मंगलवार, सितंबर 29, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग : बैजनाथ





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सभामडप की दीवारों पर शारदा लिपि में इस मंदिर को बनाने वाले मन्युक और अहुक नामक व्यक्तियों का बखान है और साथ में इसके राजगीरों के मुखिया का नाम नयका और सम्मान आदि भी उल्लिखित हैं जिन्होंने मिलकर सभामंडप और वितान बनाया था।
मंदिर के पृष्ठ भाग में सूर्यदेव की प्रतिमा है - सूर्यमुखी के फूलों के संग। इन्होंने पैरों में जूते पहन रखे हैं। लेकिन सूर्यदेव तो उस दुपहरी में मंदिर के अंग उपांग में - धरती आकाश में व्याप्त थे - और हमने जूते नहीं पहन रखे थे। तथापि एक पूरी सृष्टि थी जो एक मंदिर की सूरत में हमें घेरे हुए थी। तभी किसी भक्तगण ने द्वार मंडप का घड़ियाल बजाया और एक नाद इस सम्पूर्ण कला सृष्टि के सर चढ़ कर गूंजने लगा।
इस सृष्टि दर्शन के बाद मंडी की तरफ बढ़ते हुए कई मिले जुले एहसास थे। गाड़ी की सीट से पीठ टेक कर मैंने आंखें मूंद लीं। एक ओर वह प्रत्यक्ष देश काल और सृष्टि थी जिसमें हम विचर रहे थे। फिर एक वो सृष्टि थी जो डॉ. खन्ना के छाया चित्रों के माध्यम से मूर्त हुई थी। और अभी अभी कुछ ही देर पहले मंदिर और वास्तु के शिल्प के जरिए हम एक प्राचीन काल में प्रविष्ट हुए थे - वहां भी सृष्टि का एक क्लासिकल सा बोध हुआ था और जिसने समय चक्र को घुमा दिया था। बिनवा नदी में जल का प्रवाह कम था। प्राचीन विपाशा नदी भी अब कई धाराओं में बंट चुकी थी पर आज भी उन शिल्पकृतियों से काल एक अजस्र धारा के रूप में बहता हुआ हमें सराबोर किए जा रहा था।

इसी के साथ यह लेख सम्‍पन्‍न हुआ.

रविवार, सितंबर 27, 2009

प्रकृति का पूर्णराग - बैजनाथ

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मंदिर की देह मानो प्रकृति का ही फलक थी जिसमें देव और मनुष्य ही नहीं, स्मसत प्राणी समाज विराजमान था। देवों के वाहन रूप में हों या स्वयं देव रूप में (अवतार) - पशु जगत सर्वत्र था - मछली, कच्छप, सिंह, वाराह, कुत्ता, हरिण, भैंसा, वानर और नंदी। फिर पक्षियों में मयूर (कार्तिकेय के संग) से लेकर गरुड़ (विष्णु) तक और कई अचीन्हे पक्षी थे। वनस्पति जगत तो इन जीवधारियों को घेरे हुए है - जिनमें खिले हुए कमल, बढ़ती जाती लताएं, शाल वृक्ष और सूरजमुखी फूल (सूर्यनारायण का चिह्यन) हैं। सृष्टि के पंच तत्त्वों में अग्नि देव हैं। वहीं पर पवन देव हैं जिनके पैरों के नीचे बैठा फुर्तीला हिरण मुग्ध कर देता है। हवा जैसे अमूर्त तत्त्व के लिए इतना सुंदर सार्थक मूर्तन! जल तत्त्व के रूप में मकर पर गंगा और कच्छप पर यमुना की बड़ी प्रतिमाएं गर्भग्रह के दोनों ओर अंतराल के भाग में खड़ी हैं। ह्लाुंँभ उठाए इन नारी रूपिणी नदियों की त्रिभंगी मुद्रा बेहद कमनीय है जो नदी की धारा की बंकिमता के भी अनुरूप है।

देवी के अनेक रूपों में एक अंकन विशेष तौर पर भूलता नहीं। उसमें कुछ विद्रूप सा है। शरीर में पसलियां प्रमुख हैं, मांसपेशलता नहीं। कंकालवत् यह अंकन दूर से पिशाचिनी का सा प्रभाव जगाता है। इसका नाम कुछ भी हो, यह मृत्यु और मरण की ही प्रतिष्ठा है। जीवन के हर तत्त्व में देवत्व देख पाने वाली दृष्टि मृत्यु को कभी भी कहां भूल पाई है। मुख्यद्वार में प्रवेश करता भक्तजन कनखियों से इसे देखता-बूझता अंदर बढ़ता है। वहीं आसपास धर्मराज भी हैं और उनका दण्ड इस बात का गवाह है कि वे ईश्वरीय न्याय का लेखा रखते हैं।

सभामंडप या जगमोहन में पहुंच कर दृष्टि ऊपर उठती है - ऊंची चौकोर छत अलंकृत है - उसे संभालने की कोशिश हुई दिखती है। मंडप का आकाश सूना कहां है - उस पर तो शिव की बारात चली आ रही है। आकाश में शिव विवाह का उत्सव छाया हुआ है।

इस सभामंडप के दोनों ओर दो बड़े झरोखे हैं जो एक ओर सिंहासन तो दूसरी ओर गरुड़ासन पर अवस्थित हैं। इनसे होकर बाहर का आसमान भीतर बहता चला आता है और भीतर से एक दर्शक भाव बाहर झांकता है। झरोखे बाहर और भीतर के संधिस्थल हैं। अपने भीतर पहुंच कर - अपनी आत्मा के आच्छादन के भीतर पहुंच कर यह बाहर दृष्टि फेरना है। इस साक्षी भाव से मनुष्य जब देखता है तो उसे हंसती,खिलखिलाती, सुगबुगाती और बहती नदी दिखती है जीवन की। एक मेला, एक उत्सव, एक गुजरता हुआ कारवां। इन झरोखों पर विशुध्द मानवीय जीवन उकेरा हुआ है - प्रसन्न युगल, शृंगार करती अलसकन्याएं और सद्यस्नाताएं जीवन रस में सराबोर हैं। गंगा की प्रतिमा के पक्ष में संगीतज्ञों और वाद्यों की झलक है। यह संगीत एवं नाद तत्त्व की प्रतिष्ठा है जो मात्र जीवन रव नहीं है वरन् उसके भीतर और उसके मूल में बहती लय और धुन है, रस और राग है। मुझे बताया गया कि गर्भग्रह के शिवलिंग के बीचोंबीच एक रेखा है जो उसे शिव और शक्ति का संयुक्त रूप बनाती है। वहीं आसपास मूर्त हुए हैं शिव शक्ति, हाथ जोड़े हनुमान और विष्णु लक्ष्मी।

शनिवार, सितंबर 26, 2009

प्रकृति का पूर्णराग - बैजनाथ


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हैरानी होती है कि इन आद्यरूपों का संसार कितना विराट है - कितनी दूर तक उसकी सीमा जाती है। यह सीमा धरती के जीवन से लेकर आकाशीय नक्षत्र पिंडों तक है - जन्म से लेकर मृत्यु तक। दिशाओं के स्तम्भ हैं। ऋतुचक्र की बदलती यवनिका है। प्रकृति का मंच है और यहां पंचतत्त्वों ओर प्राणीजगत का अभूतपूर्व नाटय यहां खेला जा रहा है।

मंदिर के द्वारमंडप में पैरों पर उझक कर एकाध भक्तगण घण्टे बजा रहे थे जिनकी अनुगूंज देवालय के आकाश में घूम रही थी। अलंकृत सभामंडप से होकर हम गर्भगृह की ओर गए। वहां हमने शिवलिंग को प्रणाम किया - इसको समर्पित मानवीय कला और शिल्प साधना को प्रणाम किया और प्रणाम किया मनुष्य चिंतना के अनंत क्षितिज को। प्रसाद के रूप में पुजारी ने श्वेत गांधारी पुष्प हाथ में धर दिया।

मंदिर के भीतर जाने के अनुष्ठान को पूरा करके हम बाहर आए और अब शिल्पकृतियों के सम्मुख हुए। मूर्तियों से संवाद करने में - वहां के स्थानीय पुजारी के पुत्र जो भारतीय पुरातात्त्वि सर्वेक्षण से सम्बध्द थे - हमारे सहायक एवं मित्र सिध्द हुए। तस्वीरें खींचने की अनुमति तो उन्होंने न दी - पर धूप में हमारे साथ हो लिए। (जो चित्र आप यहां देख रहे हैं, वे जैसा कि पहले बता चुके हैं, हमारे मित्र सर्वजीत ने अलग से खींचे हैं और वि‍शेष आग्रह पर उपलब्‍ध कराए हैं.)

द्वार मंडप के एक ओर नवग्रह अंकित थे - मनुष्य रूप में। तो यह यात्रा अंतरिक्ष से शुरू हुई। दूसरी ओर अर्धनारीश्वर लक्ष्मी और नारायण थे। यूं तो स्त्री और पुरुष तत्त्व का द्वैत और संतुलन विश्व के सभी पुराने दर्शनों में प्राप्त होता है, जिनमें भारतीय तंत्र का वज्र और कमल प्रतीक और चीनी दर्शन का याङग और यिन हैं। बौध्द धर्म की वज्रयान शाखा में यही ओम् मणि पद्म हुमहो जाता है। लेकिन कला में जिस सुंदरता और पूर्णता के साथ अर्धनारीश्वर का बिंब आया है वह अनूठा है। मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियों में एक योजना थी। दस अवतार थोड़ी थोड़ी निश्चित दूरी पर चहुंओर मंदिर को घेरे थे। उनमें कहीं वामन रूप था - दैहिक विद्रूप और असामान्यता पर सत्वपूर्णता, नरसिंह थे - मनुष्यत्व एवं पशुत्व का संतुलन, पृथ्वी को जल प्रलय से उबारते महावाराह की नन्हीं प्रतिमा थी, कच्छपावतार और मत्स्यावतार थे जो जलीय सृष्टिवाद की कहानी कहते थे - अर्थात् यह संकेत कि जीवन का उद्भव जल से हुआ। वहां योद्धा कार्तिकेय भी थे। ऋषि परशुराम, गोचारी कृष्ण, वन में भटकने वाले राम और ध्यानी बुद्ध भी।


शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग : बैजनाथ


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आंगन में मंदिर के ऐन मुख पर, यानी शुरुआत में नंदी की भारी भरकम प्रतिमा है, जो धर्म एवं आनंद का ही प्रतीक है। नाटय कला में यह नांदी पाठ के शुरुआती अनुकर्म में भी फलित होता है। संभवत: इस पशु प्रतीक का संबंध एक कृषिमूलक सभ्यता की शुरुआत से हो। इसी नंदी के पीछे एक बड़ा चौकोर गढ़ा है जो यजन (यज्ञ) के काम आता है। पुरातत्त्व के विद्वानों का मानना है कि लिंग, मातृमूर्तियां, नाग-यक्षों जैसी प्राकृतिक शक्तियों की पूजा द्रविड़ों से आई है और फिर पूजा में भक्तिपरक मनुष्याकार मूर्तियां भी वहीं से विकसित हुईं। आर्यों के प्रतीक अमूर्त थे। डॉ. कुमारस्वामी का मानना है कि द्रविड़ों की मूर्ति पूजा ने आर्यों के यजन पर विजय पा ली। इस मंदिर में तो अनेक सांस्कृतिक धाराओं का संगम दिखता है। मुख्य पिंड तो शिवलिंग ही है, पर मंदिर का वैभव तो नाना रूप सृष्टि के सशरीर प्रतिअंकन का ही परिणाम है। शिखर शैली के बैजनाथ मंदिर का वास्तु क्रमश: तीन स्तरों वाला और सीढ़ीदार है। ये तीन स्तर धीमी उठान में उठते जाते हैं। पहला द्वार मंडप, दूसरा सभा मंडप, अंतराल और फिर विमान। द्वार मंडप को भोग मंडप भी कहा जाता है। उसके बाद मुख्य सभा मंडप से पहले नाटय मंदिर का भाग होता है जो नृत्य एवं कीर्तन आदि के लिए प्रयुक्त होता है। इसके बाद सभा मंडप या जगमोहन। उसके आगे एक छोटा अंतराल और फिर गर्भगृह।

मंदिर में प्रवेश से भी पहले मंदिर की दीवारों और स्तम्भों पर नजरें अटक जाती हैं। हर अंश चित्रित है, उत्कीर्णित है - जीवन की गति से गतिमान - कोई कथा सुनाता हुआ - किसी गहन विचार को मूर्त करता सा या फिर किसी पुरा ऐतिहासिक क्षण को जीवित करता हुआ। मिथकीय रूपों के जरीए जीवन के अगम रहस्यों को सहजता से खोलता हुआ। प्रो. टकी कहते हैं,

जब हम भारतीय स्थापत्य एवं शिल्प के सामने होते हैं तो हम केवल उसके सौंदर्यात्मक मूल्य पर ही मुग्ध नहीं होते वरन् हम एक ऐसे प्रतीक को परत दर परत खोल रहे होते हैं जिसमें सदियों पुरानी चेतनाएं छिपी हैं। एक छवि, एक मूर्तिकरण - एक ऐसी किताब है जिसमें वैश्विक आद्यरूपों (आर्केटाइप्स) की आदिम झलक पराभौतिक भाषा में व्यक्त होती है। भारतीय कला केवल वस्तुओं को उद्भासित नहीं करती, बल्कि उच्चतर विचारों, जटिल समाधि अवस्थाओं और बिजली सी कौंधती अन्तर्दृष्टियों को व्यक्त करती है।

गुरुवार, सितंबर 24, 2009

प्रकृति का पूर्णराग - बैजनाथ






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द्वार के एक तरफ कोई बैठा पारंपरिक नगाड़ा या नौबत बजा रहा था - अलग अलग ताल - समय की बदलती चाल। उजली धूप में अचानक राजस्थान के वे पुरातन महल एवं किले झिलमिलाने लगे जहां अक्सर राजस्थानी मांड गाते और बजाते पगड़ीधारी लोक संगीतकारों के तपे चेहरे वाली जोड़ी दिख जाती। फिर उभरी, देवी के पर्वतीय मंदिरों के बीहड़ रास्तों में सुनाई पड़ने वाली स्थानीय कंठ स्वरों की हेक और तानें। ये मंदिर कभी तमाम कलाओं के रंगस्थल थे। मंदिर के सभा मंडप से पहले नाटय मंदिर का वास्तु भाग नृत्य, नाटय एवं कीर्तन के लिए ही बना होता था। वास्तु, मूर्ति, संगीत, नृत्य और नाटय के आश्रय स्थल ये मंदिर, कलाओं के जरिए सम्पूर्ण सृष्टि की लय को रूपायित किया करते।
तो मंदिर में प्रवेश करते ही हम एक विशाल प्रांगण में थे .. खुला .. उन्मुक्त .. झरझर बरसती धूप, रोशनी, नीले आकाश और बहती हवाओं को समर्पित। वास्तुकला के चिंतकों ने खुले आंगनों के चरित्र और प्रभाव पर लिखा है कि ये वास्तु रूप मनुष्य के प्रकृति के साथ सीधे तादात्म्य की तड़प को व्यक्त करते हैं। इनमें पुरातन मानव के बेघर होने की स्मृति संजोई गई है। यह सभ्य मनुष्य को ससीम से असीम की याद दिलाता आया है। दीन से दीन कुटिया के गिर्द भी थोड़ी ही सही खुली जमीन छोड़ी जाती थी। इसमें एक आध पेड़, कुछ पौधे और एक खुला विस्तीर्ण आकाश होता था, रात में जिसमें असंख्य सितारों का वैभव उमगता था, दिन रात की घूमती चक्की अनेक रंगपटल रचती थी, घुमड़ती बदली, बरसाती बौछारें, तूफानी हवाओं और धूल मिट्टी के अलावा चिड़िया - तोता मैना - गाय, बकरी को भी यही स्थान न्योतता था।
यह विशाल प्रांगण चंहुओर दीवार अथवा प्राकार से घिरा था। इस आंगन के बीचोंबीच शिखर शैली का भव्य बैजनाथ मंदिर खड़ा था। कुछ नन्हें नन्हे मंदिर और थे। उन्हें देखना ऐसा था जैसे किसी खुले खेत में कहीं कहीं फसल रखने की फूस के छाजनों वाली कुटियां हों। चारों ओर की भित्ति पर एक उड़ती सी नजर डालते ही दिखा कि मंदिर की बाहरी सीमा भी सूनी सपाट न थी। उसमें जगह जगह आले बने थे जिनमें अधिकतर दैवी और मानवी युगल अंकित थे - शेषशायी विष्णु और लक्ष्मी, शिवशक्ति, एक तांत्रिक काममुद्रा। कभी कभी लगता है कि मंदिर या देवायतन का वास्तु किसी भव्य केंद्र का ग्लोरिफिकेशन न होकर सम्पूर्ण जीवन और सम्पूर्ण सृष्टि का स्तुति गान करता है। यह सम्पूर्ण प्रकृति की विभिन्नता को समर्पित होता है और जीवन के हर आद्य तत्त्व को स्वीकारता है। हां यह जरूर है कि बाहर से भीतर गर्भगृह की ओर बढ़ते हुए एक यात्रा है जो काम और अर्थ के सोपानों को तय करते हुए धर्म और मोक्ष की तरफ बढ़ती है। यात्रा जो धीरे धीरे क्रमश: एक आध्यात्मिक अनुभव में संक्रेंद्रित होती जाती है - लेकिन साथ ही जो जीवन की सम्मपूर्णता की आग्रही है। जीवन का प्रवाह आत्मा के चारों ओर प्रवहमान है। आत्मन् उसी जीवन जल में नहाता है - बार बार अवगाहन करता है फिर बाहर निकल कर इस प्रवाह को देखता है - किंचित अलग होकर - और जीवन की लय और गति का एक बोध पाता है।

बुधवार, सितंबर 23, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग - बैजनाथ


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अब आगे बढ़ते हैं. इस बीच हमारे मित्र सर्वजीत ने मंदिर के चित्र भी भेज दिए है. अब यह यात्रा और भी सुहानी हो जाएगी.

हमारी गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। दृश्य बदलते जाते हैं - फिर भी कुछ है जो नहीं बदलता। कभी कोई छोटी सी बस्ती - कोई छोटा सा गांव आता है। सड़क के किनारे परचून की एक आध दुकान .. और उनमें ठहरे हुए से कुछ चित्र लिखे चेहरे। हम वहां ठहरे होते तो चेहरे अपने चित्र रूपों से बाहर आ पाते लेकिन अभी तो वो फ्रेम में जड़े से लगते हैं और ओझल हो जाते हैं।

एक बस्ती के बीच हम छोटी सी सड़क से गुजर रहे हैं। अचानक गाड़ी के आगे गायों का झुण्ड आ जाता है। उस झुण्ड में से एक गाय घबरा कर इधर उधर भागती है। उसकी प्रौढ़ा मालकिन हाथ जोड़ कर गाड़ी रोकने का इंगित करती है और स्वयं गाय के पीछे भागती है। उसे कभी यहां से तो कभी वहां से समेट कर, पुचकार कर लाती है और एक सुरक्षित गली में धकेल देती है। शायद यह रास्ता आम नहीं। लेकिन गाय की बदहबासी हवा में लटकी रहती है देर तक। आधुनिक विकास और प्रगति के बरक्स यह पयस्विनी प्रकृति की बदहवासी की एक झलक है शायद। लेकिन क्या इस प्राकृतिक जीवन के लिए ऐसा कोई ममता भरा स्पर्श बचा है जो उसे थाम ले और रास्ता दिखा दे - क्या उसके लिए कोई सुरक्षित गली बची रह पाई है?
लगभग आधा रास्ता बीत चुकता है तो हम बैजनाथ पहुंचते हैं। जगह का नाम ही मंदिर के प्रताप से बैजनाथ पड़ चुका है। सुनते हैं पहले यह स्थान कीरग्राम कहलाता था। ब्यास नदी की एक सहायक नदी बिनवा के तट पर यह स्थित है। बैजनाथ शब्द वैद्यनाथ का विकृत रूप है। हिमालय की प्रकृति जड़ी बूटियों की खान है। आयुर्वेद का विज्ञान इसी प्राकृतिक वैभव का ऋणी है। शिव इसी मंगलरूपिणी प्रकृति के नियामक और अधिष्ठाता देव हैं - वैद्यों के स्वामी एवं नाथ हैं। चट्टानों पर जड़ी-बूटियों को घिस कर निकाला गया रस एवं सत्व ही तो शिव है - जो कभी मनुष्यों के रिसते दुखों पर आलेपन सा लगता है तो कभी उसके रक्त में घुल मिल कर विकारों से लड़ता है।
यहां छोटी मोटी दुकानों का सिलसिला दूर तक चला गया है। इनमें चाय और कामचलाऊ मिठाई और मठरी समोसों के चिर परिचित स्वादों के साथ नए अंतर्राष्ट्रीय स्वाद भी घुस आए हैं। बेहद भड़कीले रंग की पन्नियों में बिकते चने चबेने के आधुनिक अवतरण भी दिखते हैं। यह सब है पर मंदिर के गिर्द फूलवालों और प्रसादवालों का वैसा बाजार नहीं दिखता जैसा आमतौर पर प्रसिध्द मंदिरों के आसपास होता है। समृति में सिंदूर के लाल ढेर, बिंदी, चूड़ियां और लटकती मालाएं झूलने लगती हैं।
तपती दोपहरी थी। बिनवा नदी काफी नीचे बह रही थी - पहाड़ी पर वही थे - धूप में चिलकते कैंथ के सफेद वृक्ष। मंदिर का ऊंचा विमान या शिखर बाहर से ही दिख रहा था। मंदिर के आसपास जमीन घेर कर हरी भरी घास लगाई गई थी और क्यारियां बनाई गई थीं। यह नई सज्जा हरी भरी होने से खटकती तो न थी, पर पुरातन मंदिरों की छवि और उनके परिवेश की बीहड़ता के संस्कार से कुछ अलग जरूर पड़ रही थी।
हाथ पैर हमने एक नल से बहते जल के नीचे किए और तीन चार सीढ़ियां चढ़ कर एक कोने के द्वार से मंदिर में प्रविष्ठ हुए। पैरों के तलवों में तिलमिलाहट होने लगी... फर्श के सलेटी पत्थर आवेग में तप रहे थे। काश पहाड़ी बरसात कहीं छिपी हो और आकर इन तपते पत्थरों पर बरस जाए। एक भावप्रवण पहाड़ी लोग गीत की टेक है -
कुथू ते उमगी काली बादली / कुथू ते बह्यरेया ठंडा नीर वो .../ छातिया ते उमगी काली बादली / नैनां ते बह्यरेया ठंडा नीर वो


मंगलवार, सितंबर 22, 2009

प्रकृति का पूर्ण राग : बैजनाथ

एक

हिमाचल प्रदेश में पठानकोट मंडी के रास्‍ते में शिव का प्राचीन मंदिर है - बैजनाथ. अब यह पुरातत्‍व विभाग के पास है. फोटो ख्‍ींचना मना है. हम लोग कई बरस पहले धर्मशाला से मंडी जाते हुए इस मंदिर में गए. और इस मंदिर की रचना और मूर्तियों को देखने की कोश‍िश की. यह लेख विपाशा में छपा था। लेख चूंकि लंबा है इसलिए बेहतर है इसे किश्‍तों में पढ़ा जाए. उम्‍मीद है आपको अच्‍छा लगेगा.


यह साल का वह छोटा सा टुकड़ा था जब हम मुंबई की रेलपेल से छिटक जाया करते। एक लंबी कठिन यात्रा और फिर हिमाचल का एक छोटा सा कस्बेनुमा शहर - धर्मशाला। इस बार तो वक्त और भी कम है - चलो धौलाधार पर्वत शृंखला की छांह जब तक मिल जाए। और फिर बहुत सा समय दुनियावी चिंताओं और चर्चाओं में फिसल जाता है। लेकिन तो भी कुछ क्षण हैं जो खामोश टपकते रहते हैं - आत्मा के मटियाले बर्तन में। धौलाधार पर्वत माला की लहरीली रेखाएं, गांधारी पुष्पों में महकती सुबहें और सन्ध्याएं, चांदनी में नहाती गुपचुप पहाड़ी रातें, पगडंडियों पर चलते हुए साथ चलने वाली बसबाड़ियां, चीड़ के वृक्ष, झाड़ियां और उनमें से झांकने वाले जंगली फूल और फल। अचानक घुमड़ पड़ने वाली घटाएं और बरस पड़ने वाले मेंह।

हमें मंडी पंहुचना है। पालमपुर के बाहर बाहर से पंचरुखी और फिर थोड़ी देर अंदरेटा रुकते हुए बैजनाथ एक प्रमुख पहाड़ी पड़ाव था। रास्ते में कई पहाड़ी सोते छलछलाते हैं। पहाड़ी लोग इन्हें खड्ड और नाले कहते हैं। पहाड़ी लोक गीतों में अक्सर गहरी खड्डों और ऊंचे पहाड़ों का जिक्र होता आया है -

डुग्गियां खड्डां ते निरमल पाणी / अक्खें बक्खें दो कुआलू / जीणा, पहाड़ां दा जीणा

या फिर

डुघी डुघी नदियां ते सैली सैली धारां / छैल छैल गह्बरू ते बांकियां नारां।

चीड़ के वन आते हैं और हम उनमें से गुजर जाते हैं। फिर आसपास चाय के बागान दिखते हैं और पीछे छूट जाते हैं। धूप खासी तेज है। कैंथ के पेड़ दिखते हैं और लाल बुरुंश। यह बदलता पर्वतीय परिदृश्य एक सन्ध्या की स्मृति जगाता है। जब हम डॉ। बी. सी. खन्ना के सादे सुंदर कमरे में बैठे हैं। इस बार उनका कमरा कुछ और खाली सा लग रहा है। कमरे में खुलने वाले तीन दरवाजों पर टुनटुनाने वाली घंटियां बीच बीच में मीठे स्वरों में बज उठती हैं। हमेशा की तरह अपनी खींची हुई तस्वीरों की अलबमें हमारे सामने रख देते हैं। हिमाचल के शाश्वत प्रेम में रत यह मनोचिकित्सक सौंदर्य का अद्भुत पारखी है। उनकी अलबमें पहाड़ी फूलों, पेड़ों और और दृश्यों से भरी पड़ी हैं - पर उनका मन है कि भरता ही नहीं। वे बताते हैं, यह कैंथ का पेड़ है - सफेद फूलों वाला, यह लाल फूलों वाला बुरुंश है, यह नाशपाती के फूलों वाला गुलाबी पेड़...

एक ही तरह के पेड़ के न जाने कितने चेहरे और मूड्ज हैं जो अलग अलग दृष्टि बिंदु और प्रकाश के संदर्भ में बदलते जाते हैं। लगता है यह चित्र इंसानी पोर्टरेट्स की तरह व्यक्तित्ववान हैं। फिर उनकी अलबमों में लंबी आंखों वाली खूबसूरत गद्दिनें और मेहनतकश गद्दियों के चेहरे उभरते हैं। कहीं इंसानी हंसी और मुस्कान के अनेक शेड्ज तो कहीं उदासी के, कहीं कौतुक के तो कहीं सोच में डूबे चेहरों के। कमरे में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की मधुर ठुमरी के वृत्त के वृत्त बन रहे हैं - और डॉ. साहब रसोई से चुपचाप गिलासों में चाय ढाल कर ले आते हैं।