मूर्ति कला पर कुछ नोट्स
(संदर्भ : रमेश कुंतल मेघ)
रमेश कुंतल मेघ के सौंदर्यबोध शास्त्र को समझने के निमित्त यह लेख कोलकाता से प्रकाशित मुक्तांचल पत्रिका के मेघ विशेषांक में छपा था।
शिल्पकला या मूर्तिकला की बात अगर चले तो
कुछ स्मृतियाँ कौंधती हैं, जैसे क्रमशः कोहरे में से, धुन्ध और धुँए में से प्रकट हो
रही हों। कुछ मूर्तिशिल्प थे जो बचपन और किशोरावस्था में हमारे साथ हमारे घर मे रहा
करते थे। घर के भीतर अपने निर्धारित कोनों में स्थापित वे पश्चिमी सौंदर्य छवियां और
दृश्य थे। साल दर साल वहीं। अगर किसी दिन वे अपनी जगहों से हटते तो चतुर्दिक दृश्य
की कैफियत खटकने लगती शायद।
फिर घर से बाहर किसी चौराहे पर किसी इतिहास
पुरुष, किसी घुड़सवार की भव्य प्रतिमा, रंग बदलते आकाश के नीचे। उसके इर्द-गिर्द जीवन
नदी सा बहता रहता, लेकिन वह स्थिर, थमी हुई सबको देखती रहती। याद आता है किसी बगीचे
में बारिश में भीगती कोई आवक्ष मूर्ति। फिर मुम्बई आदि शहरों के संग्रहालयों में स्पॉटलाइट
की दीप्ति तले देखी गईं अनेक मूर्त-अमूर्त शिल्पछवियां। अरब की खाड़ी यानी समुद्र में
फेरी से घारापुरी द्वीप की यात्रा के बाद हाथीगुम्फा (एलिफेंटा) के भीतर नीम अन्धेरे
में प्रकट होती त्रिमूर्ति के विराट तीन मुख, विराटकाय अर्धनारीश्वर, और शिवकथा के
अनेक नाटकीय क्षणों को अंकित करने वाले तमाम फलक। ढाई हजार साल पुरातन कान्हेरी या
कृष्णशैल की शिला को काट कर बनाये गए चैत्य और विहारों में कोरी गईं बुद्ध और बोधिसत्वों
की ध्यान में डूबी छवियाँ।
और फिर पेरिस के लूव्र में अचंभित कर देने
वाला यूनानी, रोमीय और मिस्री शिल्प कला का अपार वैभव। फ्रांस के ही वर्साइ राजमहल
से संलग्न व्यापक बाग बगीचों, जलाशयों के आसपास और बीच में रखी गईं आदमकद मूर्तियाँ-
विभिन्न मुद्राओं और भंगिमाओं में। कहीं कभी किसी के अंग भग्न भी हों तो भी उसके पूर्ण
प्रभाव में कोई भंग या दरार नहीं आने पाती, जैसे जीवित से भी कुछ अधिक प्राणवत्ता थी,
विलक्षणता थी।
यह सब था, लेकिन रहस्य भरे इस सम्मोहन के
आगे तो कुछ नहीं था, बस ठिठक जाना भर, दृष्टि का अटक जाना भर, कुछ देर के लिए चेतना
का रोज़मर्रा के भाव प्रवाह से अलग हो जाना, निजमूलों से छिटक जाना, कुछ मुक्तमना सी
अवस्था। यह कैसा देखना था भला।
हम इसी जगत में, इसी रूपमय जगत में रहते
चले जाते हैं, भीड़ में से गुज़रते हैं, बाज़ारों में निकलते हैं, आस पास मनुष्य, पशु,
वस्तुएँ… और दृष्टि है कि इधर उधर फिसलती रहती है, ज़्यादा तो कहीं रुकती ही नहीं, पर
फिर अचानक एक काले ग्रेनाइट पत्थर में या श्वेत
संगेमरमर ढली कोई मनुष्यदेह खड़ी मिलती है, कोई
काष्ठ का चेहरा, कोई आवक्ष प्रतिमा,
कोई चेष्टा, कोई मुद्रा, कोई भंगिमा और हमारी
आंख थिर हो जाती है, अटक जाती है, आबद्ध हो जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि हर आंख
वहाँ अटके ऐसा ज़रूरी भी नहीं क्योंकि चीजों और जनाकीर्ण जगत को देखते देखते हमारी आँखें
एक तरह के बासीपन और अंधत्व की शिकार भी हो जाती हैं।
लेकिन फिर इस अभेद्य सम्मोहन के आगे बस अंधेरा था, उसके परे क्या राह है, कहाँ पहुंचा जा सकता है, कुछ भी तो पता नहीं। बस एक ठिठकन। इसके आगे भी उन मूर्त रूपों की अनिर्वचनीय सी लगती मौन भाषा को सुना जा सकता है, उसके भीतर के संसार में- भावों, विचारों, स्वप्नों की पश्यंती वाग्धारा में उतरा जा सकता है, यह तो मेरे गुरु सौन्दर्यतत्ववेत्ता रमेश कुंतल मेघ की बदौलत पता चला।
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आज सोचो तो हैरानी होती है कि एक ओर आधुनिकता
और आधुनिकीकरण पर इतना प्रभूत चिंतन करने वाला एक व्यक्ति आदिम समय और पुरातन मिथकों
के संसार मे भी भटकता है। आधुनिक समाज-विज्ञानों से निरन्तर संवादरत एक अध्येता विचारक
प्राचीन भारतीय दर्शन, रस काव्यशास्त्र के
रहस्यों का भी उन्मीलन किया करता है। साहित्य के शाब्दी संसार का वासी अशाब्दी कलाओं
की दुनिया का भी घुमन्तू बाशिंदा है। वह सौंदर्यप्राश्निक और प्रबल जिज्ञासु ही नहीं,
वह तो समाज-सांस्कृतिक परिवृत्त में उसको (सौंदर्य को) खोजा चाहता है, और उसके ज़रिये
सत्य और शिवत्व की स्थापना करना चाहता है। क्योंकि शायद अपने गुरु आचार्य हज़ारीप्रसाद
द्विवेदी की तरह उसे भी यह भान है कि अपने अतीत की ज्ञान परंपरा से अछूते रहकर आधुनिकता
की बात कैसे हो सकती है; कि अपनी ज़मीन पर पुख्ता ढंग से खड़े हुए बिना दूसरों से हाथ
कैसे मिलाया जा सकता है।*1
एम. ए. की कक्षाओं में वे भारतीय और पाश्चात्य
काव्यशास्त्र की गुत्थियां सुलझा रहे हैं, भरत के रससूत्र की व्याख्या करते हैं, लेकिन
फिर सौन्दर्यबोधशास्त्र की कक्षाओं में वे श्रीशंकुक का चित्रसूत्र खोलते हैं- चित्रतुरंग
न्याय। चित्रकला के षडंगो की व्याख्या करते हैं-
रूपभेदः प्रमाणानि भाव
लावण्य योजनं
सादृश्य वर्णिकभंग इति
चित्र षडंगकम।
वे अपने विद्यार्थियों से कहते हैं कि मूर्तिकला
और भारतीय दृश्यकलाओं के करीब जाना तो पहले अपने नयन धो कर आना। इसके शायद कई अर्थ
थे। एक तो वही जिसकी ओर इरविन ऐडमैन ने इशारा किया था कि हमें अपनी कंडीशनिंग से
बाहर आना होगा, आंखों की खो चुकी तात्कालिकता
और निश्छलता को पुनः प्राप्त करना होगा।*2 दूसरे नग्नता विषयक ग्रंथियों
से मुक्ति पाने की बात थी। डॉ. मेघ एक जगह लिखते है, ‘‘आखिर हम नग्न मानव-देह से इतना
डरते घबराते क्यों हैं? क्यों नहीं अपने बालमन की युवाघड़ी को पीछे करके हम अपने शिशु
नयन खोल पाते? हाँ! अब मानवता के अपने बचपन तथा समूह संकलित अवचेतन (कलेक्टिव अनकांशस)
को जगा तो लें।’’*3
वे बारम्बार यह भी कहते कि इतनी समृद्ध
और दीर्घ कला परम्पराओं वाले इस देश में चतुर्दिक एक तरह की अनपढ़ता व्याप्त है- यह साधारण
लोगों में तो है ही, पढे लिखे मनीषियों, सुधीजनों तक में है। इसे वे दृश्य असंवेदना
या ‘विज़ुअल इललिट्रेसी’ कहते।*4
वे अजंता के पद्मपाणि बोधिसत्व के चित्र
में ठहरी हुई गहन करुणा की भंगिमा को समझाते हैं। वे दीदारगंज की चँवरधारिणी यक्षिणी
के परिपाठ को खोलते हैं और तब उस दृश्य पाठ का भाष्य शिल्पकला के पारिभाषिकों को समझाते
हुए करते है।
यह सब सुनते हुए, हम कुछ-कुछ समझते हैं,
बहुत कुछ नहीं भी समझ पाते। फिर भी गुनते रहते हैं। शायद आजीवन गुनते रहेंगे। वे अलग
अलग कलाओं की दुनिया में ले जा कर, घुमाकर जब बाहर आते हैं तो फिर वे सौन्दर्यबोधशास्त्र
की उस दुनिया की ओर इशारा करते हैं जहाँ ये सब हैं- अपनी विलक्षणताओं और कुछ केंद्रीय
साम्यताओं के ज़रिए एक दूसरे में प्रवाहित होती हुईं। उस दुनिया में कलाकार है, माध्यम
है, रचना प्रक्रिया है, रूप और अंतर्वस्तुमय कलाकृति है और है आशंसक। वहां अभिव्यंजना-सम्प्रेषण,
कौशल और तकनीक, मुद्रा, भाव-भंगिमा, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, वृत्तांत और सादृश्य सभी
तो है।
वे बताते हैं कि काव्य और संगीत से शिल्पकला कैसे अलग है क्योंकि यह अचल कला है, स्थानिक है, सुघट्यात्मक (प्लास्टिक - जिसे आयतन में ढाला जा सकता है) है। लेकिन दूसरी ओर उसमें संगीत की अमूर्त लय भी है जिसके कारण उसे प्रशीतित संगीत (फ्रोजेन म्यूजिक) कहा जाता है, और काव्यात्मक सादृश्य तो रूपंकर कलाओं में भी विद्यमान होता ही है। और यों उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र की सैद्धान्तिकी रची। ‘अथातो सौंदर्य जिज्ञासा’ जैसा ग्रंथ सौन्दर्यबोधशास्त्र के घटक तत्वों का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रंथ है। और फिर ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’ मनुष्य के कला विषयक चिंतन और चेतनाओं की यात्रा की महती खोज करता है। लेकिन फिर वे कुछ और आगे बढ़कर इन कलाओं के अध्ययन के मॉडल भी रचते हैं और उसका अनुप्रयोग भी करते हैं। वे इनके ज़रिए सौंदर्यबोधशास्त्रीय रिसर्च या अनुसंधान की नींव भी रखते हैं, जिसका चरित्र अनिवार्यतः अंतर्कलात्मक या तुलनात्मक है, और जिसकी शब्दावली और भाषा एक तरह की ‘मेटा लैंग्वेज’ है।
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अब आइये मामल्लपुरम के महिषासुरमर्दिनी फलक के उनके सौंदर्यबोधशास्त्रीय अध्ययन के करीब चलें ताकि उनके मॉडल के कुछ सूत्र हासिल हों।
मामल्लपुरम की महिषासुरमर्दिनी गुफ़ा के
उस विशिष्ट फलक तक आने से पहले डॉ. मेघ एक ‘लौंग शॉट’ लेते हैं, उस एक कलाकृति को एक
वृहत्तर देश (स्पेस) और फिर वृहत्तर काल (ऐतिहासिक काल) मे लोकेट करते हैं। वे एक दृश्य
पाठ (विज़ुअल टेक्स्ट) का परिपाठ (कॉन्टेक्स्ट) पहले रचते हैं।
वे लिखते हैं भारत के, ‘‘दक्षिणापथ में
ईसापूर्व सातवीं शती में तमिलनाडु के पल्लवयुग में विद्याओं और कलाओं के नवाचार की
भरमार रही।’’*5
अर्थात एक वृहत देश और काल की सूचना के
साथ उस समय के कलाविषयक वातावरण का भी संकेत। और फिर ‘ज़ीरो इन’ करते हुए, काफी धीरे
धीरे अपने मूल पाठ तक आने की तकनीक क्लासिक कृतियों को समझने की एक कुंजी है। दक्षिणापथ
में तमिलनाडु और फिर उसमें मामल्लपुरम नगर, जो एक नौसेना पत्तन और शैव - वैष्णवों का
तीर्थनगर था। वे मल्ल शब्द से मामल्लपुरम नाम की व्याख्या करते हैं और यह भी कि इसे
बसाने वाले नरसिंह वर्मन (630-668 ई.पू.) एक कुशल मल्ल (पहलवान) थे। अतः आशंसा केवल
कोरी भावुक चेष्टा नहीं, वरन्
गहरी ज्ञान मीमांसा भी है।
वे समय के इस नाभिकेंद्र (पेग) को थामे
हुए यह भी कहते हैं कि नरसिंह वर्मन कश्मीर सम्राट ललितादित्य के समकालीन थे। यानी
काल बोध में धुर दक्षिण से धुर उत्तर तक के स्पेस को भी अंकित कर देते हैं।
फिर वे पल्लव कला के प्रथम चरण के वास्तुरूपों की चर्चा करते हैं। (सटीक होने की उनकी विद्वत्तापूर्ण संलग्नता ही उनके वाक्यों को संश्लिष्ट भी बनाती है)। रथ, गुफा, मंडप, शिलापट्ट खुदवाना और उत्कीर्णन जिसमें संयम, सरलता, कौशल और परिष्कार का सौंदर्यबोध झलकता है। और फिर वे समय और देश में भविष्य में अपसरण करते हुए लिखते हैं- “कालचक्र में इन रूपों का प्रभाव दक्षिण एशिया के जावा और कम्बोडिया (बोरोबोदूर एवं अंगकोरवाट के संदर्भ) तक फैला।”
![]() |
अंगकोरवाट, कंबोडिया |
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बोरोबदूर, जावा इंडोनेशिया |
इस प्रथम चरण में शिलाकाट तकनीक में उकेरन
(कार्विंग) ऊपर से नीचे की ओर और बाहर से अंदर की ओर होता था। वे मामल्लपुरम के धार्मिक
इतिहास की ओर संकेत करते हैं और उस की सांस्कृतिक और मिथकीय समृद्धि की चर्चा करते
हैं जिसमें शैव और वैष्णव समान महत्वशाली थे तथा लक्ष्मी और दुर्गा के रूप भी अंतर्बाह्य
व्याप्त थे।
और यों वे दुर्गा के पैनल के सम्मुख आते
हैं तो प्रथम पाठ में नयन सम्मूर्तियों की पहचान करते हैं। मूर्ति कला में मनुष्य देह
के साथ-साथ एकाकी प्रतिमा का वैभव है तो एक दृश्य, एक स्थिति, एक दशा, महावृत्तांत
या मिथक के एक नाटकीय क्षण में भी फ्रीज़ किया जाता है। माना जाता है कि शिल्प में सदा
गति अंतर्निहित रहती है, एक क्षण जिसके आगे और पीछे जीवन गतिमान है। इस पैनल को भारतीय
दर्शक तो महिषासुरमर्दिनी के रूप में पहचान लेता है पर कोई अनजान भी उसमें युद्ध की
ऊर्जा और तनाव को तो पढ़ ही लेगा।
तो दुर्गा यहाँ महिषासुर से आकार में छोटी अंकित हुई हैं, उनके आठ हाथ तो हैं और वे सिंह पर सवार एक षोडषी सी हैं और धनुष की डोरी कान तक खींचे हैं। दूसरी ओर महिष मुख और मानव देह वाला महिषासुर है- बड़ा और चौड़े कंधों वाला बलशाली पुरुष। हाथ मे भारी गदा थामे है, फिर भी तीरों की बौछार से अस्तव्यस्त हुआ सा जैसे मुड़ रहा है, बच रहा है, बैकफुट पर है, पीठ दिखा रहा है।
डॉ. मेघ शिल्पकार की भूमिका में जाकर पैनल
की पूरी संयोजना और कंपोजीशन की व्याख्या करते हैं, प्रतीकों की भाषा पढ़ते हैं, मुद्राओं
और भंगिमाओं के प्रति सचेत होते हैं, तालमान और अनुपात के संबंधों की बात करते हैं,
आयतन और देढ आयामी रिलीफ़ में गहराई और पर्सपेक्टिव
के प्रश्नों के रूबरू होते हैं। दुर्गा महिषासुर से आकार में लगभग आधी हैं, जिससे पर्सपेक्टिव
या दूरी का कलात्मक भ्रम पैदा हुआ है। माना जाता है कि भारतीय कला में पर्सपेक्टिव
की धारणा नहीं है। कि भारतीय कला का अपना निजी
व्याकरण है और कमसकम आधुनिकता से पूर्व भारतीय कलालोक शरीराध्यात्मिक रहा है, यूनानी
कला की तरह एनाटॉमीपरक नहीं।
पर यहाँ ऐसा तो नहीं लगता। अग्रभूमि में
(फोरग्राउंड) में महिषासुर है, देवी पृष्ठभूमि से (बैकग्राउंड) आगे बढ़ती दिखती हैं।
और रमेश कुंतल मेघ की व्याख्या वीररस के उत्साह और भयानक रस की भीति तक पहुंचती है,
हम युद्ध का दर्शन करते हैं। यहां महिषासुर के वध का चिरपरिचित मोटिफ नहीं, उससे पहले
का घमासान है।
दृश्य में कई नवोन्मेष हैं। जैसे देवी के
हाथों में तीरकमान है न कि भाला। महिषासुर का मुख महिष और शरीर मनुष्य का है, परिपाटी
के विपरीत। दुर्गा के गिर्द घेरा बनाए हुए गण बौने और स्थूलकाय हैं जबकि महिष के योद्धा
लम्बे -छरहरे तथा देवताओं के छद्म वेश में हैं। खैर..
निष्कर्षतः जितना गझिन यह पैनल है, इस निर्भाषिक
कला का मेघ जी का भाष्य भी उससे कम गझिन नहीं है। तो फिर हम आप भी इस इंद्रियसम्वेद्य
रूपों वाली कला दुनिया के भीतर कदम तो रखें, रूबरू तो हों, नयन तो खोलें…
●
कान्हेरी की आठ सौ गुफाओं वाली बौद्ध बस्ती को देख ऐसा ही सम्मोहन जगा था। लेकिन सम्मोहन से आगे जाने की प्रेरणा हुई थी। और तब कुंतल मेघ के कला(कार)- कलाकृति - और आशंसा वाले मॉडल के तहत कान्हेरी की बौद्ध शिल्पकला पर लिख पाना सम्भव हुआ था।
सन्दर्भ
1. रमेश
कुंतल मेघ, आलोचना को होने दो केंद्र-अपसारी, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018), पृष्ठ-216.
2. इरविन
एडमैन, ललितकलाएँ और मनुष्य, (दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1966) पृष्ठ-54.
3. रमेश
कुंतल मेघ : आपकी खातिर मुनासिब कार्यवाहियाँ, (कानपुर: अमन प्रकाशन, 2018) पृष्ठ-83.
4. वही…….
पृष्ठ- 69-72.
5. संस्कृति
(पत्रिका) में रमेशकुंतल मेघ के लेख से, (दिल्ली: भारत सरकार: संस्कृति मंत्रालय,
2010), पृष्ठ 1-4 तक
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मुंबई की एलिफेंटा गुफाओं से लौटते हुए डॉ. मेघ के साथ |
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