बासु चैटर्जी को उनकी फिल्म रजनीगंधा की याद के साथ प्रणाम
कई साल
पहले एक शाम एक फिल्म देखी थी - नाम था रजनीगंधा। तकनीकी बारीकियां, फिल्म माध्यम, तब भला कहां समझ में आती थीं। पर फिल्म की छवियां थीं कि मन
में अटकी रह गई थीं। कुछ था जो मुंबइया फिल्मों की भीड़ से अलग था। बेहद सहज और
अपने आसपास की दुनिया के पात्र और चेहरे। नकली और झूठा
सा तो कुछ भी नहीं था। न जोरदार संगीत, न शब्दबहुल
नाटकीयता न चकाचौंध और ग्लैमर। कहानी प्रेम से जुड़ी थी
जिसमें एक स्त्री और दो पुरुष छवियां थीं। दोनों पुरुषों के व्यक्तित्व कितने
अलग-अलग थे। पर दोनों अपनी अपनी तरह से भले लगते थे। कोई खलनायक न था। न कोई नायक
था। बस एक कोमल सी कहानी में एक कोमल सी नायिका और उसके प्रेम को लेकर या कहें
प्रेमपात्र को लेकर एक उलझन।
फिर कुछ
अंतराल के बाद मन्नू भंडारी की कहानी पढ़ी - नाम था यही सच है। एक एक पंक्ति पढ़ते
हुए मन उमगने लगा था। और रहस्य खुलता गया था कि इसी कहानी पर ही तो बनी होगी वह
फिल्म। सभी कुछ तो वही है - दीपा की इंतजार करती आंखें, वो खुद कभी बालकनी से झांकती तो कभी कमरे के भीतर आती, किताब खोलती कभी बंद करती, कभी अलमारी खोलती, कभी दीवार घड़ी की सुइयों को देखकर परेशान सी होती। हवा से पर्दा कांपता
और वह चिंहुक कर उस तरफ देखती कि शायद संजय आ गया। वाह क्या कहानी थी! जैसे कोई
खूबसूरत नीलाभ पारभासी पत्थर, जिसे प्रकृति ने ताप और
ठंडक के मेल से बनाया हो - भीतर तक जिसमें रंग और बुलबुले दिखते थे। कितना अनूठा
था कथ्य और उतना ही अनूठा शिल्प भी।
लय से भरा हुआ, मानो आलाप की नींव से एक संगीत लहरी धीरे धीरे
ऊपर उठती जाती है। लेकिन अनूठा होकर भी शिल्प इतना सहज था जैसे एक डाल पर से दो
टहनियां फूटें और उनमें अपनी अपनी कोंपलें और फूल पत्ते हवा के झोंको में लरजने
लगें।
प्रेम पर
अनेक कहानियां लिखी गई हैं। स्वयं मन्नू ने भी प्रेम पर कई कोणों से कई बार लिखा
है। पर यह कहानी प्रेम के पारंपरिक मिथक को जिस मासूमियत से, बिना किसी क्रांतिकारी तेवर के ध्वस्त करती है, उसकी मिसाल शायद ही मिले। खासकर स्त्री मन का ऐसा निर्वचन शायद तब तक हुआ
नहीं था। कहानी में बाहरी तौर पर कोई बड़ी घटना नहीं घटती, कोई लंबा चौड़ा इतिवृत्त नहीं बनता, फिर भी एक
छोटी सी परिस्थिति से मन:स्थितियां बदलती हैं, कुछ ऐसे, जैसे
रेगिस्तान में हवाएं चलने से रेत के बदलते आकारों से भूदृश्य बदल जाता है। पूरी कहानी में पल पल मन की तरगें कभी उठती
हैं, कभी गिरती हैं। वृत्त बनते जाते हैं। एक पल उमस
भरा है तो दूसरे ही पल हवा का झोंका आ जाता है। यानी यह मन:स्थितियों की ही कहानी
है । अंतत: भीतर ही भीतर एक द्वन्द्व में उलझती दीपा की कहानी। लेकिन उलझने का
स्पेस भी तो जब कोई खुद को देता है, विशेषकर स्त्री, तो मन की यह उड़ान एक खास चेतना की परिचायक बन जाती है। मन को टटोलना, ईमानदारी
से भावों के आधार पर प्रेम में चुनाव के संकट से जूझना, यह जोखिम उठाना, स्त्री की एक अभूतपूर्व छवि की
रचना करता है। कई सवालों के बीज कहानी से फूटते हैं। क्या प्रेम कोई स्थिर धारणा है? क्या एकनिष्ठता ही प्रेम का चरित्र है? क्या
अतीत बस अतीत हो जाता है? क्या वह नया जन्म लेकर हमारे
सम्मुख लौटता नहीं? और क्या वर्तमान को अतीत बनते बहुत
देर लगती है? और फिर इसके अलावा प्रेम की अभिव्यक्ति और
संप्रेषण के उजले और धुंधले कितने स्तर हैं? कितने
चौड़े रास्ते और संकरी गलियां हैं? क्या प्रेम मादक
कल्पना और रोमान से जन्म लेता है? या सहज स्वाभाविक
मैत्रीपूर्ण अंतरंगता का नाम प्रेम है?
कहानी एक
पढ़ी-लिखी युवती दीपा की है, उसकी नजर से और उसी की
जुबां में लिखी गई है। दीपा कानपुर में अकेली रहती है और अपने थीसिस पर काम कर रही
है। वह संजय नाम के एक युवक, जो एक ऑफिस में काम करता
है से प्रेम करती है। अक्सर उन दोनों की शामें कभी घर तो कभी बाहर घूमते हुए साथ
कटती हैं। कहानी की शुरुआत ही दीपा के इंतजार से शुरू होती है। यह इंतजार पूरी
कहानी में रूप और पात्र बदल-बदल कर आने वाला मोटिफ है। उसी तरह एक सहज पर मार्मिक
मोटिफ विदा करने का भी है। इन सब के बीच जगहों की, पात्रों
की भूमिकाएं शिफ्ट होती रहती हैं।
चीजें वही रहती हैं पर आलंबन बदल जाते हैं।
मन्नू
भंडारी ने दीपा में ही दो तरह की छवियों को अंकित किया है। इंतजार में भटकते मन और
निगाहों वाली तथा सपनों के रोमांच में खोई खोई सी दीपा, तथा अचानक विभक्त-मना, उलझी, असुरक्षित और कातर दीपा।
कहानी में संजय के व्यक्तित्व की रेखाएं कम सही, पर
बड़े अचूक ढंग से उसे अंकित कर देती हैं कि प्रेम के अलावा भी वह पूरी दुनिया में
डूबा है। उसका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा सरल है कि वह जहां हो वहीं का हो कर रह जाता
है। अत: बार बार देर से आना उसकी आदत बन गई है। पर वह दिल का साफ और बच्चे की तरह
मासूम है इसलिए लाड़ दुलार, प्रेम मनुहार करके दीपा को
मना भी लेता है।
दीपा का
एक अतीत भी है जब पटना में पढ़ाई करते हुए उसने निशीथ से प्रेम किया था। फिर किसी
बात पर वह संबंध निशीथ की ओर से टूटा था और अपने पीछे अपमान का तिक्त स्वाद, आंसुओं का ज्वार और घनी रिक्तता छोड़ गया था। अत: अब निशीथ का नाम मजाक
में भी सुनना उसे पसंद नहीं।
लेकिन
कहानी में मोड़ तब आता है जब दीपा को नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने अकेले
कलकत्ता जाना पड़ता है। वहां एक नए परिवेश में अचानक उसकी भेंट फिर से अपने अतीत
यानी निशीथ से हो जाती है। निशीथ दीपा की नौकरी के लिए पूरी तरह जुट जाता है। इधर
दीपा इन तीन चार दिनों के साथ में उसकी अनकही भावनाओं का आकलन करते करते अपने ही
मन में विभक्त होने लगती है। एक गहरे नैतिक संकट के तहत उसे लगता है कि निशीथ को
संजय के बारे में सब बता देना चाहिए ताकि किसी तरह की गलतफहमी न रहे। पर दूसरी ओर
अनकहे आकर्षण के चलते उसके ओंठ भी नहीं खुलते ... ।
अपने लिए
खामोशी से इतना कुछ करते देख और अतीत की मंद रोशनी में उसका हृदय पिघलने लगता है।
कभी जिज्ञासा होती है, कभी हल्की सी मोह भरी सहलाहट। और वह चाहने लगती
है कि वह साफ साफ कह क्यों नहीं देता। वह उसके पसंदीदा रंग की नीली साड़ी पहन लेती
है। साथ कॉफी पीते हुए निशीथ के कांपते ओठों की धड़कन तक महसूस करती है। और एक वह
क्षण आता है कि वह चाहने लगती है कि निशीथ हाथ बढ़ाए और उसे छू ले। उसे घेर ले एक
आलिंगन में। पर मानो निशीथ का हृदय बस फड़फड़ाता है।
फिर
कलकत्ता और निशीथ से विदा होने का वह क्षण आता है जब निशीथ को देखते हुए उसकी
आंखें कातर हो उठती हैं। वह सुनना चाहती है वह बात जो उसके कानों और हृदय में बज
रही है। गाड़ी की सीटी के साथ आंखें छलछलाती हैं और झटके से गाड़ी के सरकने पर
आंसू बह आते हैं... और तब निशीथ के हाथ का क्षणिक स्पर्श ....
पूरी
कहानी दृश्य-गंध-ध्वनि और गति को शब्द के माध्यम से आंकती एक फिल्म जैसी ही है।
कहानी में रजनीगंधा के फूलों की महक भरी है।
कहानी की एक एक भंगिमा, एक एक वाक्य ऐसा है कि फिल्मकार कुछ भी कहां
छोड़ पाया है। उसने शब्द की हर भंगिमा को अपनी निजी भाषा में ढाला है। जिस तरह
किसी चित्र को देखते हुए हम चित्रकार की दृष्टि के भी रूबरू होते हैं, उसी तरह फिल्म को देखने से आभास होता है कि फिल्मकार कहानी पर इतना मुग्ध
है कि न केवल ऐसे ऑफबीट विषय को फिल्म के लिए चुनने का जोखिम उन्होंने उठाया, बल्कि कहानी के सौंदर्य से छेड़छाड़ किए बगैर उसे बरकरार रखने की कोशिश भी
की है, उसे पूरा सम्मान दिया है। फिल्मकार इस मार्मिक कहानी की उंचाई तक
फिल्म को पहुंचाना चाहते थे, उसकी सूक्ष्मता और मानवीय सार को व्यक्त करना चाहते थे। विश्व फिल्म इतिहास में ऐसा कम हुआ है कि
अच्छी कहानी या उपन्यास पर फिल्म भी उसी स्तर की बनी हो। पर यह फिल्म इस दृष्टि से अपवाद है।
फिल्म
माध्यम की अनिवार्यता के तहत फिल्मकार ने जहां कुछ तब्दीलियां और सरलीकरण किए हैं, वहीं कुछ विस्तार अैर पल्लवन भी फिल्म के हक में किए हैं।
फिल्म ने
कथा के दृष्टिकोण को लगभग यथावत् रखा है। यानी फिल्म भी दीपा के ही दृष्टिकोण से
कही गई है। मन्नू भंडारी इस तकनीक की - बेहद सांद्र तकनीक की, बड़ी माहिर प्रयोक्ता रही हैं - हम याद कर सकते हैं आपका बंटी और त्रिशंकु
की युवा होती किशोरी को। यह कहानी के शिल्प का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि कहीं भी
लेखिका अपने या दूसरे पात्रों की नजर से कुछ नहीं कहती। जो कुछ भी प्रतिबिंबित हो रहा है वो सब दीपा
के दृष्टिबिंदु से और उसी के मन में हो रहा है। लेकिन फिल्मकार के लिए इसे यथावत दिखाने में
बड़ी चुनौती छिपी थी। दीपा के मन में हर पल चलने वाली उलझन, बाहरी खामोशी के भीतर चलने वाले संवादों-प्रतिसंवादों, एकालापों को, विस्मय और संवेग के तमाम उद्गारों
को कैसे दिखाया-सुनाया जाए। पर बासू चैटर्जी जैसे फिल्मकार ने इसके लिए अपने
माध्यम को तरह तरह से आविष्कृत किया। क्योंकि वह इस कहानी को उसी रूप में और
उन्हीं डिटेल्स के साथ, अपने माध्यम में दर्शकों को
सुनाना चाहते थे, जिस रूप में यह मन्नू जी की कलम से
निकली थी।
कहानी के
शिल्प को खुला छोड़ दिया गया है। यानी आदि से अंत वाली कालक्रमिकता यहां नहीं है। कहानी दो समय खंडों में और दो
स्थानों में आवाजाही करती है।
फिल्म में भी कहानी के उस मूल शिल्प को बरकरार रखा गया है जिसमें पूरी कहानी दो
स्थानों, दो भूगोलों या दो परिवेशों में बंट जाती है। ये
दो स्थान मूल द्वन्द्व का प्रतीक बन जाते हैं, ये संजय
और निशीथ के प्रतीक बन जाते हैं - दीपा के वर्तमान और अतीत के प्रतीक। इनमें
भविष्य के अंकुर अलग अलग ढंग से फूटना चाहते हैं। दोनों स्थानों का द्वन्द्व अंतत:
उभरता है। पर पृष्ठभूमि में किंचित दूरस्थ अतीत में पटना भी है जहां पिता और
भाई-भाभी के संरक्षण में पढ़ते हुए सत्रह साल की उम्र में दीपा ने निशीथ से प्रेम
किया था।
लेकिन
फिल्म में सुविधा के लिए कानपुर और कलकत्ता को दिल्ली और मुंबई में बदल दिया गया
है। यों दिल्ली की सुरम्यता पेड़ों की कतारों वाली चौड़ी सड़कों, पृष्ठभूमि की मुगलकालीन इमारतों, मकबरों के
अलावा बसों और बस-स्टापों के बीच मध्यवर्गीय जीवन में मूर्त होती है। यद्यपि ये
दिल्ली की टिपिकल छवियां नहीं हैं। फिल्म में मुंबई किंचित मांसलता से उभरती है, अपने शरीर और आत्मा के साथ। जिसमें टैक्सी की खिड़की से भागते दृश्य हैं
तो वहां का व्यस्त जीवन, चिपचिपा पसीना, पानी की समस्या, जमीन से ऊंचे घर और लिफ्टें, मैजिक आई से देखना भी है। निशीथ का काम (फिल्म में इसका नाम नवीन है)
फिल्म में मूर्त हो जाता है। यहां विज्ञापन की दुनिया उभरती है। एक पार्टी के
दृश्य के जरिए फिल्मकार मुंबई के उच्चभ्रू जगत का एक चुस्त कोलाज रच देता है।
पार्टी में इधर उधर झांकता कैमरा और बातों के कुछ टुकड़ों में रेस कोर्स, नाटक, बुटीक और फिल्म जैसे शब्द झरते हैं। इस
मेलजोल के पीछे संपर्क बढ़ाकर बिजनेस पाने के निहितार्थ
को भी फिलमकार ने रेखांकित कर दिया है।
फिल्म
में कुछ बदलाव किए गए हैं जिनसे लगता है सरलीकरण हो गया है। जैसे दीपा को नितांत
अकेले नहीं, दिल्ली में भाई-भाभी के साथ रहते दिखाया गया
है। इस बदलाव के कारण मन्नू भंडारी के पात्रों के रिश्तों के बीच जो छोटे छोटे
पेंच और भंवर पड़ते हैं और जिन्हें वे छोटे से किसी संकेत, वाक्य या मुद्रा से कह जाती हैं, वे अनकहे तनाव
यहां नहीं हैं। दूसरे अकेले रहने से जो दीपा की आत्मनिर्भर युवति की छवि कहानी में
बनती है, वह फिल्म में किंचित मंद पड़ जाती है। और फिर
अचानक भाई-भाभी को जाना पड़ जाता है जिससे दीपा कहानी की मूल स्थिति में आ जाती
है। यह युक्ति बहुत ज्यादा समझ में नहीं जाती, जैसे यह
बात भी खास समझ में नहीं आती कि कानपुर को दिल्ली और कलकत्ते को मुंबई में क्यों
किया गया है।
फिल्म का
एक और सुंदर विस्तार दो पुरानी सखियों के मिलने के दृश्य में हुआ है। इरा के
चरित्र का पल्लवन करके उसे एक प्रामाणिक रूप दिया गया है। इरा के पति की अनुपस्थिति में उनका
अनौपचारिक खुला व्यवहार, गिले-शिकवे, छेड़डाड़
और चुहल मूर्त हो जाती है। इन दृश्यों में इरा के खुले और निस्संकोच विवाहित रूप
तथा दीपा के खामोश और शर्मीले रूप का भी कहीं न कहीं एक सहज सा कंट्रास्ट है।
फिल्म में नवीन और दीपा के संबंध-विच्छेद को भी छात्रों की हड़ताल से जोड़ा गया
है। इस तरह बासू चैटर्जी सामाजिक और व्यक्तिगत की टकराहट के माध्यम से दो
प्रेमियों की ईगो की सहज व्याख्या कर देते हैं। फिल्म और कहानी में एक और बड़ा
फर्क मुंबई में दीपा और नवीन की मुलाकात से जुड़ा है। कहानी में एक कॉफीहाउस में संयोगवश इन दोनों
की मुलाकात होती है, जबकि फिल्म में यह संयोग न रहकर सुनियोजित
उपक्रम बन जाता है।
हालांकि इसके पीछे इरा की व्यस्तता के चलते रेलवे स्टेशन पर दीपा को रिसीव करने न
जा पाना है। वैसे भी मुंबई जैसे जनसमुद्र
में ऐसे संयोगों की जगह नहीं है।
इसलिए यह परिवर्तन आरोपित नहीं लगता।
फिल्म
में कहानी के पात्रों का चरित्रांकन बहुत महत्वपूर्ण है। शायद इस कथा और फिल्म के
बीच जो संवाद घटित हुआ घटा है वह इस कहानी के तीन पात्रों को लेकर है। फिल्मकार ने
उन्हें चेहरा और रूप देकर स्थिर सा कर दिया है। यानी कहानी की मूर्तता पर अंतिम
मुहर लगा दी है। और इसके अलावा तीनों चरित्रों को विशिष्ट मैनरिज्म देकर
प्रामाणिकता और कंट्रास्ट को गहरा किया है।
इससे ये चरित्र दर्शक के मन में स्थाई जगह बना लेते हैं। दीपा की सहज सुंदर पर सादा छवि को विद्या
सिन्हा ने मूर्त किया है। सूती साड़ी पहने हुए उसका सादा और भावमय रूप आंखों में
बस जाता है। फिल्मकार ने उसका आभरण भी बेहद सादा रखा है। सादगी भरी यह सुंदरता ही उसकी पहचान बन जाती
है। क्लोजअप में कभी कभी बस एक मोती का कर्णाभूषण चमकता है। अपनी लंबी चोटी को कभी
आगे कभी पीछे ले जाती, अनजाने में कभी खोलती कभी गूंथती उसकी
अंगुलियां एक मैनरिज्म रचती हैं और उसके खुलते और बंद होते मन की भंगिमा बन जाती
हैं। कहानी तो दीपा के भीतरी स्पेस
से ही रची गई है पर फिल्म को तो बाहर से ही भीतर जाना पड़ता है। फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में दीपा चुप है
इसलिए फिल्म में उसकी देहभाषा का ही बारीक अंकन है। उसकी खीझ और तुनक, फिर उसका पिघल उठना, उसकी असुरक्षा, उलझन, कातरता को कहानी में शब्दों के जरिए
व्यक्त करना इतना कठिन नहीं, लेकिन फिल्म में उसकी लंबी
नि:शब्दता को पार्श्व संगीत से, छोटी छोटी हरकत और
अभिनय से मूर्त किया गया है और मन के भीतर समानांतर चलने वाले एकालापों, उलझनों और इच्छाओं को फिल्मकार ने दृश्य को फ्रीज करके सुनाने की तकनीक
अपनाई है। उसके चरित्र में भी अंतर्निहित
विरोधाभास है कि वो एक स्तर पर आधुनिका और आत्मनिर्भर होकर भी हृदय के स्तर पर
अपराजेय और अभेद्य नहीं है।
सपनों में खोई सी या अपने में उलझी सी यह भावुक लड़की कभी कभी बेहद कातर, अकेली, असहाय और असुरक्षित नजर आती है। और इसी पक्ष को उभारने के लिए बासु दा ने
फिल्म की शुरुआत एक ऐसे दु:स्वप्न से की है जहां चलती ट्रेन में वो नितांत अकेली
छूट गई है या एक निचाट प्लेटफार्म पर अकेली छूट गई है।
नवीन के
व्यक्तित्व को फिल्मकार ने लेखिका की आंखों से ही देखा है। यह और बात है कि उसमें कुछ आयाम और जोड़ दिए
गए हैं। कहानी में निशीथ का अंतर्मुखी
रूप संजय के खुले और सहज व्यक्तित्व का लगभग प्रतिपक्ष ही है। कवियों जैसे लंबे बाल और दुबला संवलाया
चेहरा कहानी की तरह फिल्म में भी है।
तो भी संजय के बरक्स उसे थोड़ा विशिष्ट बना दिया गया है। संजय की वेषभूषा और अंदाज ऑफिस जाने वाले
किसी भी आम और मध्यवर्गीय युवा का है, और उसके कपड़ों और बालों पर ध्यान नहीं जाता। दूसरी ओर फिल्म का नवीन सादा होकर भी कुर्ते
और पतलून में दिखाई पड़ता है।
उसके व्यक्तित्व में उस समय के मीडिया की दुनिया और कलात्मकता का हल्का सा पुट है। थोड़ा सा बुद्धिजीवियों वाला अंदाज और अदा। फिल्म का नवीन एक के बाद एक सिगरेट जलाता
रहता है और बहुत बार उसकी आंखों पर एक गहरा चश्मा रहता है जो उसके स्वभाव की
अंतर्मुखता के अनुरूप उसके भावों को छुपाए रहता है। नवीन की जो छवि फिल्म में उभरती है वह अपने
समय के बौद्धिक अथवा कलाकार वर्ग की है।
दूसरी ओर
संजय के व्यक्तित्व को काफी विस्तार दिया गया है। अनेक सहज दृश्यों के माध्यम से उसके
व्यक्तित्व और दीपा से उसके संबंध की दृश्यात्मक व्याख्या की गई है। सबसे बढ़कर इस चरित्र के माध्यम से बासु दा
ने हल्के ह्यूमर की सृष्टि की है।
उसके आते ही पात्रों और दर्शकों के होठों के कोरों पर एक मंद मुस्कान आ जाती है। अक्सर उमस के बाद एक खुश्बूदार हवा के झोंके
की तरह वो आता है। उसका मुस्कुराता चेहरा जब जब
दिखता है, फिल्म का तनाव बिखरकर, धुंआ बनकर उड़ने लगता है।
वह खिलखिला के दूसरों को हंसा देने वाला पात्र है, बला
का बातूनी और भुलक्कड़।
लेकिन अंतत: हर समस्या को गोली मारो के तकिया कलाम से उड़ा देता है। दीपा के साथ रहते हुए भी दफ्तर, चीफ, प्रमोशन, रंगनाथन, मेमोरेंडम और आखिर यूनियन की मांगें उसके दिमाग में भरी रहती हैं - और कभी कभी दीपा चिढ़ भी जाती है। दिल्ली की बरसात में अपनी फटी छतरी में जिस
निर्कुंठ भाव से वो दीपा को बुलाता है, वो दृश्य बेहद सुंदर ही नहीं, रोमान की एक नई
व्याख्या भी करता है।
कहानी में बार बार देर से आने का जो सूत्र लेखिका ने दिया है, फिल्मकार ने उसे तरह तरह से उठाया है। फिल्म की शुरुआत में ही थियेटर के बाहर
बेचैनी से इंतजार करती दीपा का दृश्य है।
एक और दृश्य में वो फिल्म आधी बीत जाने पर पहुंचता है ओर उसके बाद भी टिककर फिल्म
देख नहीं पाता। इसी बिंदु पर बासु दा फिल्म में
फिल्म दिखाकर मानों मुंबइया फिल्मों पर एक टिप्पणी कर जाते हैं। भड़कीले गीत, चालू नाटकीयता दिखाकर वे एक विरोध का
आभास भी यहां दे देते हैं।
कहानी
में नवीन से मिलने पर दीपा के मन में अनजाने ही जो तुलना संजय से होती जाती है, उसे भी जस का तस लिया गया है। जैसे संजय की विलंब से आने की पृष्ठभूमि में
नवीन का समय से पहले आ जाना।
या संजय का अपनी झोंक में दीपा की साड़ी और सौंदर्य को देखकर भी न देख पाना। जबकि तुलना में मितभाषी नवीन का यह उच्छवास, 'इस साड़ी में तुम बहुत सुंदर लग रही हो' दीपा
को रोमांचित कर जाता है।
देखा जाए तो यह भी एक सांयोगिक कंट्रास्ट ही बन जाता है कि दीपा के आग्रह के
बावजूद ऑफिस की व्यस्तता के कारण संजय दीपा के साथ मुंबई नहीं जा पाता और इधर नवीन
दीपा के लिए खुद को झोंक सा देता है और ऑफिस से छुट्टी तक ले लेता है।
मन्नू भंडारी |
लेकिन
कहानी की खूबी यह है कि अलग अलग व्यक्ति होकर भी लेखिका की तरफ से इन विशेषताओं के
बल पर कोई मूल्यांकन नहीं किया गया है।
न ही इनसे प्रेम की अधिकता या न्यूनता को मापने की कोशिश की है। दोनों पुरुषों का कभी सामना भी नहीं होता। वे तो लगभग एक दूसरे के अस्तित्व तक से
अनजान हैं अत: पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता जैसा तो कुछ है ही नहीं। जो भी उलझन है वो दीपा के मन में है। वे दोनों तो अपनी अपनी तरह से दीपा से जुड़े
हैं और अपने अपने अंदाज में प्रेम का अनुभव और अभिव्यक्ति भी करते ही हैं। सारा द्वन्द्व और चुनाव का सारा जोखिम तो
दीपा के ही हिस्से में आया है।
और एक बिंदु पर वह अपने लिए एक त गढ़ती है कि शायद प्रथम प्रेन्रेम ही सच्चा प्रेम
होता है।
फिल्म
में संजय दीपा को मुंबई के लिए विदा करने स्टेशन तक आता है, जबकि कहानी में ऐसा नहीं है।
इस दृश्य से नवीन द्वारा दीपा को विदा करने के दृश्य में समांतरता पैदा होती है और
साथ ही फिल्म में एक संतुलन बनता है।
विदा लेने और देने का मोटिफ और अलग होने की पीड़ा दोनों में उभरती है। लेकिन फिल्म में जिस तरह गाड़ी के चलने से
पहले बहुत सी भाप इंजिन से निकलती है और स्क्रीन पर धुंए का एक बादल सा छा जाता है, उसी के बरक्स दीपा का संयम टूटता है। संवेग का वाष्प आंसू बनकर बह निकलता है।
सबसे
बढ़कर है रजनीगंधा के फूलों का काव्यात्मक मोटिफ जिसका इस्तेमाल फिल्म ने भी उतनी
ही खूबसूरती से किया है बल्कि फिल्मकार ने इसे एक
केंद्रीय मोटिफ (अभिप्राय) के रूप में चुना है। इसीलिए ये फूल फिल्म का नाम बनते
हैं। कई तरह से रजनीगंधा के फूलों का प्रयोग कई तरह से हुआ है। इन फूलों के माध्यम
से प्रेम का एक ऐन्द्रिय आयाम भी उभरता है।
कभी दीपा फूलों को देखती है, मंद मुस्कान के साथ, कभी कोमलता से उन्हें छूती और अपने गालों पर महसूस करती है। कभी खुद को
आइने में फूलों के साथ निहारती है तो कभी फूलों को अपने सोने के कमरे में ले आती
है। एक पूरे गीत में उनके प्रतीक को स्वर दिए गए हैं। यह पीछे छूटी प्रेम की मदिर
खशबू के रूप में तो आता ही है, संजय के अस्तित्व के साथ
भी जुड़ा है। बार बार ये फूल आते हैं। दीपा के मन में संजय की उपस्थिति से वे जुड़
गए हैं।
'और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न
पढ़ने में मन लगता है न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते
हैं।'
कहानी
में एक जगह दीपा रजनीगंधा के अनेक फूलों में संजय की आंखें देखती है, 'जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं ', और यह कल्पना ही उसे लजा
देती है। फिल्म में इस अमूर्त भाव को भी फिल्मकार ने अभिनय क्षमता से मूर्त किया
है। फिल्म में भी ये बार बार दिखते हैं। संजय के आने के साथ और संजय के जाने के
बाद तक भी वे एक कोने में महकते रहते हैं। कहना न होगा कि रजनीगंधा के सफेद महकते
फूल एक स्तर पर संजय के खिले हुए अस्तित्व और दूसरे स्तर पर तन मन पर बरसते प्रेम
भाव का प्रतीक हैं।
'लौटकर अपना कमरा खोलती हूं, तो देखती हूं, सब कुछ ज्यों का त्यों है सिर्फ फूलदान के रजनीगंधा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झर कर इधर उधर भी बिखर गए हैं।'
यह दृश्य
मुंबई से लौट के आने के बाद का है और फूलों का मुरझाना संजय की छवि के मंद पड़
जाने से सहज ही जुड़ जाता है।
नवीन को
खत लिखती हुई दीपा सूने फूलदान को देखती है लेकिन फिर कतरा कर दिशा बदल कर सो जाती
है।
कहानी
में एक और बेहद सुंदर वर्णन है । जब इंटरव्यू से मुक्त होने के
बाद निशीथ के आमंत्रण पर दीपा और वह टैक्सी में बैठे हैं।
'टुन की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से बात करने लगती है।
निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, बीच में इतनी
जगह छोड़कर कि यदि हिचकोला खाकर भी रुके, तो हमारा
स्पर्श न हो।'
दैहिक
भंगिमाओं के इस अर्थगर्भित विवरण के बाद का विवरण तो काव्य की सीमा को छूने लगता
है।
'हवा के झोंके से मेरी रेशमी साड़ी का पल्लू उसके समूचे बदन के स्पर्श में पड़कर फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है।
मुझे लगता है, यह रेशमी सुवासित पल्लू उसके तन मन को रस में
भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे पुलकित कर रहा है। मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूं।
... ... जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा रही है, मुझे
लगता है, उतनी ही द्रुत गति से मैं भी बही जा रही हूं, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर!'
फिल्म के
लिए भी यह बहुत ही रोमानी, बहुत ही गर्भित क्षण है, फिल्मकार की अभिव्यक्ति को चुनौती देने वाला। और सचमुच ही मुंबइया फिल्मों के इतिहास में
एक बड़ा सूक्ष्म दृश्य रचा जाता है।
लेकिन उसमें फिल्मकार को कुछ कदम और आगे बढ़ना पड़ता है। फिल्म में भी दोनों टैक्सी के अंदर दूर दूर
बैठे हैं। नवीन की आंखों पर काला चश्मा
है। वह अपने भावों को खिड़की के बाहर देखने की भंगिमा में छिपाने की कोशिश में है। रेशमी आंचल इस बीच की दूरी को पाटने लगता है
और नवीन को छूता है। फिल्म
इस सब के दौरान एक बेहद सुंदर गीत का इस्तेमाल करती है। लेकिन साथ ही साथ कैमरा नवीन के हाथ पर भी
फोकस करता है जो शिथिल सा उन दोनों के बीच में है। कैमरा दीपा की उन कनखियों को भी दिखाता है
जो उस हाथ को देखती हैं। और
दीपा तुलना कर उठती है। उसे
संजय दिखता है जो उसे बाहों में घेरे है, और फिर वह
कल्पना कर उठती है, और संजय की जगह नवीन ले लेता है। यानी
फिल्मकार के लिए अभिव्यंजना के ये क्षण उतने आसान नहीं थे इसलिए उसे आंचल के
अलावा हाथ का भी इस्तेमाल करना पड़ा। लेकिन
ये हाथ इससे इकतरफा संकेत न रहकर नवीन के हृदय और इच्छा का भी वाहक बन जाता है।
आज (दो हजार आठ के अंत में) साठ के दशक की ऐसी कहानी को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि यह बीते जमाने का
द्वन्द्व है। आज भी
अपने मानवीय सार के कारण यह कहानी तरोताजा लगती है। स्त्री विमर्श कहीं का कहीं पहुंच चुका है
लेकिन इसने जो जमीन तोड़ी थी, उसका महत्व आज भी जस का
तस है। दूसरी ओर फिल्म की तकनीक में भी
आमूल परिवर्तन हो चुके हैं।
फिर भी यह फिल्म एक कीर्तिमान की तरह आज भी स्थापित है।
चलते
चलते एक और बात, श्रेष्ठ कलाकृतियां जब जब
एकाधिक माध्यमों में ढलती हैं तो आस्वाद के नए नए आयाम फूटते हैं।
सौंदर्य के नए नए आभास होते हैं।
अर्थछवियां, नई व्याख्याएं, नई दृष्टियां सब मिलकर उस रचना को पुनर्नवा बनाती रहती हैं।
यही सच है जैसी कहानी और रजनीगंधा जैसी फिल्म भी कुछ ऐसा ही अनुभव जगाती है।