ही इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार एडगर डेगास ने इसे ‘ब्लाइंड मैन’स आर्ट’ कहा था। अर्थात यहाँ हमारा सामना एक भौतिक, ‘लगभग’ जीवित उपस्थिति से होता है, जिसे अनदेखा करना संभव नहीं हो पाता।

शिल्पकला जीवन के एक अचल क्षण  को मूर्तिमान करती है, लेकिन  इस स्तब्ध क्षण में सदा गति अंतर्निहित होती है, अभिव्यंजित होती है। अर्थात यह एक  क्षण, अचल क्षण, अपने में बेहद प्रातिनिधिक, बेहद नाटकीय क्षण हो सकता है या फिर इस मूर्ति में ढलते ही नाटकीय हो जाता है। यह कंप्रेस्ड क्षण  किसी वृत्तांत का एक बिंदु हो सकता है, जीवन -प्रवाह की श्रृंखला का एक ऐसा क्षण जिसमें भूत और भविष्य की छाप भी है। तो एक रूप में स्पेशियल (स्थानिक) होकर भी  समय यहाँ निबद्ध है। फिर एक रूप (फॉर्म)  तमाम तरह की दैहिक और मानसिक गतियों और मुद्राओं का भी धारक तो  होता ही है।  आधुनिक शिल्पकला के जनक कहे  जाने वाले  फ्रांसीसी शिल्पकार अगस्ट रोदां (1840-1917) मनुष्य के भीतरी, अबूझ, अदृश्य भावनात्मक संसार तक  शिल्प के माध्यम से पहुंचना चाहते थे।  अपने जगत प्रसिद्ध  शाहकार ‘थिंकर’ शिल्प कृति के बारे में उनका कहना था कि उनका चिंतक केवल मस्तिष्क से,  माथे की आपस मे गुथी भवों से, अपने कसे हुए होठों से ही नहीं सोच रहा वरन अपनी बाहों, पीठ  और पैरों  की तमाम  पेशियों से और अपनी भिंची मुट्ठी और  पैर के अंगूठों तक से सोच  रहा है। देह का कोई भी हिस्सा भावनात्मक अभिव्यंजना से शून्य नहीं, वरन सम्पूर्ण  का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसीलिए रोदां  ने मनुष्य के हाथों की  विभिन्न भंगिमाओं से  मनुष्य के आंतर  संसार को अभिव्यक्त किया है।

देखिए…



शिल्प में गति के कितने रूप हो सकते हैं, उसके अनेक उदाहरण लिए जा सकते हैं।

        रोम से प्राप्त लोआकून एवं उसके पुत्रों की विश्वविख्यात प्राचीन शिल्पकृति में एक ट्रोजन पुरोहित लोआकून और उसके बेटों को  दो बड़े समुद्री सर्प अपनी कुंडली में कसते जा रहें हैं और वे तीनों प्राणपण से मृत्यु की जकड़न  से जूझ रहे हैं। देखिए उनकी संघर्षरत, भीति से जकड़ी - कसमसाती देहें, आसन्न मृत्यु की यंत्रणा…


       इसी तरह माइकलएंजेलो की कृति ‘पिटी’ या ‘पीएटा’ (इतालवी) में कुमारी मेरी की गोद में पुत्र ईसा का  मृत शरीर,  गति के एक बिल्कुल अलग तरह के  आयाम  की अभिव्यंजना है।  मेरी  का झुका माथा, हर नक्श  दुख में जम सा गया  है, उसकी गोद मे बेटे की मृत देह  जैसे अभी अपनी प्राणहीनता  के भार से धरती पर फिसल जाएगी। मृत देह  के अंग-उपांग ही नहीं, रग रग  मरण को दृश्य बना रही है। ठहरी हुई ऐसी व्यथा की अभिव्यंजना कला की दुनिया में  दुर्लभ  ही है।


        गति का एक और रूपाकार स्मृति में है, लगभग हाथ भर का एक छोटा मानवाकार, बस कंडक्टर का रूप। न वहां बस अंकित हुई थी न सीट इत्यादि। बस कंडक्टर खड़ा था, मानो चलती बस में अपने दो पैरों को जमाए, स्थिर रह पाने, सन्तुलन साधने की देह मुद्रा में, अपना काम करता हुआ।

        और अगर यह कहें किशेषशायी विष्णु या समाधिस्थ शिव और  बुद्ध की ध्यान मुद्रा में गति का पूर्ण शमन है तो यह भी सच नहीं होगा, क्योंकि ध्यान और विश्रांति भी गति का एक पड़ाव है।

अब शिल्प और काव्य के संवाद की बात की जाए। कला इतिहास को पीछे मुड़ कर देखें तो रेनेसां पुरुष महान शिल्पकार मायकलेंजलो कवि भी थे। अगर दृष्यकलाओं का वे ऐसा चमकता सितारा न होते तो शायद हम उन्हें एक सोनेटकार के रूप में याद रखते। लेओनार्दो द विंची भी ऐसे ही थे।

और फिर यह सम्वाद एक ही व्यक्ति आत्मा से भिन्न, दो कलाकारों के बीच भी तो घटित होता आया है। जर्मन कवि रेने मारिया रिल्के और फ्रेंच शिल्पकार रोदां के सम्बंध भी विख्यात हैं। युवा रिल्के ने लगभग एक शिष्य की सी भक्ति और निष्ठा से ‘हीरो वरशिप ‘करते हुए शिल्पकार के सानिध्य में वक्त गुज़ारा। वे रोदां को काम में तल्लीन क्षणों में निहारा करते, कारण दोनों ही मनुष्य के भीतरी संसार तक अपने अपने ढंग से पहुंचना चाहते थे, उसे अभिव्यंजित करना चाहते थे।

रिल्के, रोदां की मानवीय हाथों वाली कला शृंखला से बेहद प्रभावित हुए थे। एक पियानो बजाने वाले का हाथ, सोते मनुष्य का हाथ, कुछ चुराता हुआ हाथ, अपनी भावनाओं को भींचे हुए एक हाथ…  न जाने कितनी भंगिमाएँ। यह हाथ ईश्वर और कलाकार का भी हाथ था और कलम थामने वाले कवि का भी।

रोदां के करीब रहते हुए युवा रिल्के ने पांच वर्ष लगा कर रोदां पर एक विनिबन्ध लिखा जिसमें उनकी रचना प्रकिया और कला पर अद्भुत अंतर्दृष्टियां हैं। उन्होंने रोदां पर एक के बाद एक अध्याय लिखे और आज यह विनिबंध रोदां के अलावा स्वयं रिल्के की सौन्दर्यबोधात्मक दृष्टि का परिचायक भी है।

रिल्के ने  ‘आर्केक टोरसो ऑफ अपोलो’ नाम की कविता लिखी थी जिसमें अपोलो के  भंजित धड़ का अनूठा वर्णन  था। शब्दों  या काव्य  में किसी दूसरी दृश्यकला या  दृश्यकृति का वर्णन  ekphrasis कहलाता  है। इसी का  एक और उम्दा उदाहरण अंग्रेज़ कवि शैले की कविता Ozimandias  है जिसमें  वे रेगिस्तान की रेत में पड़े एक भग्न  मनुष्य- रूप  का  वर्णन  करते हैं जिसके विशाल पैर तो हैं पर ऊपर का धड़ गिर चुका है। लेकिन रेत में धँसा एक मुख अभी तक अलग पड़ा है। इसके  माथे पर के बल, एक मुड़ा हुआ ओठ अहंकार और सत्ता के मद का बयान कर रहा है।  यानी उस  राजा का भीतरी चरित्र  पत्थर में अंकित  हो उतर आया है, और आज भी उस भग्नावशेष में बचा  हुआ है।

इसी तरह हिंदी कवि विनय कुमार ने दीदारगंज की यक्षिणी पर एक लंबी कविता लिखी है और उसमें मौर्य काल से आज तक का समय और वातावरण समाया हुआ है।

आइए अब देखते हैं एक कला के दूसरी में प्रवाहित होने की अनूठी प्रक्रिया। इसे शिल्पकला में कविता का  क्षण भी कहा जा सकता है। शिल्पकला की सबसे बड़ी विलक्षणता उसकी अचलता और मौन है तो काव्य में गतिमान शब्दाधारित अनुभव या व्यंजना है। तो इसे ही आधार बना कर इस संवाद को समझते हैं। 

अचल प्रतीत होने वाली शिल्पकृति में जब हम अंतर्निहित गति का अनुभव करते  हैं, और अपनी देह में उसे  महसूस करते हैं, धीरे धीरे शिल्पकृति के गिर्द घूमते हुए, अनेक कोणों से उसे निहारते हैं, तो  हमारे प्रतिबोध और सम्वेदनाएँ भी किंचित बदलती जाती हैं। उदाहरण के तौर पर माइकलएंजेलो की शिल्पकृति ‘डाईंग स्लेव’ (मरता हुआ दास) को देखें। एक कोण से लगता है कि वह निष्प्राण हो चुका है, दूसरे कोण पर एक आशा जगती है कि अभी भी उठने की कोशिश कर रहा है, अगले कोण यह आशा  टूटने  लगती है, और यह क्रम चलता रहता है- निरन्तर एक संघर्ष… जीवित रहने का,  न रह  पाने का, सदियों से। यह मूर्ति में काव्य का क्षण है। 

फिर किसी भी शिल्पकृति के पाठ में आशंसक का अनुभव भी पहले इंद्रियों से शुरू होता है, फिर धीरे धीरे हम उसके मनोवैज्ञानिक आशयों के प्रति सचेत होने लगते हैं, और अन्ततः इद्रियों, मन, बुद्धि, विचार और चेतना का सहकार मिलकर जो सौंदर्यबोध कराते हैं, वह क्रमिक ‘रीडिंग’ या पाठ शिल्प में कविता के पाठ  जैसा ही  है। 


फिर मूर्ति भी तो काव्य की तरह साहचर्यों (असोसिएशन्स), प्रतीकों, उपमानों की भाषा का इस्तेमाल करती है। भारत की तमाम प्राचीन और क्लासिकी शिल्पकला शरीररचनापरक (anatomical) न होकर उपमानधर्मी और लिरिकल है- वहाँ नयन कमलदल जैसे हैं, खंजन नयन हैं, जंघाएँ कदली स्तंभ सी हैं, सिंह कटि है। गंधर्व और किन्नर हवा में बादलों की तरह भारहीन हैं। केश निचोड़ती सद्यस्नाता के बालों से टपकती बूंदों को एक  हंस मोती समझ कर पी रहा है।  क्या यह सब काव्य नहीं है?

दूसरी ओर कविता का तो आरम्भ ही शायद कवि के मानस में तब होता है जब बहते हुए जीवन प्रवाह का कोई एक क्षण, कोई पात्र, कोई पक्ष, कोई छवि या बिम्ब चेतना में ठहर जाता है, स्थिर हो जाता है, तस्वीर सा उतर आता है। तब यही मार्मिक क्षण, कलाकार (कवि) के लिए सौन्दर्यबोधानुभव का क्षण होता है, कविता के आरम्भ का बीज क्षण होता है। 

और यों अपने इस बीज के गिर्द,  कवि बिम्बों का एक वितान तानता है, बिम्बों की एक पाँत रचता है, धीरे धीरे।  या कहें कि एक मूल बिम्ब के पहलू दर पहलू खोलता है, और यों एक काव्यकृति बुनता है। 

दूसरी ओर कविता के पाठक या श्रोता (आशंसक) के लिए कविता को पढ़ते/सुनते  हुए एक बिंदु ऐसा ज़रूर आता है, जहां अर्थ या अनुभव संघनित सा होने लगता है, स्थिर सा हो जाता है, स्थापित होकर अचल हो जाता है, यानी अर्थ के अनुभव का एक उच्चतम बिंदु (अपैक्स पॉइंट) । वही मेरे लिए कविता में मूर्ति का क्षण है।

बुधवार, अप्रैल 30, 2025

मेघ सौंदर्य चर्चा

 


मूर्ति कला पर कुछ नोट्स

(संदर्भ : रमेश कुंतल मेघ)  


रमेश कुंतल मेघ के सौंदर्यबोध शास्त्र को समझने के निमित्त यह लेख कोलकाता से प्रकाशित मुक्तांचल पत्रिका के मेघ विशेषांक में छपा था। 


शिल्पकला या मूर्तिकला की बात अगर चले तो कुछ स्मृतियाँ कौंधती हैं, जैसे क्रमशः कोहरे में से, धुन्ध और धुँए में से प्रकट हो रही हों। कुछ मूर्तिशिल्प थे जो बचपन और किशोरावस्था में हमारे साथ हमारे घर मे रहा करते थे। घर के भीतर अपने निर्धारित कोनों में स्थापित वे पश्चिमी सौंदर्य छवियां और दृश्य थे। साल दर साल वहीं। अगर किसी दिन वे अपनी जगहों से हटते तो चतुर्दिक दृश्य की कैफियत खटकने लगती शायद।

फिर घर से बाहर किसी चौराहे पर किसी इतिहास पुरुष, किसी घुड़सवार की भव्य प्रतिमा, रंग बदलते आकाश के नीचे। उसके इर्द-गिर्द जीवन नदी सा बहता रहता, लेकिन वह स्थिर, थमी हुई सबको देखती रहती। याद आता है किसी बगीचे में बारिश में भीगती कोई आवक्ष मूर्ति। फिर मुम्बई आदि शहरों के संग्रहालयों में स्पॉटलाइट की दीप्ति तले देखी गईं अनेक मूर्त-अमूर्त शिल्पछवियां। अरब की खाड़ी यानी समुद्र में फेरी से घारापुरी द्वीप की यात्रा के बाद हाथीगुम्फा (एलिफेंटा) के भीतर नीम अन्धेरे में प्रकट होती त्रिमूर्ति के विराट तीन मुख, विराटकाय अर्धनारीश्वर, और शिवकथा के अनेक नाटकीय क्षणों को अंकित करने वाले तमाम फलक। ढाई हजार साल पुरातन कान्हेरी या कृष्णशैल की शिला को काट कर बनाये गए चैत्य और विहारों में कोरी गईं बुद्ध और बोधिसत्वों की ध्यान में डूबी छवियाँ।

और फिर पेरिस के लूव्र में अचंभित कर देने वाला यूनानी, रोमीय और मिस्री शिल्प कला का अपार वैभव। फ्रांस के ही वर्साइ राजमहल से संलग्न व्यापक बाग बगीचों, जलाशयों के आसपास और बीच में रखी गईं आदमकद मूर्तियाँ- विभिन्न मुद्राओं और भंगिमाओं में। कहीं कभी किसी के अंग भग्न भी हों तो भी उसके पूर्ण प्रभाव में कोई भंग या दरार नहीं आने पाती, जैसे जीवित से भी कुछ अधिक प्राणवत्ता थी, विलक्षणता थी।

यह सब था, लेकिन रहस्य भरे इस सम्मोहन के आगे तो कुछ नहीं था, बस ठिठक जाना भर, दृष्टि का अटक जाना भर, कुछ देर के लिए चेतना का रोज़मर्रा के भाव प्रवाह से अलग हो जाना, निजमूलों से छिटक जाना, कुछ मुक्तमना सी अवस्था। यह कैसा देखना था भला।

हम इसी जगत में, इसी रूपमय जगत में रहते चले जाते हैं, भीड़ में से गुज़रते हैं, बाज़ारों में निकलते हैं, आस पास मनुष्य, पशु, वस्तुएँ… और दृष्टि है कि इधर उधर फिसलती रहती है, ज़्यादा तो कहीं रुकती ही नहीं, पर फिर  अचानक एक काले ग्रेनाइट पत्थर में या श्वेत संगेमरमर ढली कोई मनुष्यदेह खड़ी मिलती है, कोई  काष्ठ का चेहरा,  कोई आवक्ष प्रतिमा, कोई चेष्टा, कोई मुद्रा, कोई  भंगिमा और हमारी आंख थिर हो जाती है, अटक जाती है, आबद्ध हो जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि हर आंख वहाँ अटके ऐसा ज़रूरी भी नहीं क्योंकि चीजों और जनाकीर्ण जगत को देखते देखते हमारी आँखें एक तरह के बासीपन और अंधत्व की शिकार भी हो जाती हैं।

लेकिन फिर इस अभेद्य सम्मोहन के आगे बस अंधेरा था, उसके परे क्या राह है, कहाँ पहुंचा जा सकता है, कुछ भी तो पता नहीं। बस एक ठिठकन। इसके आगे भी उन मूर्त रूपों की अनिर्वचनीय सी लगती मौन भाषा को सुना जा सकता है, उसके भीतर के संसार में- भावों, विचारों, स्वप्नों की पश्यंती वाग्धारा में उतरा जा सकता है, यह तो मेरे गुरु सौन्दर्यतत्ववेत्ता रमेश कुंतल मेघ की बदौलत पता चला। 

 

आज सोचो तो हैरानी होती है कि एक ओर आधुनिकता और आधुनिकीकरण पर इतना प्रभूत चिंतन करने वाला एक व्यक्ति आदिम समय और पुरातन मिथकों के संसार मे भी भटकता है। आधुनिक समाज-विज्ञानों से निरन्तर संवादरत एक अध्येता विचारक प्राचीन भारतीय दर्शन, रस काव्यशास्त्र के रहस्यों का भी उन्मीलन किया करता है। साहित्य के शाब्दी संसार का वासी अशाब्दी कलाओं की दुनिया का भी घुमन्तू बाशिंदा है। वह सौंदर्यप्राश्निक और प्रबल जिज्ञासु ही नहीं, वह तो समाज-सांस्कृतिक परिवृत्त में उसको (सौंदर्य को) खोजा चाहता है, और उसके ज़रिये सत्य और शिवत्व की स्थापना करना चाहता है। क्योंकि शायद अपने गुरु आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी की तरह उसे भी यह भान है कि अपने अतीत की ज्ञान परंपरा से अछूते रहकर आधुनिकता की बात कैसे हो सकती है; कि अपनी ज़मीन पर पुख्ता ढंग से खड़े हुए बिना दूसरों से हाथ कैसे मिलाया जा सकता है।*1

एम. ए. की कक्षाओं में वे भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र की गुत्थियां सुलझा रहे हैं, भरत के रससूत्र की व्याख्या करते हैं, लेकिन फिर सौन्दर्यबोधशास्त्र की कक्षाओं में वे श्रीशंकुक का चित्रसूत्र खोलते हैं- चित्रतुरंग न्याय। चित्रकला के षडंगो की व्याख्या करते हैं-

   रूपभेदः प्रमाणानि भाव लावण्य योजनं

   सादृश्य वर्णिकभंग इति चित्र षडंगकम।

वे अपने विद्यार्थियों से कहते हैं कि मूर्तिकला और भारतीय दृश्यकलाओं के करीब जाना तो पहले अपने नयन धो कर आना। इसके शायद कई अर्थ थे। एक तो वही जिसकी ओर इरविन ऐडमैन ने इशारा किया था कि हमें अपनी कंडीशनिंग से बाहर आना होगा, आंखों की खो चुकी तात्कालिकता और निश्छलता को पुनः प्राप्त करना होगा।*2  दूसरे नग्नता विषयक ग्रंथियों से मुक्ति पाने की बात थी। डॉ. मेघ एक जगह लिखते है, ‘‘आखिर हम नग्न मानव-देह से इतना डरते घबराते क्यों हैं? क्यों नहीं अपने बालमन की युवाघड़ी को पीछे करके हम अपने शिशु नयन खोल पाते? हाँ! अब मानवता के अपने बचपन तथा समूह संकलित अवचेतन (कलेक्टिव अनकांशस) को जगा तो लें।’’*3

वे बारम्बार यह भी कहते कि इतनी समृद्ध और दीर्घ कला परम्पराओं वाले इस देश में चतुर्दिक एक तरह की अनपढ़ता व्याप्त है- यह साधारण लोगों में तो है ही, पढे लिखे मनीषियों, सुधीजनों तक में है। इसे वे दृश्य असंवेदना या ‘विज़ुअल इललिट्रेसी’ कहते।*4

वे अजंता के पद्मपाणि बोधिसत्व के चित्र में ठहरी हुई गहन करुणा की भंगिमा को समझाते हैं। वे दीदारगंज की चँवरधारिणी यक्षिणी के परिपाठ को खोलते हैं और तब उस दृश्य पाठ का भाष्य शिल्पकला के पारिभाषिकों को समझाते हुए करते है

यह सब सुनते हुए, हम कुछ-कुछ समझते हैं, बहुत कुछ नहीं भी समझ पाते। फिर भी गुनते रहते हैं। शायद आजीवन गुनते रहेंगे। वे अलग अलग कलाओं की दुनिया में ले जा कर, घुमाकर जब बाहर आते हैं तो फिर वे सौन्दर्यबोधशास्त्र की उस दुनिया की ओर इशारा करते हैं जहाँ ये सब हैं- अपनी विलक्षणताओं और कुछ केंद्रीय साम्यताओं के ज़रिए एक दूसरे में प्रवाहित होती हुईं। उस दुनिया में कलाकार है, माध्यम है, रचना प्रक्रिया है, रूप और अंतर्वस्तुमय कलाकृति है और है आशंसक। वहां अभिव्यंजना-सम्प्रेषण, कौशल और तकनीक, मुद्रा, भाव-भंगिमा, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, वृत्तांत और सादृश्य सभी तो है।

वे बताते हैं कि काव्य और संगीत से शिल्पकला कैसे अलग है क्योंकि यह अचल कला है, स्थानिक है, सुघट्यात्मक (प्लास्टिक - जिसे आयतन में ढाला जा सकता है) है। लेकिन दूसरी ओर उसमें संगीत की अमूर्त लय भी है जिसके कारण उसे प्रशीतित संगीत  (फ्रोजेन म्यूजिक) कहा जाता है, और काव्यात्मक सादृश्य तो रूपंकर कलाओं में भी विद्यमान होता ही है। और यों उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र की सैद्धान्तिकी रची। ‘अथातो सौंदर्य जिज्ञासा’ जैसा ग्रंथ  सौन्दर्यबोधशास्त्र के  घटक तत्वों का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रंथ है। और फिर  ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’ मनुष्य के कला विषयक चिंतन और चेतनाओं की  यात्रा की महती खोज करता है। लेकिन फिर वे कुछ और आगे बढ़कर इन कलाओं के अध्ययन के मॉडल भी रचते हैं और उसका अनुप्रयोग भी करते हैं। वे इनके ज़रिए सौंदर्यबोधशास्त्रीय रिसर्च या अनुसंधान की नींव भी रखते हैं, जिसका चरित्र अनिवार्यतः अंतर्कलात्मक या तुलनात्मक है, और  जिसकी शब्दावली और भाषा एक तरह की ‘मेटा  लैंग्वेज’ है।           

अब आइये मामल्लपुरम के महिषासुरमर्दिनी फलक के उनके सौंदर्यबोधशास्त्रीय अध्ययन के करीब चलें ताकि उनके मॉडल के कुछ सूत्र हासिल हों। 

मामल्लपुरम की महिषासुरमर्दिनी गुफ़ा के उस विशिष्ट फलक तक आने से पहले डॉ. मेघ एक ‘लौंग शॉट’ लेते हैं, उस एक कलाकृति को एक वृहत्तर देश (स्पेस) और फिर वृहत्तर काल (ऐतिहासिक काल) मे लोकेट करते हैं। वे एक दृश्य पाठ (विज़ुअल टेक्स्ट) का परिपाठ (कॉन्टेक्स्ट) पहले रचते हैं।

वे लिखते हैं भारत के, ‘‘दक्षिणापथ में ईसापूर्व सातवीं शती में तमिलनाडु के पल्लवयुग में विद्याओं और कलाओं के नवाचार की भरमार रही।’’*5

अर्थात एक वृहत देश और काल की सूचना के साथ उस समय के कलाविषयक वातावरण का भी संकेत। और फिर ‘ज़ीरो इन’ करते हुए, काफी धीरे धीरे अपने मूल पाठ तक आने की तकनीक क्लासिक कृतियों को समझने की एक कुंजी है। दक्षिणापथ में तमिलनाडु और फिर उसमें मामल्लपुरम नगर, जो एक नौसेना पत्तन और शैव - वैष्णवों का तीर्थनगर था। वे मल्ल शब्द से मामल्लपुरम नाम की व्याख्या करते हैं और यह भी कि इसे बसाने वाले नरसिंह वर्मन (630-668 ई.पू.) एक कुशल मल्ल (पहलवान) थे। अतः आशंसा केवल कोरी भावुक चेष्टा नहीं, वरन् गहरी ज्ञान मीमांसा भी है।

वे समय के इस नाभिकेंद्र (पेग) को थामे हुए यह भी कहते हैं कि नरसिंह वर्मन कश्मीर सम्राट ललितादित्य के समकालीन थे। यानी काल बोध में धुर दक्षिण से धुर उत्तर तक के स्पेस को भी अंकित कर देते हैं।

फिर वे पल्लव कला के प्रथम चरण के वास्तुरूपों की चर्चा करते हैं। (सटीक होने की उनकी विद्वत्तापूर्ण संलग्नता ही उनके वाक्यों को संश्लिष्ट भी बनाती है)। रथ, गुफा, मंडप, शिलापट्ट खुदवाना और उत्कीर्णन जिसमें संयम, सरलता, कौशल और परिष्कार का सौंदर्यबोध झलकता है। और फिर वे समय और देश में भविष्य में अपसरण करते हुए लिखते हैं-  “कालचक्र में इन रूपों का प्रभाव दक्षिण एशिया के जावा और कम्बोडिया (बोरोबोदूर एवं अंगकोरवाट के संदर्भ) तक फैला।”

अंगकोरवाट, कंबोडिया



बोरोबदूर, जावा इंडोनेशिया 


इस प्रथम चरण में शिलाकाट तकनीक में उकेरन (कार्विंग) ऊपर से नीचे की ओर और बाहर से अंदर की ओर होता था। वे मामल्लपुरम के धार्मिक इतिहास की ओर संकेत करते हैं और उस की सांस्कृतिक और मिथकीय समृद्धि की चर्चा करते हैं जिसमें शैव और वैष्णव समान महत्वशाली थे तथा लक्ष्मी और दुर्गा के रूप भी अंतर्बाह्य व्याप्त थे।

और यों वे दुर्गा के पैनल के सम्मुख आते हैं तो प्रथम पाठ में नयन सम्मूर्तियों की पहचान करते हैं। मूर्ति कला में मनुष्य देह के साथ-साथ एकाकी प्रतिमा का वैभव है तो एक दृश्य, एक स्थिति, एक दशा, महावृत्तांत या मिथक के एक नाटकीय क्षण में भी फ्रीज़ किया जाता है। माना जाता है कि शिल्प में सदा गति अंतर्निहित रहती है, एक क्षण जिसके आगे और पीछे जीवन गतिमान है। इस पैनल को भारतीय दर्शक तो महिषासुरमर्दिनी के रूप में पहचान लेता है पर कोई अनजान भी उसमें युद्ध की ऊर्जा और तनाव को तो पढ़ ही लेगा।

तो दुर्गा यहाँ महिषासुर से आकार में छोटी अंकित हुई हैं, उनके आठ हाथ तो हैं और वे सिंह पर सवार एक षोडषी सी हैं और धनुष की डोरी कान तक खींचे हैं। दूसरी ओर महिष मुख और मानव देह वाला महिषासुर है- बड़ा और चौड़े कंधों वाला बलशाली पुरुष। हाथ मे भारी गदा थामे है, फिर भी तीरों की बौछार से अस्तव्यस्त हुआ सा जैसे मुड़ रहा है, बच रहा है, बैकफुट पर है, पीठ दिखा रहा है।


डॉ. मेघ शिल्पकार की भूमिका में जाकर पैनल की पूरी संयोजना और कंपोजीशन की व्याख्या करते हैं, प्रतीकों की भाषा पढ़ते हैं, मुद्राओं और भंगिमाओं के प्रति सचेत होते हैं, तालमान और अनुपात के संबंधों की बात करते हैं, आयतन और देढ आयामी  रिलीफ़ में गहराई और पर्सपेक्टिव के प्रश्नों के रूबरू होते हैं। दुर्गा महिषासुर से आकार में लगभग आधी हैं, जिससे पर्सपेक्टिव या दूरी का कलात्मक भ्रम पैदा हुआ है। माना जाता है कि भारतीय कला में पर्सपेक्टिव की धारणा नहीं है। कि भारतीय कला का अपना  निजी व्याकरण है और कमसकम आधुनिकता से पूर्व भारतीय कलालोक शरीराध्यात्मिक रहा है, यूनानी कला की तरह एनाटॉमीपरक नहीं।

पर यहाँ ऐसा तो नहीं लगता। अग्रभूमि में (फोरग्राउंड) में महिषासुर है, देवी पृष्ठभूमि से (बैकग्राउंड) आगे बढ़ती दिखती हैं। और रमेश कुंतल मेघ की व्याख्या वीररस के उत्साह और भयानक रस की भीति तक पहुंचती है, हम युद्ध का दर्शन करते हैं। यहां महिषासुर के वध का चिरपरिचित मोटिफ नहीं, उससे पहले का घमासान है।

दृश्य में कई नवोन्मेष हैं। जैसे देवी के हाथों में तीरकमान है न कि भाला। महिषासुर का मुख महिष और शरीर मनुष्य का है, परिपाटी के विपरीत। दुर्गा के गिर्द घेरा बनाए हुए गण बौने और स्थूलकाय हैं जबकि महिष के योद्धा लम्बे -छरहरे तथा देवताओं के छद्म वेश में हैं। खैर..

निष्कर्षतः जितना गझिन यह पैनल है, इस निर्भाषिक कला का मेघ जी का भाष्य भी उससे कम गझिन नहीं है। तो फिर हम आप भी इस इंद्रियसम्वेद्य रूपों वाली कला दुनिया के भीतर कदम तो रखें, रूबरू तो हों, नयन तो खोलें…

कान्हेरी की आठ सौ गुफाओं वाली बौद्ध बस्ती को देख ऐसा ही सम्मोहन जगा था। लेकिन सम्मोहन से आगे जाने की प्रेरणा हुई थी। और तब कुंतल मेघ के कला(कार)- कलाकृति - और आशंसा वाले मॉडल के तहत कान्हेरी की बौद्ध शिल्पकला पर लिख पाना सम्भव हुआ था।

सन्दर्भ

1. रमेश कुंतल मेघ, आलोचना को होने दो केंद्र-अपसारी, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018), पृष्ठ-216.

2. इरविन एडमैन, ललितकलाएँ और मनुष्य, (दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1966) पृष्ठ-54.

3. रमेश कुंतल मेघ : आपकी खातिर मुनासिब कार्यवाहियाँ, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018) पृष्ठ-83.

4. वही……. पृष्ठ- 69-72.

5. संस्कृति (पत्रिका) में रमेशकुंतल मेघ के लेख से, (दिल्ली: भारत सरकार: संस्कृति मंत्रालय, 2010), पृष्ठ 1-4 तक

मुंबई की एलिफेंटा गुफाओं से लौटते हुए
डॉ. मेघ के साथ 
   

      



बुधवार, जून 29, 2022

सौंदर्यबोध शास्त्र की परंपरा और रमेश कुंतल मेघ


हमारे चिंतक और सौंदर्यबोध शास्त्री रमेश कुंतल मेघ पर हाल में प्रदीप सक्सेना के संपादन में बनास जन का विशेषांक मेघ:सौंदर्य चिंतन के वातायन प्रकाशित हुआ है। मेरा यह लेख इस अंक में शामिल है।


डॉक्टर कुंतल मेघ का कृतित्व विराट है, एक विराट ज्ञानात्मक अनुसंधान। अनुसंधान किसका? मनुष्य का, मनुष्य के कृतित्व काकृतित्व में समाए उसके संसार का और अपने देश,काल और संसार से मनुष्य के संवाद का।

न तो मनुष्य की धारणा कोई स्थिर धारणा है और न ही मनुष्य की यात्रा कोई छोटी यात्रा है। इस प्रदीर्घ यात्रा के निशान अनंत काल की ज़मीन पर छूटे हुए हैं- जिसकी निशानदेही करने कुंतल मेघ निकले थे - और यों बढ़ते ही चले गए...

जब हम मनुष्य, विभिन्न देश-काल और संस्कृति से संवलित मनुष्य तक पहुँचना चाहते हैं, उसके भीतर उतरना चाहते हैं, उसके मूल्यों, उसके स्वप्नों, उसके संघर्षों और पीड़ाओं तक पहुँचना चाहते हैं, तो उन तक पहुंचने का अगर कोई रास्ता दिख पड़ता है तो वह शायद मनुष्य के कृतित्व से होकर ही तो गुजरता है। समाज एक प्राणी की तरह ही युगों-युगों से जीता रहा है, अपने तमाम विचारों, संवेगों के साथ, एक ही समय में मरता और जीता हुआ। फिर मनुष्य का कृतित्व जो प्रकृति, समाज और ऐतिहासिक यथार्थ के बीचोंबीच, और फिर भी उनके समानांतरमनुष्य का अपना संसार है। कृतित्व यानी जीवन और जगत से मनुष्य के सम्वाद का रूप, उसकी अभिव्यक्ति, उसकी स्वतंत्रता का एक चिलचिलाता क्षण। इस कृतित्व में कितना मनुष्य का अपना हैकितना संसारपरंपरा, विरासत और ऐतिहासिक शक्तियों काइन प्रश्नों के उत्तर भी आसान नहीं हैं। फिर भी मनुष्य की रचनात्मकता में कुछ तो ऐसा है जहां कई विरोधी प्रतीत होने वाली चीजें एक रूप, एक आकार पा जातीं है। अपनी तमाम बद्धताओं में, तमाम सीमाओं में, मनुष्य का कर्म, उसका श्रम, उसका ध्यान, उसका प्रेम एवं कोमलता, करुणा और समानुभूति जिसमें संचित हो जाती है, वह साकार रूप, साधारण हो कर भी साधारण नहीं। इसी कृतित्व का नाम  कला है। एक होकर भी जो एक अनेकता का अभिधान है। द्वंद्व न्यायों  का समन्वय है और मुनष्य की तरह ही समय मे  गतिमान है। 

डॉ. मेघ के अनेक ग्रंथों के नाम याद आते हैं, ‘तुलसी आधुनिक वातायन से’, ‘क्योंकि समय एक शब्द है’, ‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’, ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’, ‘आधुनिकता और आधुनिक बोध’, ‘मिथक और स्वप्न’, ‘वाग्मी हो लौ’, ‘मनखंजन किनके.... साहित्य कृतियों और कृतिकारों पर उनका कार्यमूर्ति कला, चित्र और वास्तु, और फिर देशकाल और कलाओं के आर-पार उनका चिंतन। यानी उनकी ज्ञानमीमांसा का दायरा सुदूर अतीत से वर्तमान तक, बल्कि कहना चाहिए भविष्य के स्वप्नों तक पसरा हुआ है। सुदूर अतीत वह प्रागेतिहासिक समय है, जो चेतना की गोधूलि वेला है जहां वास्तविकता आर्केटाइपल प्रतीकों में ढल जाती है। ये बिंबन मनुष्य बल्कि मानवता की शैशव अवस्था के (आदिम अवस्था) अनुभव पुंज हैं, प्राथमिक अनुभव हैं, जो सामूहिक अवचेतन में सुरक्षित हो गए हैं, बिंबों और रूपकों और रूपांतरणों से बने मिथकों के रूप में। इनके कूटों को खोलने को फायरबाख ने अवमिथकीयकरण कहा, जहां समाजशास्त्र और नृतत्व के सहारे मनुष्य के अंतर्लोक और मानस के आयाम खोले जा सकते हैं।[1] डॉ मेघ यह कार्य करते रहे हैं और अपने विश्वमिथक सरित्सागर नामक वृहत् ग्रंथ में तो वे इनके माध्यम से विश्व (यूनिवर्सल) मनुष्य की धारणा की स्थापना करते हैं। मिथकों से ढके प्रतीकों को खोलते हुए उनका मानना है कि प्रतीकों के रूप (फॉर्म्स) तो राष्ट्रीय होते हैं, किन्तु अंतर्वस्तु (कंटेंट) वैश्वक।

तो सुदूर अतीत से लेकर आज तक मनुष्य की अभिव्यंजना के रूप और प्रतीक ही तो हैं जिनके निकट पहुँचने के लिए डॉ मेघ देश और कालों के आर-पार भटकते रहें हैं। इन अभिव्यंजनाओं के शरीर क्या केवल शाब्दी या ‘भाषिक होते है? शायद नहीं। शब्द भी है जब वह साहित्य कृतियों में ढलता है, संवेग, स्वर एवं ताल में ढल कर वह सांगीतिक रचना हो जाता है, रंग-रेखाओं और स्थान संयोजन में ढलकर चित्रकृति और ठोस पदार्थ में दो आयामों से आगे बढ़ कर मूर्ति। जहां देह ही अभिव्यंजना का माध्यम बन मुद्राओं और गतियों में बात करने लगे तो अभिव्यंजना नृत्य हो जाती है। इन कलाओं की विशिष्टता के बावजूद इनका एक संश्लेष बनता है, सौंदर्य-अनुभव और अभिव्यंजना इन सभी की धुरी है। अनेक हो कर भी कहीं उनकी एकता के कुछ मूल बिंदु हैं। सौंदर्यबोध शास्त्र इन्हीं से मुखातिब होने वाला शास्त्र है। सौंदर्यबोध शास्त्र की परिभाषा करना सरल नहीं रहाफिर भी यह विभिन्न कोणों से कलाओं की अन्वीक्षा करने वाला शास्त्र है।

कहने को तो एक स्वतंत्र ज्ञानानुशासन के रूप में यह एक नया शास्त्र है पर वास्तव में इसका इतिहास पुरातन है- और कालक्रम में इससे जुड़े प्रश्न, विषय और उद्देश्य भी कमोबेश बदलते रहे। इसके  विराट दायरे में दर्शन, विज्ञान और मानविकी का समाहार था और यह खासा अमूर्त और फ्लूइड भी रहा। यूनानी दार्शनिकों और पायथागॉरियन चिंतकों ने इसे दर्शन का अंग माना जो जीवन का एक पूर्ण चित्र देफिर यह कलाओं के अनुभव से जुड़ कर काव्यशास्त्र और सौंदर्य की प्रकृति से जुड़ गया (अरस्तू)। कभी यह नैतिकता के करीब था (सुकरात)। कभी प्रकृति और कला के संबंधों की परख कर रहा था (लियोनार्डो डा विंची) या कला की कसौटियां रच रहा था (बॉयल्यू Boileau) या संसार की ऐन्द्रीयिक समझ और संज्ञान का विश्लेषण था (बॉमगार्टन) या फिर कला और कला में सुंदर की तलाश।

डॉ मेघ के शब्दों में- यह विषय व्यापक तौर पर साहित्यशास्त्र और काव्यशास्त्र से आगे सौन्दर्यबोधशास्त्र कहलाया जिसमें अनेक प्रकार की कलाएँ और कौशल, विधाएँ और विलास शामिल हो गए। इस संश्लेष में नेत्रों, कानों, नासिका, जिह्वा, त्वचा की संवेदनाएँ और आवेश भी शामिल हो गए। अतः पंचेन्द्रियों के उत्सवों से युक्त नाना कलाओं – विधाओं -  सहित्यरूपों का महाशास्त्र ही सौन्दर्यबोधशास्त्र की संज्ञा पा गया।[2]

·        

अब आइये, ज़रा भारतीय परिदृश्य में सौंदर्य या कला चिन्तन का जायज़ा लें। ईसा की दूसरी या तीसरी शताब्दी में भरत का नाट्यशास्त्र, जिसे नाट्यवेद कहा गया था, भारतीय कला-चिंतन की बुनियाद है- क्योंकि इसमें नाट्य ही नहीं, काव्य, संगीतभाषणकला, तथा मुरली वादन जैसी लिरिकल कलाओं की भी सूक्ष्म मीमांसा हुई थी। (डॉ मेघ) उसके बाद ईसा की छठी सदी में भामह, आठवीं सदी में दंडी, फिर रुद्रट और वामन आते हैं, जिसे कला की देहवादी परंपरा माना जाता है। इसी दौरान शिल्प पर विष्णुधर्मोत्तर पुराण, एवं अग्नि पुराण में चित्र एवं अन्य कलाओं की भी चर्चा थी। वात्स्यायन के कामसूत्र में भी नागरक के संदर्भ में कला और कौशलों की सूचियां थीं। कामसूत्र की टीका लिखने वाले यशोधर ने चित्र कला के षडंगों की चर्चा की थी- रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य, सादृश्य एवं वर्णिकाभंग। संगीत और वास्तु विषयक शास्त्र भी थे ।

इन अलंकार शास्त्रीय ग्रंथों की दूसरी परंपरा में (8वीं से 11वीं सदी) जिन्हें मध्यकालीन शास्त्रीय चिंतन कह सकते हैंभट्ट लोल्लट, श्रीशंकुकभट्टनायकआनंदवर्धन एवं अभिनवगुप्त के ग्रंथ आते हैं। इनमें काव्य के सारत्व या आत्मा की चर्चा होने लगती है। यह थे तो काव्य शास्त्रीय ग्रंथ लेकिन इन सिद्धांतों को दृश्य कलाओं पर भी लागू किया जा सकता था। इनमें आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त थे, जिन्होंने कला की दैहिक, शास्त्रीय और व्यावहारिक चर्चा को लगभग दार्शनिक बना दिया। लेकिन फिर भी था यह सब कुछ भरत की बनाई नींव पर ही। कलाकृति के वस्तुगत रूपों का विश्लेषण एक बात है, लेकिन जब विश्लेषण सौन्दर्यानुभव का होने लगा तो अनुमानों और कल्पनाओं का बढ़ना स्वाभाविक ही था।

 आधुनिक समय में पदार्पण करने पर दृश्य खासा बदला हुआ है। हमारी स्वयं और पूरे विश्व की भी भारतीय कला के विषय में जो धारणा बनी- वह अतीत के उन कला अवशेषों के पुनरुद्धार के कारण ही बनी, जो कि सदियों तक भूमि की गहराइयों में सुप्त पड़े रहे। या फिर साहित्य ग्रंथों में अनदेखे पड़े रहे। कुछ सामंतकाल और अर्धसामंत काल के दरबारों का बचा पर वह भी धुंधलके में ग़ुम गया। ग्राम एवं कबीलाई रूप एवं कलाएँ भी पश्चिमी व्यापारिक अर्थव्यवस्था की मार से प्रभावित हुईं।[3] 

अवनींद्रनाथ टैगोर

उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश एवं यूरोपीय प्राच्यवादियों की एक पांत है जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्स और सर विलियम जोन्स की परम्परा में भारतीय धर्म, दर्शन एवं साहित्य पर तो बात की पर दृश्य कलाओं के संदर्भ में वे निरुत्साहित ही रहे। भारतीय कला कभी उन्हें विकृत, कभी  ग्रोटेस्ककभी विचित्र प्रतीत हुई। अनेक हाथों और सरों वाले देव और देवियां उनके लिए अजब थे। (रोजर फ्राईक्लाइव बेल, विन्सेन्ट स्मिथ) उनका ख्याल था कि भारतीय कला मानवीय भावों को व्यक्त कर ही नहीं सकती। गर उन्हें कहीं सार दिखा भी तो केवल ग्रेको-रोमन कला में ही।

भारतीय परंपराओं, उसके उद्देश्यों, उसके स्वभाव और चरित्र से उनकी पूर्ण अनभिज्ञता ही इसकी वजह थी। 19वीं सदी के मध्य तक आते-आते भारतीय रचनात्मकता जड़ होने लगी थी। अग्रेज़ी भाषा, साहित्यविचारों और संस्थाओं के कारण आए बदलावों के कारण भारतीय भद्रलोक की अभिरुचियाँ और दृष्टिकोण बदल रहे थे। जिसे हम नागर अभिजन कहें-वह काफी कुछ बदल गया था, क्योंकि अतीत के जो अवशेष उनके सामने थे भी, उन्हें भी उनकी आंखें देख नहीं पा रहीं थी।[4] 

रवींद्रनाथ टैगोर

और जो गरीब जनता आदतवश इनसे जुड़ी थी उनके पास तो उस के संरक्षण के कोई साधन कभी थे नहीं। अतःप्राच्यवादियों ने धर्म, दर्शन साहित्य को टटोला और कलकत्ता में एशीयाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई, अभिज्ञान शाकुन्तल के अनुवाद हुए जिस पर गोएथे दिलोजान से फिदा थे। कोई एक-आध रोडिन जैसा था जो नटराज की प्रतिमा देख कर स्तब्ध हुआ था। फिर भी अगर भारतीय दर्शन की प्रशंसा हुई भी  तो उसकी कल्पना की ऊंचाई, सौंदर्य प्रभाव, और मानव मूल्यों के लिए नहीं हुई।

राष्ट्रवाद के क्रमिक विकास के साथ राष्ट्र की कला-विरासत का भी पुनर्मूल्यांकन शुरू हुआ। बंगाल कला निकाय के अवनींद्र नाथ टैगोर और नंदलाल बोस इससे जुड़े थे। दूसरी ओर भारतीय बुद्धिजीवी का मानस निरंतर पश्चिमी विचारों से आकार पा रहा था। और यों इन्हीं दो विरोधी दिशाओं की जोड़ाई से पुनर्मूल्यांकन घट रहा था।

ई बी हैवेल

भारत की जो छवियाँ बनाई जा रहीं थीं वह एक, रहस्यवादी, भाववादी, पारलौकिकता में विचरते भारत की थी। दूसरी आकर्षक छवि थी भारत की अकूत धन सम्पदा और रोमानीपन की, तीसरी छवि सीधे-सादे धर्म प्राण ग्रामश्री वाले भारत की थी और चौथी छवि उन साधुओं-संन्यासियों, फकीरों दरवेशों की थी जो समाज से कटकर, लौकिक जीवन से अलग-थलग खड़े थे। यह छवियाँ पूरी तरह गलत नहीं थीं तो पूरा सच भी नहीं थीं। वे अंश को ही पूर्ण मान लेने की भ्रांति से ग्रस्त थीं।[5] भारत तब भी अनेकताओं का देश था। दर्शन का आधार भी लें तो भी भारत में केवल वेदान्त या अद्वैत दर्शन ही न था, दूसरे भी थे (षड्दर्शन)।

लेकिन भारतीय बुद्धिजीवी अपनी जड़ों से कट चुका था अतः उसे ये विचार इतने बुरे न लग रहे थे- वे इस पर गर्वित होने लगा था। उसने अध्यात्मवादी भारत और भौतिकतावादी पश्चिम की इन श्रेणियों को स्वीकार कर लिया था। बंकिमचंद्र चटर्जी और रवीन्द्र नाथ टैगोर भी कुछ हद तक इसकी ज़द में रहे।

इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में उभरे ई. बी. हैवेल एवं आनंद केंटिश कुमारस्वामी, माइकल मधुसूदन दत्त आदि। सुदूर दक्षिण में भारतीय और तत्कालीन अंग्रेज़ी कला परंपराओं से अछूते राजा रवि वर्मा तैल रंगों में अंग्रेज़ी नैरेटिव चित्रों और शबीह को एक किस्म के अकादमिक यथार्थवाद में ढाल रहे थे। लेकिन भारतीय मिथकों और निजंधरों के अंकन में भारतीय अन्तर्वस्तु और प्राणमयता लुप्त सी थी।

इस परिदृश्य में हैवेल और कुमारस्वामी ने अपनी आवाज़ बुलंद की। हैवेल की 

आनंद कुमारस्वामी
सौंदर्य दृष्टि पैनी थी और मद्रास और कलकत्ता में कला शिक्षण करते हुए वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता, धर्म और दर्शन के रूबरू भी हुए थे। उन्होंने  मुख्यतः वैदिकऔपनिषदिक एवं बौद्ध दृष्टियों को पढ़ा था और भारतीय कला कृतियों का  अध्ययन भी किया था। लेकिन फिर भी वे भी उसी भ्रांति के शिकार हुए कि भारत का मानस और  सांस्कृतिक दृष्टि धार्मिक, आध्यात्मिक और जीवन से परे देखने वाली है। उन्हें लगा कि भारतीय  सौन्दर्यबोधशास्त्र का उत्स ट्रांसीडेंटल दर्शन में खोजा जा सकता है। उन्होंने भारतीय कला पर,  कलाकार पर इसी दृष्टि से लिखा। वे मानो पश्चिम के लिए भारत की कला-दृष्टि के प्रबल प्रवक्ता बने। दूसरी ओर अंग्रेज़ माता और सिंहली पिता की संतान आनंद केंटिश कुमारस्वामी अंग्रेज़ी समाज की श्रेष्ठ अकादमिक परंपराओं में प्रशिक्षित थे। एशिया के कुछ भागों और भारत में राष्ट्रवाद के ज्वार में विज्ञान को तज वे भारत के आध्यात्मिक चिंतन को भारतीय कला में तलाशते रहे। बहुत गहरे श्रम से वे अपने स्रोत अनेक भाषाओं, पुरातत्व, इतिहास, धर्म और आध्यात्म में खोजते रहे। अपने पूर्वजों की धरती के प्रति उनमें एक गहरा नास्टेल्जिया था कि इस तरह उससे जुडने में वे प्राणपण से जुट गए।[6]

माइकल मधुसूदन दत्त 
अब इस सब के बीच से एक अहम सवाल यह उठता है कि अगर कलाशास्त्र एक स्वतंत्र ज्ञानानुशासन है, तो कलाकृति के अपने कलामूल्य और सौंदर्य मूल्य भी तो होंगे, फिर वह कृति चाहे सहित्यकृति हो, शिल्पकृति हो, सांगीतिक रचना होचित्रकृति हो या नाट्यरचना। उसका विमर्श केवल धार्मिकप्रतीकात्मक या बुद्धिजीवी किस्म का कैसे हो सकता है। कला की भाषा कोई बौद्धिक भाषा नहीं, बल्कि इन्ट्यूटिव (intuitive) संज्ञान वाली होती है जो अनुभूति और अनुभव से दीप्त रहता है, अतः वास्तविक जीवन से भी। पारंपरिक भारतीय कला जिसे हम धार्मिक की श्रेणी में रख देते हैं, है तो वह भी अनिवार्यतः मानवीय ही, मानवीय इन्द्रियों और संवेदनाओं के स्तर पर निवास करती हुई। उदाहरण के लिए शिव की छवि, या बुद्ध प्रतिमा या फिर भारतनाट्यम का एक नृत्यखण्ड...। है तो उसकी भाषा भी ऐन्द्रीयिक ही। वह भी अनिवार्य मानवीय अपील और महत्व से मंडित ही है। लेकिन आधुनिक शास्त्रीय व्याख्याओं ने बदकिस्मती से इस केंद्रीय अर्थ को नहीं पहचाना। एक कलाकृति या शिल्पकृति को केवल धर्मशास्त्रीय इलस्ट्रेशन या किसी निजंधर या प्रतीक में ही समेट लेना क्या कला का प्रकार्य है? इनमें यह तत्व हो सकते हैं, पर पूरी व्याख्या की धुरी का सन्दर्भ यही कैसे हो सकता हैदेखना होगा कि कलाकृति के रूप में वह कैसी है, हमारी इन्द्रियों, हमारे मानस के साथ वह कैसे सम्वाद करती है, उनमें कोई मानवीय भावदशाएँ, अनुभूतियाँ और संवेग हैं जो मानवीय अनुभव को अंततः ज्यादा व्यापक और गहन बनाते हैं, उन्हें कृति  कैसे साकार करती है। अर्थात कला की अन्वीक्षा को मानवीय, सामाजिक और रूपपरक दृष्टि से रखना ही शायद पहली शर्त होगी। उसमें अपने समय की, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आकृतिबन्ध की व्यवस्था भी होगी जो कलाकृति का वृहत्तर परिपाठ या कॉन्टेक्स्ट हो सकता है। उसमें डूबकर निर्वचन व्यापक सत्यों को भी खोल सकेगा।

डॉ मेघ ने यही महनीय कार्य किया है कि 'अथातो सौंदर्य जिज्ञासा' नामक अपनी पुस्तक में सौन्दर्यबोधशास्त्र के तरल ज्ञान-अनुशासन को ठोस आकार दे दिया है। उसकी महत्तम परिसीमा तय कर दी है जिसके भीतर कला और उसकी प्रक्रिया के तमाम अनिवार्य अनुषंग समेट लिए हैं। और उन तक पहुँचने की प्रविधि भी बतलाई है। यानी एक स्वतंत्र शास्त्र की सम्पूर्ण रूपरेखा को स्थिर करने का प्रयास। यह शुद्ध सिद्धांत निर्माण का क्षेत्र है, एक बेहद कठिन डगर। एस्थेटिक्स पर पश्चिम में तो खूब मनन हुआ है पर हमारे देश में वह अस्वीकृत सा ही रहा है। या तो उसे कलावाद और बूर्ज्वा कह कर ठुकरा दिया जाता है, या फिर  दार्शनिक व्यायाम। इस विषय में, और इसकी जरूरत के विषय में भ्रांतियां छाई हुई हैं।

नंदलाल बोस

अथातो सौंदर्य जिज्ञासा में दस अध्याय हैं। पहला अध्याय कला, सौंदर्य और सौन्दर्यशास्त्र है तथा अंतिम संस्कृति, मनुष्य और इतिहास। यह सबसे बाहरी और व्यापक फ्रेम है। इसमें कला और आशंसा का रिश्ता वृहद स्तर पर सक्रिय होता है।  इस व्यापकतम परिवृत्त के  भीतर कलाकृति, कलाओं का वर्गीकरण, कलाकार, आशंसक और सृजनप्रक्रिया, अभिव्यंजना और सम्प्रेषण और सौन्दर्यबोधानुभव पर अध्याय हैं। यहां शास्त्र का पूरा वास्तु गढ़ा गया है। पहले अध्याय में कला चिन्तन की विराट ऐतिहासिक विरासत उभरती है- कला के चरण, कलाचिन्तन की तीन दृष्टियां यानी कला कला की भावना, कला-प्रक्रिया और कला-प्रभाव के रूप में देखी जाती है।

सौंदर्य की खोज प्रकृति एवं कला दोनों में की गई है। सौंदर्य की अवस्थिति कहां है, यह दार्शनिक विवाद भी आकार ग्रहण करता है। लेकिन डॉ मेघ के चिंतन के शिखर तो वे महान प्रश्न एवं जिज्ञासाएं हैं जिन्हें द्वन्द्वात्मकता, समांतरता, अंतर्विरोधों को समन्वित करते हुए वे मानव-मेधा, संस्कृति और इतिहास के सम्मुख अपनी खास शैली में, बेहद सच्ची आकुलता से उठाते हैं।

मनुष्य कलाकार है तो भौतिक और प्राकृतिक शक्तियां भी कहां किसी कलाकार से कम हैं। वे भी तो बेहद सुंदर रूपों को आकार देती हैं। विज्ञान प्रकृति की इसी कला का अनुसंधान करता है। अत: कुंतल मेघ विज्ञान एवं कला का द्वन्द्व-न्याय रचकर अंतिम ध्वनि में उन्हें समन्वित भी कर डालते हैं। रूप के तत्वों अर्थात् अनुपात, संतुलन, कंट्रास्ट, सिमेट्री को वे वनस्पति जगत और प्राणी जगत में भी घटाकर दिखाते हैं। वे मैथेमैटिक्स ऑफ ब्यूटीकी झलक दिखलाते हैं और सौंदर्य और विज्ञान का समतोलन कर देते हैं।

कलाकृति के अध्याय में केवल साहित्य कृति नहीं,

राजा रवि वर्मा 
बल्कि तमाम कलाओं के संदर्भ आते हैं। कलाकृति को वे कलाभवना, कलासृजन, काला आशंसा, और तमाम सौन्दर्य मूल्यांकन  की केंद्रीय धुरी  करार देते हैं। कला अनुभव मे और  कलाकार मे भी, रूप और अंतर्वस्तु  अविभाज्य होते हैं। ये कलाकृति के रूप और अन्तर्वस्तु की एकता ही है जिसके अगर तीन आयाम माने जाएं तो इन्द्रिय बोधों के सम्मुख प्रस्तुत होने वाला आकार या गठन कृति का रूप तत्व और अर्थ का, गहराई वाला आयाम जो संवेद्य और बुद्धिगम्य है, अन्तर्वस्तु है। रूप केवल दृश्य कलाओं का ही विषय नहीं। लेकिन हर कला मे वह भिन्न तरह  से आता है। जैसे रूप में कई तहें और चरण हैं, तो अर्थ भी सूचनात्मक, भावात्मक, प्रतीकात्मक और सौंदर्यपरक होता जाता है। पूरा अध्याय चित्र, संगीत और वास्तु पर अद्भुत अन्तर्दृष्टियां प्रदान करता है। लगभग गणितीय ढंग से हर कला मे वे रूप और अंतर्वस्तु की दूरी मापते हैं। 

फिर कलाकार की धारणा की भी बारीक तहकीकात फ्रायड, जुंग, एडवर्ड सेपीर, मैलिनोवस्की, रेडक्लिफ ब्राउन और रूथबेनेडिक्ट जैसे नृतत्वशास्त्रियों के सहारे उन्मीलित होती है।

और फिर अवतीर्ण होता है एस्थेटिक्स के क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे रहस्यमय प्रश्न- अर्थात् सृजन प्रक्रिया। विभिन्न कृतियों, महाकाव्यों, कविताओं, वास्तु भवनों, मूर्तियों का निर्माण कैसे होता है – क्या इसका कोई एक खाका खींचा जा सकता है? विभिन्न कलाओं के संदर्भ में चेतन-अवचेतन की भूमिका, करने और होने की द्वन्द्वात्मकता, इन्द्रियों, मन, बुद्धि की सम्पूर्णता (स्नायु-संस्थान, मस्तिष्क और मांसपेशियों के आपसी संबंध भी) मनोविज्ञान, दर्शन, सौंदर्यबोधशास्त्र – सहित अनेक विज्ञान शाखाएं इस रहस्योन्मीलन में लगी हैं।

कला के अन्य घटकों की तरह अभिव्यंजना एवं सम्प्रेषणीयता की व्याख्या भी लगभग सभी कलाओं के संदर्भ में की गई है। प्रेषणीयता को संकेत विज्ञान (सिमियॉटिक्स) के सहारे अनेक कलाओं में घटाया गया है।

सौंदर्यानुभव के अध्याय में बदलते सौंदर्यानुभवों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। उदाहरण के लिए नाटक के संदर्भ में भरत का रस सूत्र, ब्रेख्त का एपिक थियेटर, बैकेट और आयेनेस्को का एब्सर्ड थियेटरऔर ज्यां जेने के एंटी थियेटर के रूप देखे जा सकते हैं। इतिहास-क्रम में उनके सामाजिक उत्सों को खोजा गया है। संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, प्रेक्षण, भावना, चिंतन की सीढ़ियां यहां भी चढ़ी गई हैं।

अथातो सौंदर्य जिज्ञासा 

कह सकते हैं कि कुंतल मेघ का यह मेघवर्णी विवेचन हर धारणा के भीतर छिपे बारीक तंतुओं, रज्जुओं, संबंधों को उन्मीलित करने वाला विवेचन है – जहां हर रहस्य अनेक विरोधाभासों की पकड़ में खुलता है। यह पुस्तक सौंदर्यबोध शास्त्र की गंभीरतम संहिता है – जिसमें एक ओर अब तक के तमाम सौंदर्य चिंतन का वृहद् फलक पर समाहार हुआ है, वहां इस परंपरा से आगे प्रस्थान एवं नए प्रयाण, नई प्रतिपत्तियां, नई दृष्टियां भी रखी गई हैं। एक सम्पूर्ण शास्त्र,  एक सम्पूर्ण सिस्टम का निर्माण भारतीय सौंदर्यशास्त्र के लिए एक अनुपम योगदान है। लेकिन अवदान इतना ही नहीं है कि उन्होंने कला के जिज्ञासुओं के हाथ में एक सुनिश्चित शोध अभिकल्प और संयत्र थमा दिया है, सिद्धांत निर्माण के साथ साथ उन्होंने निरंतर सौंदर्यबोधशास्त्रीय आलोचिंतना के अनुप्रयोग भी तो किए हैं।

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अब क्यों न उनकी सौंदर्यबोधी दृष्टि की विशिष्टता की बात करें जिसका आधार ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन रहा है – उनका तमाम लेखन सूक्ष्म स्तर पर इसी उपागम का महती अनुप्रयोग है। यह आधारशिला है – जिसकी दीप्ति उनके लेखन में, विश्लेषणों में हर जगह है – फिर वह चाहे आधुनिकता पर उनका लेखन हो, एक सुदीर्घ इतिहास में,  हिन्दी साहित्य के विभिन्न कवियों (सिद्धों से लेकर सूरदास, तुलसीदास, मीरा, महादेवी और प्रसाद आदि) रीतिकालीन साहित्य हो, आधुनिक साहित्य की कृतियां और कृतीकार हों। और यही क्यों, उनका मानना है कि अन्य कलाओं की कृतियों में भी कला की अविरल मानवीय अपील को रेखांकित और संबोधित किए बगैर सौंदर्यबोधी- कला-चिंतन अधर में लटका रहेगा। अत: इसके हित सौंदर्यबोध शास्त्र और समाज दर्शन का आमना-सामना करना ही होगा – तभी कला और जीवन का तादात्म्य फलित होगा –

इसीलिए अजंता के चित्रों में शृंगार करती हुई युवती और दैनिक लौकिक जिंदगी में शृंगार करके खड़ी हुई अपनी प्रिया के प्रति प्रतिबोध में सौंदर्यबोध शास्त्र फर्क न कर सकेगा। हमारे लौकिक जीवन में घटी हुई त्रासदी  तथा भवभूति के उत्तररामचरित में राम की त्रासदी के मानवीय गुणों का समान महत्व हो जाएगा। इस तरह कलामय जीवन तथा जीवनयुक्त कला एक जैसे प्रत्यय बन सकेंगे।[7] अत: उनके अनुसार सौंदर्यबोध का सही आधुनिक संदर्भ होगा – पहले साहित्य और कलाओं का कांत संयोग, तदुपरांत कला-साहित्य और जीवन की द्वन्द्वात्मक एकता ।  

दूसरा महत्वपूर्ण प्रयाण कला एवं कलाकृति को उसके अनिवार्य सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिपाठ (context) में समझने का भी है – उसके सामाजिक उत्सों की तलाश से वह सम्पन्न होगा। डॉ. कुंतल मेघ ने जब भी किसी कृति का, कृती कलाकार की कला भावना का डीकन्स्ट्रक्शन किया है – सदा देश, काल, संस्कृति से जोड़कर ही। कला की संरचना के रूप भी समाज के जटिल यथार्थ से दीप्त होते ही हैं।

हमारी प्रति 

 ‘यूनान में त्रासदी की संरचना के पीछे वहां के यथार्थ जीवन एवं इतिहास की आतंकपूर्ण यथार्थता थी – जिसके कारण दुर्भाग्य देवता (नेमेसिस) कुलीन नायक को एक हेमार्शिया (कोई बड़ी भूल) की ओर धकेल देता है। दूसरी ओर आर्य गोत्रों की ऋचाओं में स्वस्ति का अभिषेक हुआ था – आर्यों का ऋत (नैतिक व्यवस्था) के मंगल पक्ष पर प्रबल विश्वास था[8] – अत: यहां जो नाटक का आकृतिबंध उभरा उसमें हत्या का आतंक या त्रासदी के भाव न थे।

तीसरी बात जो उनके इतिहास बोध से ही उपजती है कि तथाकथित भौतिकवादियों की तरह  डॉ मेघ कभी इतिहास का परित्याग नहीं करते – और न ही उसका पुनरुत्थान करते हैं। वे न तो इतिहास के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त हैं – न उसके अंधभक्त। तभी वे इतिहास दर्शन के सच्चे अन्वेषक हो पाए हैं। कहते हैं कि इस के लिए आवश्यक है कि हम नए ज्ञान औजारों का इस्तेमाल करके (सामाजिक विज्ञानों की सहायता से) उसका पुनर्मूल्यांकन करें। नहीं तो कलाशास्त्रों की इतनी ज्योतिर्मयी परंपरा का अतीत हमसे छिन जाएगा।[9] भारतीय सौंदर्यबोध के संदर्भ मे यही हुआ है की या तो वर्तमान से विछिन्न हो हम अतीत मे लुक छिप जाते हैं या फिर उसे सिरे से ही नकार देते हैं।

फिर गतिमान सभ्यता का हर चरण ज्ञान के संधान में अपने लिए विचार के नए औजार और नयी ज्ञान शाखाएँ जोड़ता आया है। जैसे जैसे ज्ञान का क्षितिज व्यापक होता है वैसे वैसे साधक और जिज्ञासु का मानस क्षितिज  भी तो विस्तार पाता है। डॉ. मेघ चूंकि सुपरिगठन के, संस्कृति के रहस्यों के साधक हैंवे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के सहवर्तनमें विश्वास करते हैं, तभी तो उनके निर्वचन में समाज विज्ञान, नृतत्वशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, पुरातत्व, राजनीति और दर्शन शास्त्र ही नहींभौतिकी, रसायनशास्त्र, जीवशास्त्र, चिकित्सा के अलावा सायनेटिक्स और सायबरनेटिक्स जैसी अधुनातन प्रशाखाएं भी शामिल हैं। वे आवश्यकतानुसार उनके दृष्टिबिंदुओं और औजारों का प्रयोग करते हैं। इसे लोगों ने घटाटोप भी कहा है- पर है यह सत्य की समग्रता तक पहुंचने का आधुनिक मार्ग ही । वे मानते हैं ज्ञान के समाजशास्त्र का सहस्रदल कमल अक्सर तीन ढंग से खिलता है। (अ) परस्पर व्यवहार द्वारा (आ) शब्दों के रजिस्टरों की अदला बदली से (इ) रूपकों के अंतरबंधन से।[10]

चूंकि सौदर्यबोधशास्त्र स्वयं कलाओं का संश्लेष है तो सौंदर्यबोधशास्त्रीय शोध की प्रकृति भी  अंतर्कलानुशासनो वाली और तुलनात्मक होगी ही। कम से कम दो या उससे अधिक कलाओं का मिलवर्तनकिसी  कलात्मक शोध को सौंदर्य बोधशास्त्रीय शोध में रूपांतरित कर सकता है । 

जैसे सौंदर्यबोधशास्त्र को लेकर एक भ्रांति यह रही है कि यह मात्र अनुभूति केंद्रित है – यानी नितांत वैयक्तिक है- अत: ज्ञानानुशासन नहीं बन सकता, वहीं दूसरी ओर दार्शनिक अमूर्तनों के चलते यह धारणा भी है कि यह ठेठ शुष्क बौद्धिक तर्कजाल है। उसी तरह एक दूसरी भ्रांति सौंदर्य शब्द को लेकर यह भी छायी रही है कि यह केवल सुखकर या सुखात्मक अनुभूति ही है। कैसे यह हम भूल गए कि पारंपरिक भारतीय काव्यशास्त्र में भी स्थाई भावों और रसों की जो गणना हुई हैउसमें यह बात पहले से विद्यमान है – श्रृंगार के साथ-साथ वीभत्स है, रौद्र भी, करुण भी। और यह सब आनंदया रस में ही समाहित है – आनंद का अर्थ क्या हर्षहै? बिल्कुल भी नहीं – यह तो वास्तविक लौकिक अनुभवों से कुछ भिन्न मानसिक कला अनुभव है। मानवीय भाव दशाओं की रेंज नौ रसों में भी काफी व्यापक है और फिर यह भी कभी दावा नहीं किया गया है कि यह अंतिम है – इतिहास, सभ्यता, संस्कृति के बढ़ते कदम इन्हें बदलते भी हैं – इनमें नए-नए भाव जोड़ते भी हैं। उसी तरह सौंदर्यबोध शास्त्र के परिवृत्त में असुंदर, आतंकपूर्ण, कुरूप, कुत्सित और किमाकार को भी स्थान प्राप्त है।

डॉ. मेघ सच ही तो कहते हैं कि कलाओं और उनमें भी दृश्य कलाओं को लेकर दृश्य अनपढ़ताका गहरा सूनापन पसरा है। चित्र, मूर्ति और वास्तु की औसत समझदारी भी हम हासिल नहीं कर पाए। तब इतनी विशाल विरासत तथा धरोहर हमें क्या दे पाएगी? फिर नग्नता और काम को लेकर भी हमारी दृष्टि में विकार आ चुका है। पारंपरिक कला की दृष्टि हमसे ज्यादा स्वस्थ थी।

मेघ अंक

विचारों का इतिहास इस तरह नहीं लिखा जाता कि विचारधारात्मक अंतरों को हम सुनना ही न चाहें। भारतीय दार्शनिक ग्रंथों में एक अद्भुत तरीका था – पहले पूर्वपक्ष को प्रस्तुत किया जाता – फिर उसका खंडन-मंडन करते हुए अपनी स्थापनाएं रखी जाती थीं – पूर्वग्रंथों पर टीकाएं और भाष्य लिखकर भी उन्हें अपने रंग में ढाल लिया जाता था – इस तरह दार्शनिक विवाद का जो क्रम चलता था वह शताब्दियों तक को समेट लेता था (मध्ययुगीन रसदर्शन और समकालीन सौंदर्यबोध की प्रस्तावना)। हर दार्शनिक यही करता है – भट्टलोल्लट का विरोध श्री शंकुक करते हैं और मीमांसा दृष्टि को न्याय दृष्टि में  ढाल देते हैं, श्री शंकुक का विरोध भट्टतौत और भट्टनायक करते हैं .... मध्यकालीन कलाशास्त्रीय इतिहास लेखन की यह तरकीब रही है कि इसमें विरोध को कभी अनुचित नहीं माना जाता बल्कि एक अनवरत संवाद चलता रहता है।

कलाओं के विषय में उनकी आंखें एक स्वप्न देखती हैं जैसे-जैसे धीरे-धीरे एक गुणात्मक परिवर्तन घटित होगा, समाज बदलेगा – कलाओं का संसार भी नागरक और मध्यवर्ग से उतर कर जन-जन के अनुभवों का वाहक होगा – सौंदर्य के रूप बदलेंगे, धारणाएं विकसित होंगी – और तब सौंदर्य भी रति और शोभा की बंद सीपियों से मोती की तरह बाहर आकर कर्म एवं विचार से जुड़ जाएगा।

 



[1] देखिये रमेश कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली : नेशनल प्ब्लिशिंग हाउस, 1980) पृष्ठ– 316-17

[2] रमेश कुंतल मेघ, अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (नयी दिल्ली : द मैक्मिलन कंपनी आफॅ इंडिया लि., 1977) (प्रस्तावना) 

[3] निहार रंजन रे, एन अप्रोच टू इंडियन आर्ट (चंडीगढ़ : पब्लिकेशन ब्यूरो, पंजाब यूनिवर्सिटी, 1974) पृष्ठ-1

[4] वही, पृष्ठ- 3 से 5 

[5] वही, पृष्ठ- 9 

[6] वही, पृष्ठ- 12 से 16

[7] रमेश कुंतल मेघ, अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (नयी दिल्ली : द मैक्मिलन कंपनी आफॅ इंडिया लि. 1977) (प्रस्तावना)

[8] देखिये रमेश कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली : नेशनल प्ब्लिशिंग हाउस, 1980) (भूमिका) पृष्ठ– 19

[9] रमेश कुंतल मेघ, मध्ययुगीन रसदर्शन एवं सौंदर्यबोध (नयी दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2012) (मुखबंध)  

[10] देखिये रमेश कुंतल मेघ, साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (नयी दिल्ली : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1980) (भूमिका) पृष्ठ– 29