मंगलवार, जनवरी 26, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा

दो उपन्‍यासों के हवाले से
भाग तीन






अब कलिकथा की बात। नायक इसमें भी एक बूढ़ा व्यक्ति है लेकिन इसमें के आयाम कई पीढ़ियों तक फैलते हैं। यह समय भी दो तरह का है - व्यक्ति का इतिहास या निजी इतिहास और सामाजिक इतिहास। स्पेस भी व्यक्ति किशोर के घर से लेकर कलकत्ता शहर, सम्पूर्ण देश और फिर ग्लोबल चेतनाओं के रूप में फैलता सिकुड़ता है। समय और स्थान के ये दो आयाम (निजी और सामाजिक) समानांतर भी हैं, एक दूसरे में प्रतिबिंबित भी होते हैं, टकराते हैं और किसी बिंदु पर आकर गुंथ जाते हैं। इसमें कथा का केंद्र 'ऐ लड़की' की अम्मू की तरह निष्क्रिय स्थिति में नहीं, बल्कि एक बार दृष्टि बदल जाने पर इतिहास और वर्तमान की दिशाओं में खूब सक्रिय हो जाता है। स्मृति परंपराओं की खोज में निकलता है। ये अम्मू की स्मृतियों की तरह की अनैच्छिक स्मृति (इन्वॉलैन्टरी मेमोरी) नहीं, बल्कि ऐच्छिक यात्रा है। अनैच्छिक स्मृति के बाबत प्रूस्त ने अपने जीवन अनुभवों को खूब खंगाला है। मादलेन नाम की पेस्ट्री की गंध जिस तरह उसे उसके क्रॉम्बे नामक अपने कस्बे में ले जाती है। ऐसी स्मृति ध्यान-गम्य और ऐच्छिक स्मृति से बिल्कुल भिन्न होती है। बर्गसां भी कालावधि (ड्यूरे) के अपने जीवन दर्शन में यह मानते हैं कि जब कोई कालावधि जीवन की वास्तविकता बन जाती है तो वह आदमी को समय की ग्रस्तता से मुक्त कर देती है।
ऊपर-ऊपर से देखें तो यह एक सामान्य आदमी की कथा है, जिसके जीवन में कुछ नाटकीय घटित नहीं हुआ है पर इस कथा में पर्सेप्शन के बदल जाने से जीवन के मायने बदल जाने की बात खुलती है।
पूरी कथा एक महारूपक में संघनित होती है और उससे जुड़ी मेटानॉमिक डिटेल में खुलती है। (रोमन याकोब्सन का उपरोक्त संदर्भ) यह रूपक बाईपास सर्जरी और दिमाग पर कुछ चोट लगने का है। इस सर्जरी में दिल तक रक्त ले जाने वाली नलियों को खोल दिया जाता है ताकि 'हृदय को पूरा रक्त मिल सके'। दूसरी ओर सिर की चोट से दिमाग में कुछ 'खलल' पैदा हो गया है। इस सब के बाद किशोर बाबू का जीवन एवं दृष्टि बदल जाती है। जीवन के जिन पक्षों को वो अब तक बाईपास करते रहे, अब वही उनकी चेतना के केंद्र में आ जाते हैं। फिर ये संदर्भ व्यक्ति जीवन के हों या बृहत्तर सामाजिक जीवन के। वे अपने इतिहास की ओर मुड़ते हैं - अपना बचपन, पिता, दादा, परदादा ... और उनके जीवन को भीतर से समझना चाहते हैं। काल का तीर अचानक पीछे की ओर चल निकलता है। जिस देश एवं काल में जाकर रुकता है, उसके केंद्र या नायक बदल जाते हैं (कभी पिता केदार, कभी रामविलास दादाजी, फिर उनके पिता...), तीर बीच बीच में फिर किशोर बाबू के वर्तमान और अतीत में भी लौटता है। अत: उपन्यास का समय आगे पीछे यात्रा करता रहता है।
किशोर बाबू की जिंदगी और भारतीय समाज का समय सामान्यत: दो भागों में बंटा है। आजादी और विभाजन (1947) से पहले का काल और बाद का काल। इसे इतिहास की भाषा में कहें तो देश का कोलोनियल पास्ट और पोस्ट कोलोनियल समय कह सकते हैं। विभाजन से पहले आजादी के सपने हैं, उथल पुथल, जद्दोजहद और सरगर्मी है और विभाजन के बाद है सामाजिक पतन। किशोर बाबू के जीवन में भी यही विभाजन प्रतिबिंबित हुआ है। पोस्ट कोलोनियल समय की सारी असंवेदना, आवरण, छद्म, अमानवीयता और दर्प किशोर बाबू में भी है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोधी किशोर, अब इस उत्तरार्द्ध में 'चुने हुए डिक्टेटर' या स्वयं कोलोनियल भूमिका में शिफ्ट हो गया है। और यह हमारे महादेश की त्रासदी भी है।
लेकिन बाईपास सर्जरी के बाद अजस्र काल में एक तीसरा समय उभर आता है और किशोर बाबू के तमाम भीतरी बाहरी आवरणों को खुरच देता है। यहीं से पात्रों और घटनाओं को लेकर दो समयों में जक्सटापोजीशनिंग या कन्ट्रास्ट का शिल्प उभरने लगता है। गाड़ियों से उतर कर किशोर बाबू कलकत्ते की गलियों, चौराहों और उसके जीवन में भटकने लगते हैं।
फिर अचानक समय का तीर निजी और बृहत्तर दोनों संदर्भों में भविष्य की ओर मुड़ जाता है और सृष्टि के आमूल बदले हुए जीवन का खाका खींचने लगता है। मानो मानवता घूम घाम कर अपनी प्रकृत अवस्था में लौट आई हो।
अब स्पेस की बात। कलकत्ता उपन्यास के फलक पर छाया हुआ है। यह भी उत्तर कलकत्ता और दक्षिण कलकत्ता में बंटा हुआ है। एक जमाने का काला कलकत्ता बाद में भी पिछड़ा, गरीब और देसी कलकत्ता है, जबकि गोरे कलकत्ते या साऊथ कैलकटा में अंग्रेज और उनके बाद उनकी सी हैसियत वाले भारतीय रहते आए हैं। इन दो ध्रुवों के बीच यूरेशियनों का चितकबरा स्पेस उभर आता है - गोरों और कालों की संकर संतानों का स्पेस। उपन्यास में यह बहू बाजार और चोरंगी के पिछवाड़े का इलाका है। इसकी व्यथा देखिए 'जब से मैं पैदा हुआ, मेरे पिता मेरे भविष्य की सोच कर बहुत मानसिक तकलीफ में रहने लगे। आधे हिंदुस्‍तानी और आधे अंग्रेज़ बच्चे की क्या ज़िंदगी होती है - वे देख सकते थे। वह न इधर का होता है न उधर का। इस तरह यह स्‍थान अपने आप में एक पूरी चेतना है जिसमें से कई मर्मान्‍तक कथाएं और जटिल रिश्त फूटते हैं।' 'उसने अखबार में पढ़ा है कि इस वक्त कलकत्ता में सोलह हज़ार यूरेशियन हैं, जब अंग्रेज़ों की संख्या उनसे दो हज़ार कम है।' ऐसे लोगों का जीवन अजीब से द्वंद्व में फंसा है जिसमें एक तरफ हिंदुस्तान से लगाव भी है, दूसरी ओर वे अपने खून के कालेपन से मुक्त भी होना चाहते हैं।
किशोर बाबू का स्थान उनके विभाजित समय में नॉर्थ से साऊथ की ओर शिफ्ट होता है। यह प्रबल थिमैटिक शिफ्ट है। उत्तर कलकत्ता के बड़ा आज़ार से बालीगंज के घर में जाना एक पूरी मानसिक यात्रा है।
'समय के फेर' की दार्शनिक व्याख्या करते हुए नायक कहता है, 'पिताजी की बात ठीक निकली। वे कहा करते थे कि दुख ही सुख की शक्ल ले सकता है, प्रेम ही नफरत की - ये सारे विपरीत समय के फेर से एक दूसरे में बदल जाते हैं।'
तिमंजली हवेली का सपना, दो कमरों वाला घर, तीसरा कमरा - वास्तु के ये विभाजन उपन्यास के बंटे हुए समय और स्पेस के कूट खोलते हैं। मानसिक खलल में जब किशोर को अचानक बीच वाला कमरा भूल जाता है जो उनके जीवन के बीच वाला हिस्सा ही है और इस तरह घर के भूगोल में समय का भूगोल उभर आता है।
स्पेस के भी तो दो केंद्र हैं - निजी और बृहत्तर। घर, और घर के लोग, उनके भीतर का जीवन और उनके जीवनों की ग्रथित कथाएं एक ओर तथा दूसरी ओर बृहत्तर स्पेस में गलियां, कलकत्ता और देश। यह वह स्पेस है जहां बंग भंग होता है, आजादी की सुगबुगाहट है और गीत गूंजते हैं, लाठी चार्ज होता है, भीषण अकाल पड़ता है, उन्नीस सौ छियालीस के साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। समय में पीछे जाने पर स्पेस या देश का एक और विभाजन या कन्ट्रास्ट उभरता है - मरू भूमि और बंगाल की शस्य श्यामला भूमि के बीच। मरू भूमि में बादलों का सपना, बंजारे, रेत, पगड़ियां और सूना आकाश है तो बंगाल में हरी भरी जमीन है, निरंतर बरसते मेघ हैं, भरी हुई गंगा का प्रवाह है। एक स्पेस से निकल कर पात्र दूसरे में आते हैं और तब उनमें 'निर्वासन' और 'वास ' की चेतनाएं जन्म लेती हैं। रामविलास के लिए यह कलकत्ते का वास है जिसका जादू दिन पर दिन चढ़ रहा है, जबकि उनके दोस्त बसंत लाल के लिए यह निर्वासन है जिसमें काल का एक एक पल बड़ी मुश्किल से बीतता है (स्लोइंग ऑफ टाइम)। उपन्यास में इन दोनों मित्रों की इन विरोधी चेतनाओं का बड़ा साकार वर्णन है। निर्वासन या अपनी भूमि छोड़ कर जाने से ही रामविलास और अंग्रेज जाति में तादात्म्य कायम होता है। 'दो घोड़ों की फिटनों और बग्घियों में घूमते खुद उसकी तरह ही दूर देश से आए गोरे बाशिंदे भी उसे अपने से लगते हैं।' भयानक तूफान में रामविलास के पिता और हैमिल्टन साहब अपने अपने देश को याद करते हैं, बचने की सूरत में घर लौटने का संकल्प करते हैं। यह निर्वासन का रिश्ता है जिसमें अन्यता बोध डूब जाता है।
एक बीता हुआ समय बार बार पुनर्जीवित होता है। काली मंदिर का पंडित बेटे के हाव भाव से उसके पिता को पहचान लेता है। इस तरह पुराना समय पुश्त दर पुश्त जीवित है और आगे बढ़ रहा है। एक तरफ वो जीवित है तो दूसरी तरफ निरंतर बदलाव ला रहा है। आगे बढ़ता हुआ समय स्पेस को और उसकी डीटेल को बदल रहा है। उपन्यास में यह संदर्भ है कि यह कलकत्ता पहले सा कलकत्ता नहीं रहा। 'उसके पिता के देखे कलकत्ते से अभी का कलकत्ता कितना बदल गया है, कौन जानता है। इसी तरह समय न जाने कितने फेर बदल आगे कर देगा। '
समय बहुत अदृश्य ढंग से हमारे भीतर संस्कार के रूप में भी रहता आया है। रामविलास के लिए कृष्ण की छवि एक ऐसा ही संस्कार है जो बालक रूप में, किशोर रूप में अर्थात् हर रूप में उसमें भावित है। वह कहता है, मैं उसे क्यों कर छोड़ दूं। 'कृष्ण कहते ही मेरे मन में कृष्ण के तरह तरह के रूप सामने आ जाते हैं... यह एक ऐसा संसार है जिसकी जड़ें मेरे अंदर कितनी पीढ़ियों पीछे कहां तक फैली हैं, मैं खुद नहीं जानता...।'
एक ही समय में काल की अलग अलग गतियां और धुरियां भी दिखाई पड़ती हैं। पति अपने घर से दूर आसाम में दूसरे स्पेस में समय से लड़ता हुआ जान संभाल कर जब वापस लौटता है तो अपने गांव पंहुच कर पत्नी की अर्थी मिलती है। यह विपरीत गतियों का अंकन है। एक, जो अपने स्पेस में लौट रहा है और दूसरा, जो उससे मुक्त हो गया है।
समय का भारतीय बोध और ब्रितानी बोध भी अलग अलग है, 'अंग्रेज़ों की नई सदी, बीसवीं सदी, की शुरुआत है और इस बात को लेकर भी उनमें जैसे एक नया उत्साह है... ऐसा लगता है जैसे हमारी जाति इस सदी में एकदम नया कुछ कर डालने को उतावली हो। रामविलास को हंसी आती है - पृथ्वी तो साहब वैसे ही घूम रही है सूरज के चारों ओर... क्या फर्क पड़ता है ऐसी बातों से ? फर्क पड़ता है तो बस यही कि आदमी की छटपटाहट बढ़ जाती है... ज़िंदगी को बांट बांट कर जीने में बड़ा खतरा है।'
स्पेस को फलांग जाने की बात भी रामविलास और छोटे हैमिल्टन साहब के बीच तब घटती है जब उन्हें पता लगता है कि छोटे हैमिल्टन आधे भारतीय हैं। 'कितनी अजीब बात है - रामविलास ने सोचा - आदमी सारी दूरियों को पार कर कैसे एक हो जाता है। एक तरफ लॉर्ड कर्ज़न के बंग भंग को लेकर अंग्रेज़ों के प्रति सब जगह नफरत का ज्वार उठ रहा है और कहां इस कदर अपनापन...।'
पूरे उपन्यास में जल के स्पेस में फैलने और सिकुड़ने का भी मार्मिक अंकन है। मरू भूमि में हैं तो यही जल एक परिकल्पना भर है। और उसका माप कुईं, कुएं, जौहड़, तालाब, नदी और फिर गंगा का सपना है। इसीलिए रामविलास कलकत्ता पंहुच कर कृतकृत्य हो जाते हैं। गंगा को छोड़कर वापस आने से यह जल सिकुड़ता हुआ पानी की बाल्टी भर रह जाता है।
किसी जातीय चिति के इतिहास में जाने पर काल और देश आपस में गुंथे हुए दिखते हैं। मरू भूमि में अकाल का समय मारवाड़ी लोगों के चित्त में आज भी जीवित है। शायद इसी कारण वे इतने अंधविश्वासी हैं और भविष्य से आतंकित रहते हैं। धन इकट्ठा करते रहने के मूल्य की तह में शायद वही दारुण जातीय स्मृतियां हैं।
इस प्रकार देश और काल की अंतर्क्रीड़ा जैसे जीवन में निहित है, वैसे ही वह रचना की संरचना में जीवन की तरह व्याप्त है। यह रचना की नाभि है तो गति भी है। इससे रूप और अंतर्वस्तु दोनों ही विरचित होते हैं, परस्पर प्रभावित होते हैं और संलयित होते हैं। इस अंतर्क्रीड़ा को जितनी व्यापकता में जाना जाए, कृति को उतनी ही सम्पूर्णता में पहचाना जा सकता है।

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा



दो उपन्‍यासों के हवाले से
भाग दो



अब इस दृष्टि से दो चर्चित कथाकृतियों को समझने की कोशिश कर सकते हैं। एक है कृष्णा सोबती की ' लड़की' और दूसरी अलका सरावगी की 'कलिकथा वाया बाईपास'। ये कृतियां आकार , रूप ,भाषा के रचाव की दृष्टि से काफी भिन्न है। दोनों में समय और स्थान अपने अपने ढंग से क्रीड़ा करते हैं। ऐ लड़की में देश एवं काल की गतियां और शिफ्ट मानसिक ज्यादा है, भौतिक कम। घटनाविहीन, कहानीविहीन एक परिस्थिति उपन्यास में है जहां नायिका बूढ़ी अम्मू एडरेसर है, बीमार और निष्क्रिय पड़ी है। लेकिन अम्मू के अंतराकाश में अतीत, वर्तमान, मृत्यु (जो अभी आई नहीं) और मृत्यु के बाद का काल आता जाता रहता है। अपने बिस्तर और कमरे की चौहद्दी की सिकुड़े हुए भौतिक दिक् में अम्मू स्मृतियों के जरीए अनेक दिकों में घूमती है एवं समय और स्थानों को, उनके विभिन्न अनुभवों को पुनर्जीवित करती है।
यह रचना उपन्यास में सामान्य किस्सागोई के तत्व को सिरे से नकार कर लगभग 'एकतरफा संवाद' के शिल्प को अपनाती है। मृत्यु की प्रतीक्षा करती हुई बूढ़ी माँ निरंतर अपनी तीमारदार बेटी से मुखातिब है। बेटी जो एडरेसी है, लेकिन इस संवाद में कभी हुंकारा भर तो कभी कोई छोटा सा प्रश्न, कभी आहत भाव, तो कभी गुस्से की तमतमाहट और कुल जमा माँ के प्रति गहरे सरोकार के रूप में उपस्थित है। यह एकालाप की ओर झुकता सा प्रारूप है। पर साथ ही ये सारी बातें केवल मृत्युशैया पर पड़े मरीज़ का एकांतिक प्रलाप नहीं। वे अपने जीवन भर के अनुभवों को बेटी के साथ बाँट रही है, उसे देना चाहती है। कहती भी है कि मेरे पास संपत्ति जायदात नहीं, केवल मंत्रणा है। अत: यह केवल एकालाप न रहकर अपनी मंशा में संवाद भी हो जाता है और एकालाप और संवाद का द्वंद्वमान रूप उभरता है।
अब इस कृति के संदर्भ में देश एवं काल के मुद्दे पर लौटते हैं। माँ और बैटी के ये दो बीज पात्र खुद समय के दो आयाम हैं। समय यहां पात्र में ढल गया है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दो आयामों का एक दूसरे से द्वंद्वात्मक और आत्मिक रिश्ता है। दो व्यक्तित्व, मानो दो समय आपस में टकराते हैं, फिर जुड़ जाते हैं क्योंकि बेटी माँ की शाख से ही फूटी है, दूसरा समय पहले के भीतर से ही उपजा है।
भौतिक समय भी है जो दिन और रात में विभाजित है। अम्मू की सुबह की चाय, स्पॉन्ज इत्यादि सुबह से जुड़े हैं। लेकिन अम्मू की चेतना का जगना बुझना मानो उसके शरीर के दिन और रात हैं। अम्मू समय चक्र में ऋतु चक्र से भी जुड़ना चाहती है। महीने के नाम पूछती है। पूर्णमाशी की तिथि जानना और शहतूत का स्वाद चखना चाहती है। लेकिन इस भौतिक समय पर तो मानसिक समय अपनी चित्रकारी कर रहा है, सुपर इम्पोज़ीशन की तरह। खुद को अम्मू आज 'प्राचीना' कहती है, लेकिन फिर उभर आती है अठारह वर्ष की दुल्हन, पेड़ों के 'छत्तर' निहारने वाली बच्ची और एक 'ताज़ी' लड़की। 'कहीं से ले तो आओ उस ताज़ी लड़की को... समय कैसे काल बन जाता है। एक दौर में सीढ़ियां चढ़ी जातीं हैं। दूसरी में उतरी जाती हैं।'
मृत्यु और मृत्यु के बाद का समय भविष्य का समय है जो चेतना में अम्मू के निकट खड़ा है। लेकिन मृत्यु के बाद की परिकल्पनाओं में कहीं भी परलोक की कोई मूर्त कल्पना या छवियां नहीं हैं। बस एक अंधकार सा है। अम्मू उसे छलावा कहती है। मृत्यु के बाद की परिकल्पना भी इसी दिक् और लोक की कल्पना है, इसी समय का विस्तार है, जिसमें वो तो नहीं होगी पर उसकी पुत्री होगी। और अम्मू उस वक्त में अपनी पुत्री के लिए अटकी हुई है और कई हिदायतें देती है। बेटी के एकाकी जीवन का बोध उसे सालता है और उसके संदेश दो धु्रवांतों में बंट जाते हैं। एक ध्रुव पर वह बेटी के लिए परिवार और सुख की कामना करती है तो दूसरे पर पहुंच कर इसे पुत्री की शक्ति स्वीकार करती है। उससे आश्वस्त होती है और बचाए रखने की मंत्रणा देती है। इस तरह माँ, मां के समय से निकल कर बेटी के समय में चली आती है।
अतीत भी बंटा हुआ है जिसमें एक मायके का समय है तो दूसरा ससुराल का समय। यह स्थान का विभाजन भी है। बदले हुए समय और स्थान के बदले हुए दृश्य हैं। बदला हुआ संसार और अंतर्सबंध है। अतीत को वह पिछवाड़ा, तहखाना, गठरी, गोदाम कहती है। बुढ़ापा उसका वर्तमान है और मृत्यु और बेटी उस बिंदु से आगे उसका भविष्य। जीवन को उसने दूध के समय और चाय के समय में भी बांट रखा है। 'मेरी उम्र के पहले अठारह बरस अलग निकाल दो। तब तो पीती रही दूध। उसके बाद दिन में चार प्यालों के हिसाब से ... पता नहीं और कितने प्याले बाकी हैं। '
इसी तरह इस कथाकृति में कई तरह के दिक् उभरते हैं। भौतिक रूप से एक कमरे और एक बिस्तर का फलक है, बेहद सिकुड़ा हुआ। कमरे में खिड़की है जो अतीत के स्मृति संसार में खुलती है और एक दरवाज़ा है जिसकी दहलीज़ से पार जाना इस लोक से निकल कर परलोक या मृत्यु के अंधकारमय ज़ोन में चले जाना है। कथा के अंत में बेटी माँ को बरामदे में ले जाती है और माँ बेटी के कमरे में भी चली जाती है। दिक् का यह शिफ्ट भी माँ की मनोगतियों तक जाता है। रंगकर्म की दृष्टि से यह माँ के दृश्यबंध (कमरे) से निकल कर बेटी के दृश्यबंध में जाना है। यह शिल्प और अन्तर्वस्तु का भी समन्वय है। यहां भी भौतिक स्पेस पर मानसिक देश उभरते आते हैं। अम्मू पहाड़ी रास्तों में चली जा रही है, सुबह सुबह स्नान करके। शिमला के अनेक दृश्य उभरते हैं।
पूरी कृति में तीन मैंटल लैंडस्केप्स (मानस भूदृश्य) उभरते हैं, जिन्हें अम्मू ब्रह्मांड के 'तीन लोक' कहती है - जीने वालों का लोक, मरने वालों का लोक और हम जैसे बीमारों का लोक। इहलोक की अद्भुत लीलाओं में रमती हुई अम्मू के भीतर जीने वालों का लोक उभरता है। इस मानसिक भूदृश्य में जीवन एवं सृष्टि की नेमतें हैं - गुलाब के फूल, भोर, पहाड़ों की बर्फ और बारिश, भुनते हुए हल्वे की गंध, चाय का संगीत, संतान को गोद में लेकर दूध पिलाना, माता पिता, बावली का स्नान...। जीवन के संताप और मृत्यु की चेतनाएं मरने वालों का लोक है तथा बीमारी वाले भूदृश्य में जहां तहां झुंझलाहट, खीझ, असमर्थता के टीले, वनस्पतियाँ और खाइयां फैली हैं।
माँ बेटी के बीच जैसे समय के व्यवधान और निरंतरताएं हैं, वेसे ही स्पेस का अंतराल भी है जो फैलता और सिकुड़ता है। दूर होते होते वे बहुत दूर जा पड़ती हैं पर अगले ही पल नाभिनालबध्द दिखती हैं। अम्मू उसके कमरे में उसके बिस्तर पर चली आती है। एक अद्भुत विभाजन खड़ी रेखा वाला भी है, धरती और आकाश का। अम्मू अक्सर कहती है कि मैं अपनी हवा से ज़मीन से ऊपर उड़ जाऊंगी और धरती और देह की पीड़ाओं को पार (ट्रांसैंड) कर जाऊंगी। इस बिंदु पर अरस्तू की याद बरबस आती है जिन्होंने चार तत्वों में दो तरह की शक्तियों ग्रैविटी (धरती और जल में) और लैविटी यानी ऊपर उठना (अग्नि और वायु में) की बात की है। मृत्यु और अम्मू के बीच जहां समय सिकुड़ रहा है वहीं स्पेस भी सिकुड़ रहा है। उसको लगता है कि वह अपने कमरे के दरवाज़े के निकट पहुंच रही है।
इस पोस्‍ट की शब्‍द संख्‍या ठीक ही हो गई है. इसलिए इस बार सिर्फ ऐ लड़की. अगली बार कलिकथा.

शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा

दो उपन्यासों के हवाले से
भाग एक
इस भाग में सिर्फ उपन्‍यास पर बात की गई है. दूसरे भाग में कृष्‍णा सोबती के ऐ लड़की और अलका सरावगी के कलिकथा वाया बाईपास में दिक् और काल के तत्‍वों पर बात हुई है. सुमनिका ने यह परचा कई साल पहले एक सेमिनार में पढ़ा था. बाद में यह साक्षात्‍कार में छपा भी. ब्‍लाग में गंभीरता से पढ़ने लिखने की सामग्री भी रहे, इस मंशा के साथ यह लेख यहां रख रहा हूं. फिर भी लंबे लेख के दो भाग कर दिए हैं. अभी यह भाग पढि़ए. अगली पोस्‍ट में दूसरा भाग पेश करूंगा. -अनूप

जीवन का यथार्थ कहिए या जीवन का सत्य, कल्पना एवं सौंदर्य से मंडित होकर जब किसी रूपाकार में ढलता है, तभी कलाकृति बनती है अन्यथा वह केवल अमूर्त कलाभावना मात्र है। बिना रूप के कला की रचना तो क्या परिकल्पना भी संभव नहीं। वास्तु, मूर्ति, चित्र जैसी दृश्य कलाओं में रूप जहां मूर्त, स्थिर या दृश्यात्मक होता है, वहीं काव्य-साहित्य और संगीत जैसी अमूर्त कलाओं में यह एक भीतरी संरचना होता है जिसे स्पेस या स्थान में नहीं समय में पकड़ना होता है। यहां विभिन्न अंग एक सम्पूर्णता में बंधे होते हैं। उनकी एक व्यवस्था होती है।
हम जानते हैं कि रूप और विषय-वस्तु को अविभाज्य माना जाता है। यह और बात है कि एक दूसरे का महत्व घटता बढ़ता रहता है। यह चुंबक के दो ध्रुवांतों की तरह हैं जो विपरीत होकर भी अलग नहीं। ये एक दूसरे से टकराते भी हैं, नुकसान भी करते हैं और जहां इनमें द्वंद्वात्मक एकता स्थापित होती है, वहीं कला की सिद्धि है।
रूसी रूपवाद से जुड़े चिंतक थे विक्टर श्क्लोव्स्की, जिन्होंने 'कला बतौर तकनीक' की धारणा पेश की। उन्होंने तकनीक में डीफैमिलीयराइजेशन या अपरिचयीकरण की बात की। इसी परंपरा में प्रकांड भाषा वैज्ञानिक रोमन याकोब्सन हुए जिन्होंने काव्यशास्त्र को भाषाशास्त्र के अंतर्गत माना। उन्होंने यह भी कहा कि भाषाई संरचना केवल वाचिक भाषा का विज्ञान नहीं, वरन संकेतशास्त्र या सिमियॉटिक्स का हिस्सा है। एक मूल संरचना के कारण ही कलाओं की आपसी तुलना संभव है। शब्द और संसार का आपसी रिश्ता केवल वाचिक नहीं, बल्कि तमाम तरह की प्रोक्तियों (डिस्कोर्सिस अथवा अर्थखंड) से जुड़ा है। याकोब्सन ने भाषा के अनेक प्रकार्यों की चर्चा की। वस्तुभाषा और पराभाषा की चर्चा की तथा प्रोक्ति में मैटाफर (रूपक) और मैटानमी (लाक्ष्णिक धाराओं का फूटना और खुलना) के द्वंद्व के सिद्धांत को रखा। तो रूसी रूपवाद से होती हुई 'कला के वस्तुगत विवेचन' की यह परंपरा 1930 के प्राग स्कूल से होती हुई 1960-70 के पश्चिमी यूरोप के संरचनावादियों तक जाती है। दूसरी ओर इंगलैंड और अमरीका में इनके बरक्स आई ए रिचड्र्स से डबल्यू के विमसैट तक 'न्यू क्रिटिक्स' थे। श्क्लोव्स्की ने काव्यभाषा और गद्यभाषा को अलगाया था जिसे रिचड्र्स ने क्रमश: इमोटिव तथा रैफ्रेंशियल भाषा कहा।
गद्य की सबसे युवा विधा उपन्यास है। आधुनिक पूंजीवाद के दौर में जन्मी यह विधा जीवन फलक की विराटता और उसकी बढ़ती हुई जटिलता का सही प्रतिबिंबन कर पा सकी है। जॉर्ज थॉम्प्सन ने इसके रूप की तुलना सिंफनी संगीत से की है जो कि एक व्यक्ति की सांगीतिक परिकल्पना होकर भी 'एक ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन है जिसमें लगभग सत्तर या अस्सी वादकों का अतिसंगठित समूह हिस्सा लेता है'। उपन्यास भी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है। इसमें जीवन के अनेक स्तरों, रूपों, स्वभावों, वृत्तियों के प्रतिनिधि पात्रों की 'आवाजें' सुनाई देती हैं। उनका आपसी तनाव, संवाद, खामोशी सब अंतर्ग्रथित रहती है। मिखाइल बाख्तिन (1895-1975) ने दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए उसे पोलिफोनिक (बहुस्वरीय) फिक्शन कहा जहां अनेक विचार बिंदु और अनेक कोणों पर खड़ी प्रोक्तियों की क्रीड़ा होती है। बाख्तिन ने बाद में यह पाया कि यह विशेषता उपन्यास का निजी चरित्र गुण है जो प्राचीन एवं मध्य युगीन लोक रूपों - पैरोडी, व्यंग्य रूपक तथा कार्निवाल से फूटा है। बाख्तिन ही थे जिन्होंने उपन्यास और कामेदी को काव्यशास्त्र के हाशिए से निकाल कर मध्य में केंद्रित किया था।
श्क्लोव्स्की कहते हैं कि कला मनुष्य में विशिष्ट प्रतीति (पर्सेप्शन) या अनुभव जगाना चाहती है, क्योंकि आमतौर पर हमारा संसार को देखना, सुनना, समझना सब कुछ एक आदत में बदल जाता है। वे इसे हैविचुलाइजेशन कहते हैं जिससे हम चीजों के बारे में सूचना रखते हैं, उन्हें जानते हैं पर अपनी सम्पूर्णता में 'देख' नहीं पाते। वे कहते हैं, 'तमाम कुछ और तमाम जीवन जैसे होकर भी नहीं है और कला इसीलिए है कि जीवन की इस अनुभूति को फिर से जिला दे... वस्तुओं का अनुभव जगाए और पत्थर को पथरीला बना दे।' अत: कला की सर्वप्रमुख तकनीक है, वस्तु को कुछ अपरिचित बना देना, रूप को कठिन बना देना ताकि हमारी पर्सेप्शन की गति दीर्घ हो जाए।
उपन्यास के विषय में रीज़ कहते हैं, 'नाटक से भिन्न उपन्यासकार के पास अबाध समय होता है, चरित्रों, उनके दृश्यों और उनकी कथा कहने को। वह अपने दर्शन और राय को सीधे सीधे भी उसमें रख सकता है।' किस्सागोई या प्लेन नैरेटिव उपन्यास की सबसे सामान्य विधि है। आम तौर पर उपन्यासकार सर्वज्ञाता (ओम्नीसिएंट) दृष्टि रखता है और पात्रों के भीतर बाहर का वर्णन करता है। लेकिन यह तकनीक उपन्यास के उस ढांचे में नहीं समा पाती जहां किस्सागो कथा को उत्तम पुरुष शैली यानी 'मैं' के माध्यम से रखता है। उससे शिल्प ज्यादा यथार्थ और प्रामाणिक तो बनता है लेकिन दूसरे पात्रों में बहुत गहरे नहीं उतर पाता। दूसरे पात्रों के बाहरी इम्प्रैशन्स और व्यवहार के पैटर्न उभरते हैं जैसे चार्ल्स डिकन्स के 'डेविड कॉपर फील्ड' में। पात्रों के संवादों या पत्रों के जरीए भी कथाकार वर्णन करता है। आधुनिक उपन्यासकार जेम्स जॉयस तथा वर्जीनिया बुल्फ इन्टीरियर मोनोलोग या स्ट्रीम ऑफ कान्शियसनैस का इस्तेमाल करते रहे हैं। यह भौतिक समय के क्रम को तोड़कर चेतना के समय में जीने वाला उपन्यास होता है।
वास्तविक जीवन का प्रतिबिंब ही कला में होता है, यह मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की बहुत मूल स्थापना है। लेकिन जीवन का तो कोई ओर छोर ही नहीं। वास्तविक समय अपनी अजस्रता में बह रहा है, वास्तविक स्पेस, स्थान या दिक् भी विराट एवं अनंत है। कलाकार जो प्रातिबिंबिक संसार रचता है, उसमें समय और स्थान की अपनी सर्जना करता है। अजस्र और फैले हुए दिक्काल में वह किसी बिंदु पर खूंटा गाड़ता है और उसके इर्द गिर्द संसार रचता है। राजी सेठ के शब्दों में जैसे पटिया पर फैले हुए आटे की लोई से हम छोटी छोटी गोल टिकियां काट लें।
दिक् एवं काल तो विज्ञान एवं दर्शन की मूल और महत् दार्शनिक धारणाएं हैं। लेकिन समय ने इन धारणाओं को भी परिवर्तित किया है। न्यूटन के लिए समय और स्थान परम निरपेक्ष थे तो आइन्स्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत ने उसे देखने वाले की स्थिति के सापेक्ष बना दिया। क्वान्टम यांत्रिकी ने पदार्थ को ऊर्जा में बदल दिया। काल्पनिक समय की धारणा दी तथा समय के कम से कम तीन तीरों की बात की। ये धारणाएं एक ओर भौतिक हैं लेकिन साथ ही चेतना से जुड़कर ये कला की अंतर्वस्तु में पैठती हैं। इन धारणाओं का शिल्प में भी प्रयोग किया गया है। वास्तुकार अपने स्थान को बांटता है तो चित्रकार भी कैनवस की स्पेस का विभाजन तरह तरह से करता है। कहते हैं कि भारतीय वास्तुकला में वर्ग और गोलाकार दरअसल दिक् एवं काल (जो भारतीय संदर्भों में रैखिक न होकर चाक्रिक होता है) के प्रतिनिधि हैं।
ऐसा भी नहीं है कि समय और स्थान दो नितांत अलग थलग और एकाकी सत्ताएं हों। देश का प्रभाव काल पर और काल का प्रभाव देश पर पड़ता है। ये दो धारणाएं रूप और अंतर्वस्तु की अंत:क्रीड़ा को जन्म देती हैं।