डॉ रमेश कुंतल मेघ की एक और पुस्तक- मुख पृष्ठ पर किसी लघु चित्र की प्रतिकृति दिखती है। पारदर्शी जल से भरा सरोवर, उस जल में खिलते हुए पूर्ण या अर्धविकसित कमल, उनके कमल पात और उनके बीच जल क्रीडा़ करती शायद गोपियां। नाम है- हमारा लक्ष्य: लाने हैं लीला कमल। मुझे उनकी पुस्तकों के कई अद्भुत, रूपकात्मक शीर्षक और छवियां याद आईं। साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (उनके हाथ के रेखांकन वाला मुखपृष्ठ), अथातो सौंदर्य जिज्ञासा, आधुनिकता और आधुनिकरकरण, क्योंकि समय एक शब्द है, तुलसी आधुनिक वातायन से, मन खंजन किनके... नाम उस क्रम से याद आए जिस क्रम से मैंने पढ़ा होगा। खैर, हर नाम और हर शीर्षक लेखक के व्यक्तित्व का भी परिचायक रहा है- लंबी उडा़न भरने वाला, काव्य बोध एवं क्लासिकीय अर्थ छवियों का चितेरा, कोई प्रबल जिज्ञासु - दार्शनिक – अतीत और भविष्य में पसरे अंधकार को भेदने वाला कोई मर्मी चिंतक। प्रस्तुत नाम भी तो उसी मिजाज का है, बस कुछ और डाइरेक्ट। 'हमारा लक्ष्य' में एक उद्घघोषणा सी है कि हमें संस्कृति के लीला कमल लाने और खिलाने हैं।
उनकी यह पुस्तक भी अनंत आकाश को समेटे है- बहुवर्णी रंगों वाला, ज्ञान और कलानुभव का आकाश। आकाश जो जितना अतीत पर छाया है, उतना ही वर्तमान और भविष्य पर भी। यहां वहां कुछ टिमटिमाता सा है और हम मुख्य तोरण द्वार से नहीं बल्कि कहीं बीच में से उनकी इस व्यापक 'उसारी' में झांकते हैं। किसी एक दरवाजे़ को धकेल कर धीरे-धीरे दबे पांव दाखिल होते हैं और शब्द, उनसे बनने वाले ब्योरे, तफ्सीलें, किस्से और सूत्र लौ देने लगते हैं। उनके सूत्र तो खुदे हुए अभिलेखों की तरह लगते हैं जिन्हें बार बार स्पर्श किया और पढ़ा जा सकता है, और तब एक दुनिया खुलने लगती है। फिर कोई और दरवाजा, कोई दूसरी चौखट, कोई तीसरी खिड़की – और धीरे-धीरे उनकी संपूर्ण संयोजना – उनका बेहद सुचिंतित विषय-निवेश दिखने और समझ में आने लगता है।
समय के इस विराट प्रसार में, इस धारावाहिकता के बीच, उनके चिंतन और अन्वीक्षा के अनेक कमल खिलते गए हैं। यहां सौंदर्यबोध शास्त्र की जमीन पर अलग-अलग साहित्य विधाओं की कृतियां हैं और कृती साहित्यकार हैं तो अलग-अलग ललित कलाएं, कलाकृतियां ओर उनके जाने-अजाने कलाकार भी हैं। इनमें डूब कर वे अनेक सांस्कृतिक समयों का अवगुंठन हटाते हैं- समाज और व्यक्ति के अवचेतन और अचेतन में गोता लगा जाते हैं और बाहर आते हैं बड़े पेचीदा, बड़े मार्मिक रहस्य लेकर।
पहली बार जब पन्ने पलटे जाते हैं तो दिखते हैं उनके हाथों के बने अनेक रेखांकन, नक्शे, उन पर अंकित उनकी हस्तलिपि में लिखे नाम, मार्ग, नदियों की धाराएं ...।
अरे, चित्रों में से झांकती हैं पेरिस के लूव्र में संरक्षित लियोनार्दो दा विंची की विश्व-प्रसिद्ध मोना लिसा की मृदुल छवि। उन्हीं की कुछ और कृतियां जैसे 'अंतिम रात्रि भोज', मिथकीय संदर्भों वाली 'लीडा और हंस', बैकेस की छवि और दैवी शिशु के साथ कुमारी मेरी और संत एन्ने। फिर दिखती हैं हमारे समय की अपूर्व नृत्यांगना मल्लिका साराभाई की अनेक नृत्य मुद्राएं। वहीं कहीं आस पास मामल्लपुरम् के शिला पट्टों के चित्र एवं रेखांकन दिख जाते हैं और दिखते हैं ताला के कबीलाई सौंदर्यबोध वाले यक्ष अथवा वन देवता के चित्र। और क्यों न हों, दृश्य कलाओं को समझने के लिए उनका वहां होना स्वाभाविक भी तो है। डॉ कुंतल मेघ तो श्रव्य या पाठ्य कलाओं तक की अदृश्य संरचनाओं को मूर्त करने में विश्वास रखते हैं, इसीलिए उनके विश्लेषण में न केवल शब्द एक ठोस वास्तु सा रचते हैं बल्कि ज्यामितिक आकार, चक्र, तालिकाएं, चिह्न आदि भी दिखते हैं।
तो शुरूआत होती है आद्य समय से, जहां मनुष्य बनने की यात्रा के समानांतर, भाषा के विकास का भी वे अद्भुत संधान करते हैं। यहां यह कह देना ठीक होगा कि संधान का विषय कुछ भी हो, डॉ कुंतल मेघ में वो कभी एकायामी नहीं होता। तमाम तरह के संस्कृति स्रोतों का वे समाहार करते हैं, तमाम तरह के विज्ञानों एवं समाज विज्ञानों का वे इस्तेमाल करते हैं और तब गंभीर स्थापनाएं करते हैं। इस तरह वे इन बीहड़ पुरा समयों को खंगालते हैं, आर्ष आदिम मिथकों के कूट खोल कर। एक मिथक कहता है कि उनचास या छियालीस मरुतों का झुंड गायों (गो-इंद्रियों) को चुरा कर आकाश में उड़ता है, इंद्र से उनका युद्ध होता है और तब स्फोट ध्वनि वर्षा बिजली सी कड़क कर पृथ्वी पर बरसती है। इस प्रकृति दृश्य में इंद्रियों पर सवार वर्णाक्षर (46) ध्वनि बन अनादि भाषा के रूप में प्रकट हो जाते हैं। फिर यही भाषा यज्ञ की ध्वनियों में दैवी होने लगती है।
वे भाषाविज्ञान को नृतत्व शास्त्र के सहारे बिंबित करते हैं। आर्ष अतीत में गुफाओं की चट्टानों पर शैल चित्र उभरते हैं जिनसे आगे चलकर चित्र भाषाएं निकलती हैं। मनुष्य के आदिम वातावरण से ही संज्ञाएं निकलीं और प्रागादिम क्रियाओं में से भाषिक क्रियाएं फूटीं। फिर धीरे-धीरे उन्हीं में से फूटीं विशेषण और क्रिया विशेषणों की हरी शाखाएं। वे लिखते हैं कि ये शैलचित्र मनुष्य की निर्वाचिक (नॉनवर्बल) भाषा भी तो थे। व्याकरण के बाद इम्पैथी और एनालॉजी के तत्वों को लिए भाषा बढ़ती हुई अनिर्वचनीय और अतिवचनीय की दुनिया में कदम रखने लगी। वहां फंतासी और युतोपिया थे... यह पाणिनी की दुनिया से भरत की दुनिया में पदार्पण था।
और यूं भाषा के तमाम स्तरों को रेखांकित करता हुआ उनका नृतत्वशास्त्रीय निर्वचन आगे बढ़ता है। वे बेहद संजीदगी के साथ एक बार फिर साहित्य और अन्य कलाओं के अंतर्संबंध की बात करते हैं। एक मर्मी और सच्चे धारक शिष्य की तरह वे अतीत के आचार्यों की इस परंपरा को नमन करते हैं और उसे विस्तार देते हैं। ''सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र के कलापुंज का... भट्टनायक ने काव्यनाटक, श्रीशुकंक ने काव्यचित्र में (चित्रतुरग न्याय) तथा अभिनवगुप्त ने साहित्य और रसास्वाद का युगल लेकर... निर्वचन किए हैं।''
इस सैद्धांतिक जमीन पर फिर अवतरित होती हैं अलग-अलग विधाओं की विशिष्ट साहित्य-कृतियां- जिनकी सौंदर्यबोधी मींमासाएं बेहद अनूठी हैं। इनमें वे आचार्य शुक्ल के सौंदर्य दर्शन का लोकपरक रहस्य खोलते हैं। वे कहते हैं, ''उनकी रमणीयता बोध की वेदिका अकेले सौंदर्य के बजाए सौंदर्य मंगल है।'' फिर इस बात को भी वे रंखांकित करते हैं, ''ये भी विलक्षण बात है कि वे अर्थ ग्रहण के साथ बिंब ग्रहण पर भी बराबर आग्रह रखते हैं...।'' आगे जा कर वे लिखते हैं, ''उनकी सर्वप्रथम प्रतिश्रुति तो चित्रकला ही थी तथा अपने मिर्जापुर के प्रवास वर्षों में वे ड्राइंग के अध्यापक थे।'' उसके बाद अर्ध ऐतिहासिक संदर्भों वाली प्रसाद की रोमानी कहानी आकाशदीप की मानों सीवन उधेड़ कर उसके भीतर से नाटकीय भ्रांतियों, मनोग्रंथियों, अंतर्द्वंद्वों का अनावरण करते हैं। प्रसाद की कहानी जितनी सम्मोहक है, डॉ कुंतल मेघ का विश्लेषण उससे कम मोहक नहीं है। ऐतिहासिक लोकेशनों को दिखाते उनके नक्शे, समुद्र और द्वीप, पोत और जलदस्यु के बिंब, प्रतीक, वातावरण, संवाद- सब अर्थ के उजासे प्रभामंडलों से घिर-घिर जाते हैं। इसमें इतिहास और भूगोल, प्रेम और घृणा के मनोविज्ञान, आदिवासियों के नृतत्वशास्त्र, मुद्राओं भंगिमाओं के अर्थ संकेत और प्रकृति का सौंदर्य... सब कुछ निहित होता चलता है। इसी खंड में वे प्रसाद के काव्य आंसू में डूबते हैं और उनके निजी जीवन के प्रेम संदर्भों में उतराने लगते हैं। इसी खंड में जंगली बीहड़ता के सौंदर्यबोध पर एक अद्भुत लेख है। इसमें वे अब तक की प्रथम ज्ञात भारतीय सभ्यता यानी सिंधू घाटी की सभ्यता के सींगों, मुखौटों वाली कृतियों से लेकर घूमंतू वैदिक आर्यों के बाद पुराणों के खूंखार (नृसिंह), दुर्दांत (वाराह), उग्र (भैरव) के रूपों की यात्रा करते हुए इसे खींच कर आधुनिक जीवन एवं कलारूपों तक ले आते हैं। 'सभ्य समाज' की क्रूरता, बर्बरता का वर्णन करते हुए उनका कवि हृदय जार-जार रोता है। प्राचीन रोम से लेकर, आधुनिक ग्वानतामों जेलों तक की चर्चा चलती है, फिर भी उनके भीतर का विचारक प्रश्न कर ही उठता है – ''तो क्या सुंदरता और संत्रास के बीच सहअस्तित्व है – अवचेतन में?''
अगर किसी को गुमान हो कि उसने यूरोपीय और भारतीय नवजागरण को पढ़ रखा है तो इस पुस्तक के इस खंड को जरूर पढ़ना चाहिए जो कि आधुनिकता और भूमंडलीकरण तक प्रसार पाता है। यह खंड बेहद सांद्र सघन तो है ही, लेकिन इसमें उभरने वाले व्यक्तित्व और उनके जीवन, केवल संज्ञानात्मक सूचनाओं की तरह नहीं आते बल्कि मूर्त तफसीलों में ढल कर हमारे सामने आ खड़े होते हैं। प्रसिद्ध नामों के अलावा यहां सिस्टर निवेदिता, भगत सिंह, नेहरू, सुभाष, नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया... नंबूदरीपाद और चारू मजूमदार हैं तो लेखक और कलाकार भी हैं। चित्रकला की कलमें हैं तो अवनींद्र नाथ ठाकुर तथा अमृता शेरगिल भी हैं। कला समीक्षक आनंद कुमार स्वामी हैं तो ई वी हैवेल भी हैं। वहां मीर तकी मीर, नजीर अकबरावादी, जौ़क, गालिब, बहादुर शाह जफ़र, मोमिन भी अपनी आत्मकथात्मक लिरिकल आत्मा लिए खड़े हैं। डॉ मेघ ने पुनर्जागरण की कई मंजिलों की बात की है।
यहां फिर याद रख लेना चाहिए कि डॉ कुंतल मेघ के हर विवेचन में मार्क्सवादी दर्शन अपने नवोन्मेषों के साथ फलित हुआ है, गो कि अपने खास अंदाज़ में। ऐतिहासिकता का दामन वे कभी नहीं छोड़ते, न द्वंद्ववाद का, न यथार्थपरक भौतिकवादी नजरिए का। सौंदर्यबोध शास्त्र को रूपवाद, कलावाद में खतियाने वालों को यह समझना होगा कि इस चिंतक का सामाजिक विवेक बेहद पुख्ता है। डॉ कुतल मेघ को समझने की एक कुंजी है – उनके निर्वचन की बहु आयामिता को समझना। वहां थीम नहीं, थीम्स हैं। अर्थों की संरचनाएं बुनी जाती हैं। इसीलिए शायद गुच्छ और पद कदम्ब उनके प्रिय रूपक भी हैं। उनकी हर पुस्तक पाठक को यह आमंत्रण देती है कि धीरे धीरे उसका साक्षात्कार किया जाए, उसे हृदयंगम कर के उसकी बहुविधता में उतरा जाए और उसकी समांतरताओं को समेट कर आगे बढ़ा जाए। आप उसे फर्राटे से या सतही ढंग से नहीं पढ़ सकते।
प्रतिश्रुत महारथियों में उन्होंने लोक धुरी के कृतीकारों का संपूर्ण आकलन किया है, उनके प्रादर्शों (मॉडल्स) के साथ। तुलसी और उनके राम, मीरा और उनके श्याम, त्रिलोचन और जनपद, आचार्य शुक्ल और उनका लोकवाद।
लेकिन हिंदी के पाठकों के लिए सर्वाधिक उन्मेषकारी लेख तो वे हैं जिनमें अलग-अलग कलाओं की विशिष्ट कृतियों को उन्होंने डीकन्स्ट्रक्ट किया है। चित्रकला खंड में लियोनार्दो दा विंची के जीवन एवं कला का मनोविश्लेषण किया है और कई गहन गूढ़ रहस्य खोले हैं। यह बेहद मार्मिक खंड है। वे लिखते हैं, ''वे आजीवन एक बेचैन, भटकती, बेकरार अंतश्चेतना वाले कृती थे।... वे जीवन भर हरेक तेज रौ के साथ काफी दूर तक चले। आश्चर्य तो यह है कि इसी परकीयकरण (एलिएनेशन) तथा बिखराव ने उन्हें इटैलियन रिनैसां का संपूर्ण प्रादर्श बना दिया।''
डॉ मेघ ने अलग-अलग संस्कृतियों के चेहरों पर खिली मुस्कानों को भी पढ़ा है। अफ्रीका के इजिप्त के स्फिंक्स में (शिल्प), यूरोप के इटली की मोनालिसा में (चित्र) और एशिया में भारत की कामायनी की श्रद्धा में (काव्य) की निर्वाचिक भाषा को वे खोलते हैं।
नृत्य नाट्य खंड में तेजस्विनी मल्लिका साराभाई की कला और व्यक्तित्व का अद्भुत आकलन सामने आता है। उन्होंने अनेक नृत्यांगनों से उनका अंतर भी रेखांकित किया है। वे सोनल मानसिंह और अपनी ही मां मृणालिनी साराभाई से कई रूपों में बागे बढ़ती हैं और सामाजिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से शबाना आजमी के समकक्ष ठहरती हैं। वे कहते हैं कि एक ओर उन्होंने नारीत्व की साहसिक खोज की है और दूसरी तरफ एक एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिरोध की आवाज बुलंद की है। पीटर ब्रुक्स के महाभारत में अठारह घंटों तक द्रौपदी का अभिनय एवं नृत्य करने वाली मल्लिक में अभिनेत्री, नर्तकी और कार्यकर्त्री एक हो गई है।
मिथोग्राफी के खंड में वे मिथकों पर काम करने वाले बडे़ बडे़ महारथियों को सलाम करते हुए उनकी कूट कुंजियों को पाठक के सामने रख देते हैं। इनमें मैक्समूलर, जेम्स फ्रेजर, कैम्पबेल, मेलिनोवस्की, क्लाड-लेवी-स्ट्रास, डुमेजिल, कैसीरर आदि के संदर्भ हैं तो दूसरी तरफ कोसांबी, डी पी चट्टोपाध्याय, वासुदेव शरण अग्रवाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुमार विमल भी हैं। उन्होंने कई मिथकों को खोल के दर्शाया है और यूरोपीय और भारतीय मिथकों की तुलना भी की है। वे लिखते हैं, ''विश्व की सभी सभ्यताओं तथा उनके मिथकयानों में पर्वत-समुद्र, सूर्य-चंद्र, स्वर्ग-पृथ्वी, पवन-वर्षा आदि आर्केटाइपल हैं। हां उनसे जुडी़ मिथक कथाएं भिन्न भिन्न हैं। अलबत्ता वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानवीय वेश-भूषा आदि मिथक को विशिष्टता, जातीयता तथा सांस्कृतिक परिवेश प्रदान करते हैं।''
पुस्तक के अंशों को पढ़ने के क्रम में डॉ मेघ की भाषा में कई बेहद खूबसूरत पंजाबी शब्द उभरते हैं जो उनके भाषा दर्शन के खुलेपन का सुंदर और अनुकरणीय उदाहरण है। जैसे उसारी, नवीं नवीं रणनीतियां, मर्द अगमडा़, नारी जीवणा...। यह एक ऐसे पैशनेट चिंतक की भाषा है जिसमें संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी के ज्ञान-विज्ञानों के शब्द चिंतन की लहरों में खिंचे चले आते हैं।
रंगमंच तो और भी कई हैं इस पुस्तक में – वास्तु के, शिल्प कला के, नगर निवेश के, कला और कलाप्रकाशनों के। लेकिन यहां सब कुछ क्यों कर कहा जा सकता है – आइए न धीरे धीरे खुद ही इनके सम्मुख चलें...।