असगर अली इंजीनियर साहब के साथ ये गुफ्तगु पहल पत्रिका के पिछले दौर में छपी थी. उनके इंतकाल पर यह मुलाकात याद आती रही. उनके ख्यालात आप भी जानें.
प्रश्न: आपके ख्याल में बीसवीं सदी की क्या उपलब्धियां रहीं और क्या त्रासदियां रहीं...?
उत्तर: देखिए, मानव समाज में कई ट्रेंड एक साथ चलते हैं, पेचीदगियां होती हैं, न तो इस सदी को वरदान कह सकते हैं, न ही शाप। मेरी समझ में जो सबसे बड़ा समाजी तजुर्बा हुआ वो रूस का इंकलाब था, जिसके जरिए मज़लूम अवाम के साथ इंसाफ करने की कोशिश हुई। यह कोशिश हुई कि स्टेट यह इंसाफ दिलाए। निजी मिल्कियत को खत्म किया गया। यह एक अजीब अंतर्विरोध था कि जहां मार्क्स के अनुसार 'स्टेट शुड विदर अवे' की बात थी वहीं 'स्टेट' बहुत मजूबत हो गई और उसकी भूमिका विवादास्पद हो गई। आखिरकार यह भी बीसवीं सदी का ही वाकिया है कि जो ख्वाब मज़ूलम इंसान सदियों से देखा करते थे, वो नाकाम होकर खत्म हुआ। दुनिया के सर्वहारा की जो बहुत बड़ी उपलब्धि थी, उसकी नाकामी एक बड़ी ट्रेजेडी साबित हुई। दूसरी तरफ विज्ञान और तकनॉलजी ने तरक्की की। जो चीजें उन्नीसवीं सदी में नामुमकिन दिखती थीं, मुमकिन हो गईं। टेलीविजन का ईजाद, कम्प्यूटर, नेटवर्किंग, इन्फरमेंशन हाईवे... सब, दुनिया के लोगों को करीब ला रहे है। लेकिन दूसरी तरफ तकनॉलजी का प्रयोग दो विश्व युद्धों में विनाश के लिए किया गया। हीरोशीमा-नागासाकी में जो हुआ, वह भी इसी सदी की ट्रेजेडी है। तो बीसवीं सदी में सभी कुछ हुआ।
प्रश्न: आप क्या समझते हैं कि पिछली सदी की दो बड़ी आलमी जंगों से इंसान ने कुछ सबक हासिल किया?
उत्तर: मैं नहीं समझता कि इंसान इस चीज़ से कभी सबक सीखता है। कहा यही जाता है कि हमें माज़ी से सीखना चाहिए। लेकिन हम वही ग़लतियां बार बार करते हैं। क्योंकि दरअसल यह सब चीज़ें 'क्लैश ऑफ इंटरस्ट' से होती हैं। यह होने पर कॉनफ्लिक्ट होगी, जंग होगी। वो चाहे छोटे दायरे में हो या आलमी जंग हो जाए। यह टकराहट व्यक्ति हितों की हो सकती है, राष्ट्रीय हितों की, समूह के हितों की....। इतिहास की गतिशीलता में हितों की टकराहट की बड़ी भूमिका है। मार्क्स ने वर्ग हितों की टकराहट पर ज़ोर दिया। वो भी सच है। इसके अलावा भी टकराने वाले हित हैं जो बरबादी ढाते हैं। हितों की टकराहट में हमारी सभ्यता संस्कृति, धार्मिक मूल्य एक तरफ खड़े रह जाते है, हम खूंखार दरिंदे बन जाते हैं। वही हिंदू जो सहिष्णुता के पुजारी हैं, वही मुसलमान जो बराबरी और इंसानियत को अहम समझते हैं, खूंखार हो जाते हैं। हम उन हस्तियों की पूजा ज़रूर करते हैं जिन्होंने इन इंसानी कद्रों के लिए कुर्बानी दी, पर हम वो करते नहीं। इसलिए शायद पूजा करके समझते हैं कि हक अदा कर दिया।
प्रश्न: तो फिर यू.एन.ओ., लीग आफ़ नेशन्स जैसी संस्थाएं?
उत्तर: वो अपनी जगह हैं। पर एक क्रिटिक्ल जंक्चर पर आकर, जैसे सिक्यूरिटी कांऊसिल देखती रह गई और अमरीका ने ईराक पर बर्बरियत से हमला कर दिया।
प्रश्न: आज राष्ट्र को कौन से बड़े संकट दरपेश हैं?
उत्तर: मैं समझता हूं सबसे बड़ा संकट सांप्रदायिकता का है। सांप्रदायिक ताकतें आज सत्ता में हैं। उन्होंने भारत की सम्मिश्र संस्कृति और मूल्य व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर दिया है। भविष्य में सांप्रदायिक ताकतें कमज़ोर ही होंगी ऐसी मुझे आशा तो है पर सत्ता में आकर वो नुकसान ज़रूर कर जाती हैं। जैसे क्रिस्तानों पर हमले, पाठ्यक्रमों को बदलना। लंबे समय तक यह खतरा बना रहेगा, क्योंकि इससे एक सांप्रदायिक 'माइंड सेट' ही पैदा होगा। आई.सी.एच.आर. जो इतिहास पर शोध का काम करती है और इतिहासकारों की महत्वपूर्ण संस्था है, में आर.एस.एस. के लोग भरे गए। आई.सी.एस.एस.आर में, जो सामाजिक शोध की बॉडी है में ऐसे लोग भरे गए। इससे हमारे समाज विज्ञानों, इतिहास को जो नुकसान पहुंचेगा, उसका अंदाज मुश्किल है। ग़रीबी, बेरोज़गारी भी बढ़ती जा रही है। यह भी बुनियादी प्रश्न हैं इंसान के जीवन के, भारत में आर्थिक संकट बना हुआ है, पर अफ़सोस यह कि बेकार के प्रश्न प्रधान हो गए है, बुनियादी प्रश्न पीछे रह गए हैं।
प्रश्न: विदेशी पूंजी का आना हमारे मुल्क के लिए क्या मानी रखता है?
उत्तर: यह तो बहुत ही हानिकारक है। क्योंकि हमारा तजुर्बा, दूसरे देशों का तजुर्बा, साऊथ-ईस्ट एशिया में, एशियन और एफ्रिकन कांटिनेन्ट्स में, यह बता रहा है कि इससे हमेशा एक छोटे से तबके का फायदा होता है। उनको पश्चिम की तकनॉलजी आसानी से मिल जाती है। उनकी आमदनियां बढ़ जाती हैं, जीवन स्तर ऊंचा हो जाता है। लेकिन जो करोड़ों अवाम हैं, उनमें बेरोज़गारी बढ़ती है। कारखाने बंद होने लगते हैं। ऑटोमेशन आता है। मज़दूरी के मौके कम हो जाते हैं। आज भारत वर्ष में देखिए कि कई पब्लिक सेक्टर यूनिट बंद हो रहे हैं या सरकार निजी सेक्टर को बेच रही है। निजी सेक्टर में आकर फिर 'गोल्डन हैंड शेक' के नाम पर कुछ पैसा देकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है। 'ग्लोबलाइज़ेशन' से आम लोगों को बहुत भुगतना पड़ता है। महंगाई बढ़ती है। पिछड़े देश में पूंजीवाद आने से क्या नुकसान होता है, यह हम रूस में भी देखते हैं। एक ऐसा देश यहां सर्वहारा का सपना पूरा करने के लिए इंकलाब लाया गया था, आज दुनिया का सबसे भिखमंगा देश है।
प्रश्न: संस्कृति पर भी इसके असरात आप देखते हैं?
उत्तर: बहुत ज्यादा! उच्च वर्गों की संस्कृति ग्लोबलाईज़ेशन के रंग में रंग जाती है और अमरीकन कल्चर जड़ जमाता जा रहा है। हिंदूस्तान ही नहीं इसकी शिकायत जर्मनी के लोग भी कर रहे हैं, फ्रांस के लोग भी कर रहे हैं। क्योंकि इनकी सभ्यताएं भी काफ़ी पुरानी सभ्यताएं हैं। इनको अपनी सभ्यता पर गर्व भी है। खासतौर पर मध्यवर्ग एवं उच्चवर्ग में युवा पीढ़ी इसकी शिकार हो रही है। भारत में भी इसका असर बढ़ रहा है, बावजूद इसके कि हमारी नींव बहुत मज़बूत है। पश्चिमी संस्कृति से मतलब नियो-अमरीकन कल्चर है। क्योंकि अमरीका का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं। 15वीं-16वीं सदी से शुरू होता है। वहां कोई सांस्कृतिक मूल्य व्यवस्था मज़बूत नहीं है। तकनॉलजी के परिवर्तन बड़ी तेज़ी से होते हैं। अत: कोई सांस्कृतिक स्थिरता नहीं है कद्रों (मूल्यों) में। इसीलिए हर नई चीज़ को अन्धों की तरह अपना लेते हैं। वहां का अजीब सा पॉप कल्चर इन्फरमेशन तकनॉलजी से दुनिया में फैल रहा है। इस सैलाब को हमारे सांस्कृतिक बांध भी संभाल नहीं पा रहे, दरारें पड़ने लगीं हैं।
प्रश्न: और अभी जो छोटे समूहों में है, धीरे-धीरे आम जनता में 'ट्रिकल डाउन इफैक्ट ' के ज़रिए फैलेगा?
उत्तर: हां। क्योंकि क्लचरल हेजेमनी तो उच्चवर्गों की ही है।
प्रश्न: कद्रों या मूल्यों में कोई बुनियादी परिवर्तन?
उत्तर: जहां तक उच्चवर्गों का ताल्लुक है, कनज्यूमर कल्चर आम होता जा रहा है। मूल अर्थ 'कन्ज्यूम करने' या उपयोग का है अत: इंसान ऐसी होड़ में लग जाता है कि उसके पास तकनॉलजी की हर चीज़ आ जाए। टी.वी., गाड़ी का लेटेस्ट मॉडल ...। इससे जीवन के सूक्ष्म मूल्य नज़रअंदाज़ हो जाते हैं। वह दूसरों की तकलीफ़ों के प्रति असंवेदनशील होने लगता है। जैसे फ्रांसीसी इंकलाब के वक्त महल जब घिर गया, रोटी नहीं मिल रही थी, तो इतने असंवेदनशील हो गए वे अभिजात लोग कि भूल गए कि रोटी भी ज़रूरत है। क्योंकि हमेशा केक खाते आए थे, 'रोटी नहीं तो केक क्यों नहीं खा लेते'..., वाली बात! यह कनज्यूमर कल्चर की सबसे बड़ी लाक्षणिकता है। एक चीज़ होती है उपयोगिता या 'युटिलिटी वैल्यू'। जैसे कार है, यानी बुनियादी चीज़ है एक जगह से दूसरी जगह जाना। यह जरूरत है। हर छ: महीने साल में मॉडल बदल कर आपको ऐसी होड़ में उलझाया जाता है कि लगता है कि वो आपकी बुनियादी जरूरत है। विज्ञापन उद्योग माध्यम से आधुनिक पूंजीवाद यह कर रहा है। पहले आप अपनी ज़रूरत से चीज़ें खरीदते थे अब विज्ञापन ज़रूरत पैदा करते हैं। वेन्स पेकार्ड जो मशहूर अमरीकी समाजशास्त्री हैं, विज्ञापनों एजेंटों को 'हिडन पर्सुएडर्स' कहते हैं जो 'अर्ज' पैदा करते हैं। आपके पास कार है, लेकिन वो आपको बेकार लगने लगती है। अमरीका में तो छ: महीने में कम्प्यूटर पुराना हो जाता है। आप उससे छुटकारा पाना चाहते हैं।
प्रश्न: यह केवल उच्चवर्ग तक है क्या?
उत्तर: मध्यवर्ग तो इसकी लपेट में आ चुका है। वो और ज्यादा 'संघर्ष' में उलझ जाता है। उसका 'डिमॅनस्ट्रेशन इफैक्ट' ग़रीब तबकों पर पड़ता है। झोपड़पट्टियों वाले भी कलर टीवी लेने के लिए अपनी ज़रूरतें काटते हैं। या इसी किस्म के दूसरे इलैक्ट्रोनिक सामान के लालच में उलझते जाते हैं।
प्रश्न: तो फिर दसवें दशक में नयी आर्थिक नीति , ग्लोबलाइजेशन, या समान प्लेइंग फील्ड की बात इस परिदृश्य का साथ ही देगी।
उत्तर: देखिए -- ग्लोबलाईज़ेशन भी बहुत अंतर्विरोधी है। 'इट इज़ नॉट टोटल इविल ऐंड इट इज़ नॉट अ कम्पलीट बून'। कुछ लोगों के लिए वरदान साबित हो रहा है पर यह संख्या बड़ी सीमित है। बाकी के लिए बड़ा अज़ाब बन रहा है। न केवल संस्कृति एवं जीवन मूल्यों को बल्कि जीवन शैली को बदल रहा है। दूसरी तरफ़ कई राष्ट्र एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं। चंद घंटों में दुनिया के इस हिस्से से दूसरे हिस्से में पहुंचते हैं।
प्रश्न: लेकिन यह हमारे देश की बुनियादी ज़रूरत तो नहीं ...
उत्तर: देखिए, 'ह्यूमन ऐसपिरेशन' मानवीय आकांक्षाएं एक चीज़ है। क्योंकि चीज़ों का सरलीकरण नहीं करना चाहिए। यह नहीं है कि आपने किसी को रोटी दे दी, रोज़गार दे दिया, कपड़ा, मकान दे दिया तो उसके सारे मसले हल हो गए। नए मसले शुरू हो जाते हैं। और इसी ऐसपीरेशन डायनेमिक्स ने रूस के इंकलाब की बुनियादों को खोखला किया। मैं जब 88 में रूस गया, गोर्बोचोब का, पेरेस्त्रोइका का जमाना था। देखा कि लोग बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के बावजूद संतुष्ट नहीं थे। कहते थे 'हमें क्या दिया रूस के इंकलाब ने? सत्तर साल में हमारे पास कम्प्यूटर तक नहीं है। हमारे पास उस तरह के टीवी. सेट भी नहीं जैसे पश्चिम में हैं। अब स्वीडेन को देखिए, वो सोश्लिस्ट भी है और उसके पास सब कुछ है। यानी इंकलाब हमारे लिए एक लानत साबित हुआ। और अब हमें मौका मिलेगा।' अब क्या मिला? यह तो देख ही रहे हैं। लेकिन इस ह्यूमन नेचर का क्या कीजिएगा? रूस जहां ज़ोर बुनियादी ज़रूरत पर है, वो आपको लेटेस्ट तकनॉलजी या विलास की सामग्रियां तो नहीं दे सकता। हां हैल्थ की सेवाएं सर्वोत्तम थीं। सब कुछ मयस्सर था। तो वो सब कहां से आएगा? मुफ्त शिक्षा, निश्चित रोजगार कम कीमत के मकान मिलते थे। सब देने के बाद कार टी.वी. का लेटेस्ट मॉडल कौन दे पाएगा? ढाई साल पहले मैं ईस्ट बर्लिन में था। इतने खूबसूरत मकां, इतनी चौड़ी सड़कें, दरख्त... कम्यूनिस्ट दौर में यह लोगों को मिले क्योंकि ज़मीन एक सामाजिक कमोडिटी थी। आज पूछने पर वे लोग कहते हैं कि उन्हें 'कैपिटलिज्म का सपना' दिखा के सब कुछ छीन लिया गया।
मकान का जो किराया 70 फ्रांक था अब 1600 फ्रांक है। पहले न देने पर कोई 10 साल तक खाली न करा सकता था, अब तुरंत खाली करवाया जाता है। पहले रिपेयर में दिक्कत आती थी, अब नहीं आती पर खाल भी खींची जाती है।
रोज़गार की निश्चितता के भी अजीब अंतर्विरोध हैं कि मनुष्य गांरटी मिल जाने पर काम ही नहीं करता। मतलब यह कि 83 और 88 में बड़ा सामाजिक अंतर आ गया था। पहले अपराध न के बराबर था, लेकिन आज़ादी न थी। सवाल यह कि यह दोनों चीज़ें क्या साथ चल सकती हैं। आज़ाद समाज में मनुष्य क्या मांग रखेगा, स्टेट के सामने। फिर स्टेट क्या यह सब दे पाएगी? आज़ादी देने से सारे सवाल उठेंगे, तमाम मांगे उठेंगी। यह दुविधा है। इसका हल मुश्किल है। मेरे पास इस प्रश्नचिह्न का कोई जवाब नहीं।
प्रश्न: भारत जैसे मुल्क के लिए क्या मार्क्सवाद की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है?
उत्तर: देखिए, अगर मार्क्सवाद हमारे लिए एक 'रिलीजन' है, तो वह खत्म हो चुका है। लेकिन अगर मार्क्सवाद हमें कुछ मूल्य देता है, हमें दूसरों की तकलीफ़ों की तरफ संवेदनशील बनाता है तो वो जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगा। कम्यूनिज्म कभी पूरी तरह अमल में आएगा या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन उसने जो मूल्य दिए, पूंजीवाद ने केवल 'होड़' को बढ़ावा दिया, नकली ज़रूरतों को बढ़ावा दिया, असंतोष जगा के। अभी एक सर्वे हुआ था कि 'खुशी सबसे ज्यादा कहां है'? पता चला कि सबसे ज्यादा बंगलादेश में है जो सब से दरिद्र देश है। सबसे ज्यादा असंतोष अमरीका में है। तो खुशी और संपत्ति का कोई जोड़ नहीं है।
लेकिन मार्क्सवाद को रूढ़ि बनाने से नहीं चलेगा। एक दौर में कम्युनिस्ट पार्टी तय कर लेती थी। पर अब तो जबरदस्त बदलाव आ गया है। उस माने में वह खत्म हो चुका है। लेकिन समता का सपना तो ज़िंदा रहेगा ही।
प्रश्न: आपका जनता से गहन संप रहा है। आप क्या समझते हैं कि हमारी जनता पहले से ज्यादा सांप्रदायिक हुई है या उदार हुई है?
उत्तर: मैं नहीं समझता कि जनता ज्यादा सांप्रदायिक हुई है। जनता में हमेशा उदारवाद रहा है, मिश्रित संस्कृति का प्रभाव रहा है। इतने बड़े सांप्रदायिक आंदोलन चले, अस्सी का दशक सबसे खतरनाक था। उसमें भी आम लोग कम्यूनलाइज़ नहीं हुए, मिडल क्लास हुआ। सांप्रदायिकता समस्या ही मध्यवर्ग की है। 19वीं सदी से लेकर (जब से सांप्रदायिकता पैदा हुई) आज तक उसमें पूरी भूमिका मध्यवर्ग की है। चाहे वो मुस्लिम सांप्रदायिकता हो या हिंदू सांप्रदायिकता या पाकिस्तान बनने का सवाल हो। पाकिस्तान आम मुसलमान ने नहीं बनाया, मिडल क्लास के मुसलमानों ने बनाया। वे सत्ता की होड़ में थे। उनको परेशानी थी कि सत्ता में कितनी साझेदारी मिलेगी। इसी पर पाकिस्तान बना। वरना और किसी को खतरा नहीं था कि इस्लाम हिंदुस्तान में ज़िंदा नहीं रहेगा। आज 'टू नेशन थ्येरी ' बिल्कुल नाकाम साबित हो चुकी है। आज हिंदुस्तान में उतने ही मुसलमान हैं जितने पाकिस्तान में। और वहां आम मुसलमानों की जो हालत हो रही है, फ्युडलिस्म उतना ही मज़बूत है जितना 1947 में था। इसी तरह भाजपा द्वारा राजनीति में धर्म का इस्तेमाल भी हिंदू मध्यवर्ग तक सीमित था। मैं समझता हूं कि चालीस से सैंतालीस के बीच मुस्लिम मध्यवर्ग सबसे ज्यादा सांप्रदायिक हुआ और अस्सी के दशक में हिंदू मध्यवर्ग में सांप्रदायिकता सबसे ज्यादा थी। राम जन्मभूमि विवाद को देश विभाजन के समानांतर ही देखता हूं। पर आज भी हिंदू अवाम सांप्रदायिक नहीं है। सारा झगड़ा 'क्लैश ऑफ़ इंटरेस्ट' का है, 'क्लैश ऑफ़ रिलीजन' का नहीं। 'क्लैश ऑफ़ सिविलाईज़ेशन' को मैं बहुत बोगस थियरी मानता हूं। हितों की टकराहट का संबंध मध्यवर्ग से है अत: ध्रुवीकरण भी मध्यवर्ग में हुआ है।
प्रश्न: इसमें बुद्धिजीवियों की भूमिका कैसी रही है?
उत्तर: बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका है। दोनों तरफ से है यानी वो बुद्धिजीवी जो सेक्यूलर हैं, उनकी भूमिका सांप्रदायिकता का मुकाबला करने में है और वे जो सांप्रदायिक हैं, उनकी भूमिका सांप्रदायिकता मज़बूत करने में व्यापक है। मिडल क्लास में भी इसी तरह का ध्रुवीकरण होता है। एक तरफ़ सेक्यूलर लोग होते हैं, दूसरी तरफ़ आर.एस.एस. और जमाते इस्लामी टाइप। जमाते इस्लामी की भी अपील आम मुसलमानों में बिल्कुल नहीं है। तब लीगी जमात की हो सकती हो जो बिलकुल अपोलिटिकल है। हिंदूओं के खिलाफ़ प्रचार नहीं करती। पाकिस्तान तक में जमाते इस्लामी ने हर इलैक्शन में ज़ोर लगाया पर तीन या चार सीटों से कभी ज्यादा नहीं ले सकी। अमरीका में एक लेक्चर के दौरान इस्माद गिलानी (पाकिस्तान में मानवाधिकार संगठन की कार्यकर्ता) ने पूछा कि हमारे मुल्क में जमाते इस्लामी कभी चार सीटों से ज्यादा न ले पाई तो आपके यहां भाजपा कैसे इतनी सीटें ले गई।
प्रश्न: मुस्लिम समाज में औरतों के हकूक के बारे में आप क्या सोचते हैं?
उत्तर: एक ओर जहां मेरा मिशन सांप्रदायिक सद्भावना के लिए कोशिश करना है, दूसरा मिशन औरतों के हकूक के लिए लड़ना है। सामान्यत: सभी स्त्रियों के लिए और खासकर मुस्लिम औरतों के लिए। मैंने कुरान और हदीस को लेकर काफ़ी शोध भी की। तीन किताबें तो इस सवाल को लेकर छप चुकी हैं। कई लेख भी हैं। चौथी किताब अभी प्रेस में है (कुरान, विमेन एंड मॉर्डनिटी)। मैं सतत इस सवाल से जूझ रहा हूं। मेरी कोशिश है कि उनको बराबर का हक मिले लेकिन खुद मुस्लिम औरतों में इतनी कम अवेयरनेस है कि उन्हें यही पता नहीं कि मज़हब ने उनको क्या अधिकार दिए हैं । जो उलेमा है, मस्जिद के इमाम या मुल्ला हैं, उनका दृष्टिकोण बदला नहीं हैं। वे इस अज्ञानता का फायदा उठाते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ में परिवर्तन लाने के लिए एक सेमिनार भी पिछले दिनों किया था। उसको लेकर उर्दू पत्रों ने मुझ पर आक्रमण भी किए लेकिन कई मुस्लिम औरतें आई। यह प्रयत्न जारी रखने होंगे तभी चेतना बदलेगी और तब्दीली के आसार होंगे। मैं इस संदर्भ में मज़हब को छोड़कर बिल्कुल चलना नहीं चाहता। मुझे लगता है कि 'रिलिजस फ्रेमवर्क' में तब्दीली ज्यादा आसान है बजाय 'सेक्यूलर लॉज़' के ज़रिए। इसलिए तसलीमा नसरीन से मेरा इत्तफाक नहीं है। क्योंकि फिर ऐसे लोग नास्तिक बनाकर खारिज कर दिए जाते हैं। एक रिफौर्मर को यथार्थवादी होना चाहिए। वह अगर अपने समाज को नहीं समझता तो बदलेगा क्या? 'नास्तिकता' भी एक धर्म है मेरे नज़दीक। मैं उसका आदर करता हूं पर उनसे भी आस्थावान के प्रति आदर की अपेक्षा रखता हूं। संवाद हो सकता है, कन्डेमनेशन नहीं होना चाहिए। मैंने देखा है कि उनमें डायलॉग की सलाहियत भी नहीं । वे उतने ही आक्रामक हैं जितने मज़हबी होते हैं।
प्रश्न: क्या मार्क्सवादी मूवमेंट ने भी इस मसले पर अपना नुकसान किया है?
उत्तर: हां। उन्होंने पार्टी की मेंबरशिप के लिए एथीस्ट होना ज़रूरी समझा। मेरे सामने ऐसी मिसाले हैं। धर्म में गहन आस्थावान कम्यूनिस्ट बने। कम्यूनिस्ट भी रहे। धर्म में भी विश्वास रहा। जैसे मौलाना हसरत मोहानी। जो भारत में कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। शायद ही उन्होंने कभी एक भी प्रार्थना छोड़ी हो।
प्रश्न: धर्म बहुत निजी संस्कार की वस्तु भी तो है?
उत्तर: उसकी सामूहिक अभिव्यक्ति भी है। इसका यह अर्थ नहीं कि समाजी परिवर्तन की दृष्टि से समाजिक न्याय और आर्थिक संस्रोतों के न्यायपूर्ण वितरण की दृष्टि से आप रेडिकल नहीं हो सकते। ये दोनों एक दूसरे से टकराते हैं, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं बल्कि आपको धर्म एवं संस्कृति का रचनात्मक इस्तेमाल करना चाहिए। यह एक वजह है कि कम्यूनिस्ट यू.पी. हार्टलैंड में कभी नहीं दाखिल हो सके। कारण ही यह है कि दे आर वेरी अवर्स टू रिलीजन एंड सर्टन कल्चरल वैल्यूज़। यही कुछ अफ्रीकन कम्यूनिस्ट लेखकों ने भी लिखा है कि 'कम्यूनिज्म थ्रू अवे अवर अफ्रीकन कल्चर विच आईसोलेट देम फ्रॉम पीपल।' परंपराओं का रचनात्मक उपयोग करना चाहिए। मैं औरतों के हकूक के लिए जो जूझ रहा हूं वो धर्म के चौखट के भीतर ही से। काफ़ी अध्ययन के बाद मैंने पाया कि यह बड़ी त्रासदी है कि औरतों को उनके हक देने में सबसे पहले पहल की इस्लाम ने। उनके अधिकार बड़े साफ़ तौर पर कुरान में हैं, समेत 'सेक्शुअल इक्वैलटी' के। उसके बावजूद सबसे ज्यादा जुल्म और अत्याचार मुसलमानों ने अपनी स्त्रियों पर किए। इस विरोधाभास का मतलब ही है कि मानव धार्मिक विश्वासों के अनुसार व्यवहार नहीं करते। एक तरफ़ वे अपने हितों से चलते हैं दूसरी तरफ़ सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार। मेरी नज़र में मुसलमान औरत की स्थिति का ज़िम्मेदार इस्लाम नहीं, सामन्तवाद है। मुस्लिम समाज में फ्यूडलिज्म की कमर अभी तक नहीं टूटी। क्योंकि पूंजीवाद तो है नहीं मुसलमानों में। मुसलमान कारीगर है, या लुंपैन है। भारतीय मुसलमान में गुजरात के बोहरे, खोजों, को छोड़ व्यापारी भी नहीं मिलेंगे तो प्रगतिशीलता कहां से आएगी। कारण सामन्तीय परंपरा है।
प्रश्न: आजकल विरासत और राष्ट्रवाद का मुद्दा फासिस्ट शक्तियों ने हथिया लिया है। तो आपकी नज़र में सही संदर्भ क्या होगा?
उत्तर: पहली बात हमें विरासत का अध्ययन करना होगा और गहरा अध्ययन करना होगा। जो तज़ादाद हैं, विरोधाभास हैं, उन्हें समझना होगा। यह भी समझना होगा कि उनका स्रोत (सोर्स) क्या है? क्या वह धर्म है? या हमारी संस्कृति है? क्या हमारी आर्थिक व्यवस्था है? इन चीज़ों पर जब तक हमारी पकड़ नहीं होगी, उस वक्त तक हम अपनी पंरपराओं का रचनात्मक उपयोग नहीं कर पाएंगे। जैसे वंदेमातरम् और सरस्वती वंदना का सवाल है। एक तो यह कि उसका खंडन करके छोड़ दिया जाए। दूसरा तरीका लोगों को समझाया जाए कि कोई भी सरस्वती वंदना के खिलाफ़ नहीं है, मुसलमान भी नहीं। न वंदेमातरम् के खिलाफ है। अगर कुछ कल्चरल ट्रेडीशन्स ऐसी हैं जिनमें एक धर्म के समूह को ऐतराज़ है तो आप उसको र्फोस कैसे कर सकते हैं। इस तरह से इस सवाल को लोगों के सामने रखने से हिंदू मानस पर प्रभाव अलग होगा। लेकिन खाली खंडन करने से और इसे 'पागलपन' या 'रिएक्शनरी' करार देने से, प्रभाव अलग होगा और फायदा आर.एस.एस. या फासीवादियों को होगा। तो संवाद हो कि सभी धर्मों की वंदना करेंगें या उसे पब्लिक स्कूल से बाहर रखेगें। इसके लिए किसी को मज़बूर नहीं किया जा सकता। ऐसे ही जैसे कोई मुझे नमाज़ अदा करने पर मज़बूर नहीं कर सकता। जैसे पाकिस्तान में जिया के जमाने में यह कहा गया कि जो आफ़िस के समय में नमाज़ नहीं पढ़ेगा, उसकी पगार काट ली जाएगी। यह पागलपन है। धर्म को बलपूर्वक तो मनवाया नहीं जा सकता। यह दिल की आवाज़ है। ढोंग नहीं। रिचुअलिस्टिक क्यों बनाना चाहते हैं बच्चों को आप।
प्रश्न: हमारे यहां जो इतिहास लेखक हुआ है, वो भी चीज़ों को इतने सरल ढंग से यों रखता आया है जैसे मुगल रूल, हिंदू रूल... कभी भी गहराई से विश्लेषण नहीं किया गया कि सामन्तीय चरित्र के आधार पर उसे रखा गया हो। आपको नहीं लगता कि इसने काफ़ी नुकसान किया है?
उत्तर: बहुत ज्यादा डैमेजिंग है। मैं अक्सर इस पर वर्कशॉप लेता रहता हूं। 'कम्यूनल इंटरप्रटेशन ऑफ़ हिस्ट्री', इसने हमारे दिमागों को खराब किया है। इसकी एक भयंकर मिसाल मैं आपको दूं - बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जो दंगे हुए सूरत (गुजरात) में उसमें मुसलमान औरतों के साथ 'मासरेप' हुआ। वहां इन्वेस्टीगेशन के दौरान एक बहुत पढ़ी लिखी हिंदू महिला ने कहा कि मुस्लिम पुरुषों ने हिंदू स्त्रियों के साथ यह सदियों से किया, तो इसमें क्या खराबी है। तो यह वही इतिहास पढ़ाए जाने का नतीजा है। पाठ्यक्रम की पुस्तकें बहुत ही खतरनाक रोल अदा कर रही हैं। बच्चों को यही समझाना होगा कि गैर हिंदू और मुसलमान सत्ताधारी के बीच लड़ाई हुई तो धर्म के कारण नहीं बल्कि हितों की टकराहट के कारण हुई है। कारण सत्ता का संघर्ष था।
प्रश्न: और फिर जन सामान्य के प्रति दोनों ही असंवदेनशील रहे हैं...
उत्तर: बिल्कुल। शिवाजी मुसलमानों से विमुख बिल्कुल नहीं थे। उनके ज़माने में कई मुसलमान बहुत बड़े ओहदों पर थे। उनके जो सबसे कान्फिडेंशियल आदमी थे, वो मौलवी असद अली खान थे। जिनके पास शिवाजी के सारे गुप्त कागज़ात रहते थे। उनका एक तोपची मुसलमान था। सूफ़ी दरगाह पर दुआ मांगते थे और भवानी देवी की पूजा करते थे। औरंगज़ेब ने हिंदू मंदिर तोड़े यह सही है पर मंदिर बनवाए भी। उन्हें जागीरें भी दी। जहां जैसा हित सधा, वो किया। फारसी में इस के फरमान मौजूद हैं। उसने चित्रकूट में मंदिर बनवाया है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि का मंदिर तोड़ा तो दूसरे मंदिर को 17 करोड़ के ज़ेवरात दिए। आज भी उन्हें जन्माष्टमी के दिन पहनाया जाता है। इसलिए संपूर्ण तस्वीर रखनी चाहिए।
प्रश्न: और क्या मंदिर तोड़ना ही एक मात्र रोल है? फलसफे, कला, संस्कृति में जो संवाद हुआ, उसका खुलासा नहीं होना चाहिए।?
उत्तर: देखिए, ले देकर दो ही नाम आते हैं, मंदिर तोड़ने वालों में - महमूद ग़जनवी और औरंगजेब। जबकि मुस्लिम शासक तो सैकड़ों हुए...।
प्रश्न: हिंदी-उर्दू में जो अलगाव दिखता है, जो असल में है नहीं। उसके विषय में आपके क्या विचार हैं? रामविलास शर्मा तो कहते हैं कि हिंदी और हिंदी की बोलियों में जितना अलगाव है, उर्दू और हिंदी में उतना भी नहीं है। तो फिर उर्दू क्यों ऐसे सिमट गई?
उत्तर: इसलिए कि कम्यूनलाइज़ेशन हुआ। अंग्रेज़ों के आने से पहले इस भाषा को अक्सर 'हिंदवी' कहा जाता था। ग़ालिब ने इसे हिंदुस्तान की भाषा के रूप में 'हिंदवी' कहा है। पूरा उत्तर भारत इस भाषा का उपयोग करता था। यह विवाद सबसे पहले अंग्रेज़ों ने फोर्ट विलियम कॉलेज में पैदा किया। जिसमें मीर अम्मान वगैरह को बिठा कर फारसी लिपि में उर्दू भाषा लिखवाई गई और पंडितों को बुलाकर संस्कृतनिष्ठ भाषा बनाई गई, जिसे हिंदी का नाम दिया गया। दो अलग अलग 'अस्मिताएं' रचने वाले अंग्रेज़ थे। आज भी उर्दू में 75 प्रतिशत शब्द भारतीय हैं, 25 प्रतिशत अरबी और फारसी से आए हैं। लेकिन जब कम्यूनलाइज़ेशन शुरू हुआ तो हिंदी में संस्कृत के शब्द भरे गए और उर्दू में अरबी-फारसी भरने की कोशिश हुई। तो दो अलग पहचानें बनाई गईं। और फिर उसे पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया गया। उर्दू ने मुल्क को बांटा, यह ग़लत बात है। उर्दू का मेन स्ट्रीम का लिटरेचर पूरा का पूरा प्रोग्रेसिव था। कोई भी बड़ा नाम उठाइये उर्दू का, वो आपको धर्म निरपेक्ष ही मिलेगा। फिर चाहे सज्जाद ज़हीर हों, मंटो हों, बेदी हों, सरदार जाफ़री हों। कोई भी बड़ा शायर या कहानीकार 'जमाते इस्लामी' या 'तबलीगी जमात' का नहीं मिलेगा। यह नफ़रतें सांप्रदायिक ताकतों ने फैलाई हैं। यू.पी.का मुसलमान भी बेहतरीन हिंदी बोलता है। पर फिर सवाल यह है कि उर्दू की कीमत पर क्यों। उर्दू को उसका अधिकार क्यों नहीं मिलता। उसे सहूलियतें दी जानी चाहिएं। दूसरी ओर करोड़ों मुसलमान ऐसे हैं जिनका उर्दू से कोई लेना देना ही नहीं। तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश , केरल ... एक मलयाली भाषी बूढ़ी औरत से बात की मैंने। तो उसने कहा कि आपको मलयालम् भाषा नहीं आती तो आप मुसलमान कैसे हो गए। इसी तरह उत्तर भारत में यह कान्सेप्ट बन गया कि सारे मुसलमान उर्दू बोलते हैं। थाई मुसलमानों पर शोध करने गया था तो एक समाजशास्त्र के अध्यापक बोले कि उनकी भाषा भी उर्दू है क्या? भई उनकी भाषा 'थाई' है। भाषा का कोई धर्म होता है क्या? अरब देशों में अरबी बोलने वाले लाखों अरब ईसाई हैं। वहां चर्च की 'सर्विस' अरबी में होती है। अल्लाह को 'गॉड' नहीं कहते अल्लाह ही कहा जाता है।
प्रश्न: आजकल नये पढ़े-लिखों में पोस्ट मॉर्डनिज्म का बड़ा शोर है, अकादमिक हलकों में...
उत्तर: देखिए उर्दू में जदीदियत (आधुनिकता) या उत्तर-आधुनिकता हमारे तजुर्बों से पैदा नहीं हुई है। हम वेस्ट की नक्काली कर रहे हैं। उसका हमारी ज़िंदगी से जोड़ नहीं बैठता। लेखक के लेखन की बुनियाद अगर तजुर्बे पर नहीं है तो उसमें दम ही न होगा। इसलिए इसके लिए शब्दावली भी खींच खांच कर नकली बनाई जाती है। अगर पोस्ट मॉर्डनिज्म में प्लूरिज्म की बात है तो यह भारतीय फलसफ़े के लिए कोई नई बात नहीं है। यहां हर तरह के धर्म एवं संस्कृतियां साथ रहती आई हैं। आधुनिकता आई, तो उसको भी अपनाया। तो अगर उसकी उपलब्धि ले दे कर प्लूरलिज्म है तो वो हमारे विश्वास की चीज़ है। अब युरोप में चूंकि सब क्रिश्चियन थे और लड़ाई हुई तो मॉर्डनिज्म और चर्च में हुई । चर्च और सेक्यूलरिज्म की लड़ाई थी। फिर मॉर्डनिज्म भी असहिष्णु हो गया। धर्म को नकारने लगा। तो फिर दूसरे धर्मों के प्रति आदर कैसे पैदा होता। लेकिन हमारे लिए ऐसी कोई ज़रूरत नहीं थी। 'सर्व धर्म समभाव' यहां रहा ही है। पोस्टमार्डनिज्म वगैरह तो अकादमिक दुनिया की बात है। लोगों की जिंदगी से वो कहां जुड़ी हुई है।
प्रश्न: अलग अलग क्षेत्रीयताएं?
उत्तर: हमारे देश में अलग-अलग 'नेशनेलिटीज़' हैं, उसे नकारना नहीं चाहिए। 'हिंदुत्व' की फिलासफी उसे नकार रही है कि एक 'मेनस्ट्रीम कल्चर' है, बाकी सबको मिटा दो। यह गलत है। आपको सारे भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक समूहों की स्वतंत्रता को मानना पड़ेगा और आदर देना होगा।
प्रश्न: लेकिन फिर पॉप कल्चर और कन्ज्यूमरिज्म जैसे होमोजनाइज़ेशन पर तुले हैं - दूसरी ओर अपनी अस्मिताओं को बनाए रखने का ज़ोर...
उत्तर: लेकिन यहां तो सवाल यह है कि आप पॉप कल्चर के बल पर तो संगठित नहीं हो सकते। वो तो कोई नज़रिया नहीं है। अमरीका में 'मेल्टिंग पॉट' का मॉडल था कि अस्मिताएं पिघल कर नयी अमरीकन अस्मिता को उभारती हैं। लेकिन दूसरे महायुद्ध के बाद जब अफ्रिका और एशिया से माइग्रेशन की वेव शुरू हुई तो नज़रिया पूरा बदल गया और वही 'मोज़ेक मॉडल' आ गया है। यहां से कोई हिंदू वहां जाता है तो उसकी हिंदू आइडेंटटी उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। 'ग्लोबलाइजेशन' किसी नई अस्मिता का नज़रिया नहीं देता है। हां कम्युनिज्म नज़रिया देता है। लेकिन एक ही स्तर पर। दूसरे स्तरों पर हमारी विशिष्टताएं भी हैं। अगर उन्हें मिटा दिया जाए तो यह दुनिया जीने लायक नहीं रहेगी।
प्रश्न: उर्दू में मार्क्सवादी तनकीद (आलोना) की बात शुरू करने से पहले यदि एक नज़र तरक्कीपसंद साहित्य की परंपरा पर डाली जाए तो आप किन किन के नाम लेंगें?
उत्तर: दरअसल उर्दू फिक्शन 20वीं सदी की पैदावार है। शायरी पहले से है और फारसी शायरी की परंपरा तक जाती है। फारसी शायरी की बुनियाद मानवतावाद है क्योंकि उसमें हमेशा कट्टरपन का मज़ाक उड़ाया गया है, मुल्ला-काज़ी का मज़ाक उड़ाया गया है तो उसमें एक तरह का उदारवाद रहा है। उर्दू ने उसी पंरपरा को कुबूल किया। उर्दू का पहला शायर वली दक़नी था जिसने दक्षिण में इस शायरी की बुनियाद डाली। फिर मेरी नज़र में मीर तकी मीर हैं जो बहुत बड़े मानवतावादी रहे और फिर इस दृष्टि से सबसे बड़े शायर तो ग़ालिब थे ही। उनमें कट्टरपन दूर दूर तक नहीं है। तरक्कीपसंद तहरीक ने उन्हें हमेशा अपना रहबर और रहनुमा समझा। वो तो इमाम हैं तरक्कीपसंदों के। डॉगमैटीज़म (रुढ़िवाद) कहीं नहीं है। उनमें संदेह का तत्व है। बल्कि वे रूढ़ि पर शक को तरज़ीह देते हैं। तो उनमें उदारवाद गहरा रहा है। वे कहते हैं कि ईमान ही असल वफ़ादारी है। अगर ब्राह्मण भी बुत के प्रति वफ़ादार है, उसकी वफ़ादारी में कॉनसिस्टेन्सी है तो यह उसके ईमान की निशानी है, तो उसे काबे में दफ्न किया जाना चाहिए -'ही डिजर्वज़ टू बी बेरीड इन काबा। ईमान की कसौटी यह डॉगमा या वो डॉगमा नहीं बल्कि वफ़ादारी है। वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी यानी मज़बूती हो तो -
वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ल ईमां है
मरे बुतकदे में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को
सो ये उनके तेवर हैं। दूसरी तरफ़ वे कहते हैं
कि दैरो हरम आईना ए तकरारे तमन्ना....
कहते हैं मंदर मस्जिद तो थके हुए दिमाग की पनाहें हैं।
तो बड़ी शायरी वही होती है जिसमें मानवतावाद हो, उदारवाद हो। कभी कोई कट्टर मुल्ला बड़ा शायर नहीं हो सकता। इसलिए उर्दू पर बाज़ लोग जो यह इलज़ाम लगाते हैं कि उर्दू की वजह से पाकिस्तान बना, वो उर्दू साहित्य के विषय से कुछ जानते नहीं। मैं यह ज़ोरदार शब्दों में कह सकता हूं कि कोई भी बड़ी रचना उर्दू में ऐसी नहीं जिसमें पाकिस्तान की तहरीक का समर्थन हो। सभी बड़े अदीब सेक्यूलर कदरों के अलमबरदार थे। जितने बड़े नाम हो, हिंदू हों या मुसलमान, उर्दू अदब के - सभी। मंटो हालांकि पाकिस्तान चले गए पर उनके सारे अफ़साने विभाजन के खिलाफ़ हैं।
प्रश्न: तो उनके पाकिस्तान जाने के पीछे कोई वजह...?
उत्तर: जाने के पीछे कोई आइडलॉजिकल वजह थोड़े न होती है। कई विवशताएं होती हैं। रिश्ते-नातेदार। जोश जैसे आदमी चले गए। शायद ये सोचकर कि उर्दू का भविष्य वहां बेहतर होगा। लेकिन उनकी बुरी हालत हुई वहां। और फिर 'यादों की बारात' में उन्होंने लिखा कि मैं नेहरू को एक हज़ार सजदे करूं सो भी कम है। पाकिस्तान में हालात देखने के बाद यह लिखा। तो जाने के पीछे मज़बूरी हो सकती है, लेकिन उसका अर्थ तकसीमे वतन को तसलीम करना नहीं था।
प्रश्न: फैज़ के बारे में इस दृष्टि से क्या कहेगें?
उत्तर: फैज़। देखिए, कम्यूनिस्ट पार्टी के मेंबर थे। पार्टी नें उन्हें वहां भेजा था। हालांकि वो सी.पी.आई. की ग़लत थीसिस थी। पता नहीं कैसे उन्होंने पाकिस्तान को नेशनेलिटी के आधार पर तसलीम कर लिया था। लेकिन मज़हब की बिनाह पर नेशनेलिटी नहीं बनती। भाषा एवं संस्कृति के आधार पर बनती है। खैर वो रहने वाले वहीं के थे। वो उनका वतन भी था। सो उर्दू कहानियां कविता में कहीं भी संकुचित ख्याल नहीं मिलते।
प्रश्न: तरक्कीपसंद तनकीद की शुरूआत कब हुई और उनमें ऐसे कौन से तत्व थे जो रवायती तनकीद से उसे अलगाते थे?
उत्तर: जहां तक मैं समझता हूं, तनकीद की शुरुआत तो तीस के दशक से हुई। जब तरक्कीपसंद तहरीक की शुरुआत हुई। 25 में कम्यूनिस्ट पार्टी की बुनियाद रखी गई थी। सज्जाद ज़हीर वगैरह ने मिल कर इसे शुरू किया था। आलोचना की शुरुआत भी तभी हुई। तो उसमें पहली बात थी, फ्यूडलिज्म से बगावत। उर्दू साहित्य पर सामन्तवाद का बड़ा असर था। क्लासिकल या रौमैंटिक नज़रिया ही हावी था जिसे 'कला कला के लिए' कहा जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसी तहरीक सामन्तवाद के असर में पलती बढ़ती है। तो तरक्कीपसंद तहरीक की सूरत में जो बगावत हुई वह इसी के खिलाफ थी। सामन्तवादी मूल्यों के खिलाफ़ लोगों ने रचनाएं लिखीं। जैसे सज्जाद ज़हीर की 'रौशनी'। इन सब से एक तहलका मच गया। क्योंकि रूलिंग कल्चर तो फ्यूडल कल्चर था। अदब में तूफ़ान सा आ गया। मज़हब को नकारते हुए लिखा गया। औरतों के हकों की लड़ाई भी रचनाओं में झलकने लगी। औरतों को भी अदब में जगह मिले, यह मांग हुई। इस्मत चुगताई जैसी अफ़साना निगार सामने आई। जो पहले सोचा भी नहीं जा सकता था कि औरत अफ़साने लिख सकती है। शायरी में औरतों के नाम तो आते हैं, पर अपवाद रूप में ही। तो तरक्कीपसंद तहरीक तूफ़ान की तरह उठी और यही अदब 'रूलिंग' अदब बन गया। वो जगह जो क्लासिकल अदब को हासिल थी, अब इस सैलाब में बह गई। हेजेमोनिक ट्रेंड इन्हीं का रहा। ग़ज़ल पर विवाद चल पड़ा। कइयों ने उसे नकार दिया कि यह रियक्शनरी अदब है। लेकिन यह बात सही न थी। हसरत मोहानी जैसों ने ग़ज़ल में सियासी शायरी भी की। ग़ज़ल में एलीगरी और प्रतीकात्मकता ज्यादा होती है। वह अर्थ की दृष्टि से बेहद अमीर होती है। आप बात जाहिरी तौर पर इश्क की करते हों, माशूक से मुखातिब हों, लेकिन उसमें सामन्तवादी भी हो सकते हैं ब्रिटिश शासक भी हो सकते हैं। अलग-अलग मायना ले सकते हैं। यही सब तनकीद में भी रिफ्लेक्ट हुआ।
फिर इस नज़रिए या तहरीक की कुछ सीमाएं भी थीं। हालांकि कहा जाता था कि सामन्तविरोधी, साम्राज्यविरोधी और आज़ादी और मनुष्य की गरिमा के हक में खड़े होने वाले तरक्कीपसंद हैं। इसीलिए आयातउल्ला अंसारी जो कांग्रेस के थे इसमें शामिल हुए। पर सीमा यही थी कि कम्यूनिस्ट पार्टी से यह काफ़ी जुड़ गई। पार्टी लाइन के अनुसार लोग यही लिखने लगे। खास तौर पर ज़दानोव का जो दौर था, तीस के दशक में, वो तो खासा 'डाक्ट्रनायर' किस्म का था कम्यूनिस्टों के लिए। इस अदब पर नारेबाज़ी का इलज़ाम लगा। सब शायर और अदीब तो ऐसे न थे। इससे बहुत बुलन्द थे। जैसे प्रेमचंद के नॉवल गोदान ने जिस तरह ग्राम समाज, नगर और उद्योग के बीच शोषण को देखा, वो कोई नारेबाज़ी नहीं है। पात्रों की पूरी समझ है। शोषण के सामाजिक मैकनिज्म की समझ है। तो ऐसा भी लिखा गया जो तरक्कीपसंद भी था, 'डाक्ट्रनायर' भी न था। दूसरी ओर कमतर दर्ज़े के शायर भी हुए। तो पार्टी लाइन कभी कभी सीमा बनती रही है, उससे इनकार नहीं करना चाहिए। लेट सेवेन्टीज़ तक यह चलता रहा। प्रेमचंद ने कहा था कि अदीब तो मशाल लेकर चलनेवाला है, वो किसी के पीछे नहीं चलता। वो तो सबके आगे चलता है। मैं यहां इमरजैंसी के दौर का जिक्र करूंगा जब बहुत बड़े-बड़े साहित्यकार कांग्रेस से जुड़ गए कि शायद इसके ज़रिए कोई क्रांति, कोई इंकलाब समाज में लाया जा रहा है। एक नाम जिसकी मैं बहुत इज्ज़त करता हूं, मरहूम ख्वाजा अहमद अब्बास ने लेखकों की कन्वेंशन में यह कहा कि अगर संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम में दो तीन बिंदु और जुड़ जाएं तो मैं अपनी आज़ादी त्यागने को तैयार हूं। मैं इसके खिलाफ़ था। मैंने उनकी बात का विरोध किया। इंकलाब अभी आया नहीं और अदीब आज़ादी त्यागने को तैयार हो जाए। सोवियत यूनियन में भी (इंकलाब जहां आ चुका है) यह कहा जाए तो ग़लत होगा। लेखक का सबसे मूल्यवान सरमाया तो कलम की आज़ादी है। इंकलाब के सवाल पर भी। क्योंकि इंकलाब ग़लत रास्ते पर नहीं जाएगा, इसकी कौन ज़मानत देगा? लेखक नहीं तो और कौन आवाज़ उठाएगा?
प्रश्न: ऊंची विचारधारा और ऊंची रचना क्या हमेशा साथ साथ चलते हैं या इस संबंध में कोई अर्न्तविरोध भी हैं?
उत्तर: रचनाकार की विचारधारा तो सिवाय मानवतावाद के कुछ नहीं होती। गर कोई सियासी विचारधारा मानवतावाद की ओर ले जाने वाली हो, मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाली हो, तब तो ठीक है, दोनों का संयोग हो सकता है। लेकिन वास्तव में तो यह मानवतावाद ही होगी। मार्क्सवादी दृष्टिकोण मानवतावाद की बात करता है। नेता के कहने पर साहित्यकार नहीं चल सकता । इससे बड़ी त्रासदी नहीं हो सकती कि साहित्यकार झण्डे के पीछे चलने लगे। वो तो झंडा लेकर चलने वाला है। अलम्बर्दार है।
प्रश्न: लेकिन आलोचना में आयडियालॉजी का कैसा इस्तेमाल हुआ?
उत्तर: मैंने कहा न हर तरह के लोग पैदा हुए। जैसे फिराख गोरखपुरी ने नारी पर कई दोहे लिखे। उसमें नारी को सामन्तीय नज़र से ही पेन्ट किया। या जांनिसार अख्तर, जिन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक के लिए जेल में भी जाना गवारा किया। सोवियत यूनियन से उनका संबंध बेहद भावुक था। लेकिन जब उन्होंने रूबाइयां लिखी तो इसमें औरत के प्रति खयाली नज़रसानी भी की। तो लोगों ने तनकीद में उन्हें रिएक्शनरी कहा। एक अदीब सच्चाई को भी तो उतारता है रचना में। 'खाली क्या होना चाहिए' हर दम वही तो विचारधारा की ऐनक से नहीं देखता। औरत जो है, जो मर्द का उस के लिए रवैया है, जहां वो माशूक भी तो है। तो आलोचना आयडियोलॉजी की ऐनक लगा कर भी होती रही है। इसका यह मतलब नहीं कि औरत को उसके हक नहीं मिलने चाहिए। यथार्थ में वर्तमान, भूत और भविष्य मिले होते हैं, उसे समझना चाहिए।
प्रश्न: फिर यह भी तो है न कि अपनी ही घोषित विचारधारा को हम पूरा कहां पहचान पाते हैं। कई अंतर्विरोध वक्त एवं दौर की सूरत में भीतर-भीतर चलते रहते हैं।
उत्तर: हां। वो पैदा होते हैं। देखिए विचारधारा की मिसाल मैं इस तरह देता हूं कि जीवन की सच्चाई तो ऊबड़-खाबड़ ज़मीन है - जहां गढ़े भी हैं, चट्टानें भी, नदी-नाले भी, घास-पात भी। विचारधारा उस ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर चलाने वाला रास्ता है, पूरा रास्ता नहीं। लिखते वक्त केवल सड़क या रास्ते तक महदूद होकर तो नहीं लिखा जा सकता। संपूर्ण दृश्य में से ही, गढ़े-चट्टान समेत गुज़रना होगा। तो जैसे ही पेचीदगियों की अक्कासी की बात कोई करने लगता है तो लोग उसे भटका हुआ कहने लगते हैं। तो मेरे क़रीब विचारधारा संपूर्ण सत्य नहीं है। एक मार्ग या दृष्टि ज़रूर है।
प्रश्न: मार्क्सवादी जमालियात या सौंदर्यशास्त्र के तत्वों पर आप कुछ कहें?
उत्तर: देखिए मार्क्सवादी ऐस्थेटिक्स का जहां तक सवाल है, तो यह कि आप सौंदर्य की परिभाषा कैसे करते हैं। एक तो सौंदर्य का क्लासिकल नज़रिया है जो वस्तु में खास अनुपात, गुणों की तलाश करता है। लेकिन मार्क्सवादी नज़रिया व्यक्ति और वस्तु के संबंध की धारणा देता है। सामाजिक एसेन्स की बात करता है। इसके लिए सौंदर्य खाली रंग और अनुपात में ही नहीं है, जैसे प्रेमचंद ने उदाहरण दिया था 1940 में कि एक मज़दूर औरत, खेत में काम करने वाली, बच्चे को मुंडेर पर छोड़ देती है। पसीना बहता है। वो आकर बच्चे को दूध पिलाती है। ऐसी औरत की छवि क्लासिकल ऐस्थेटिक्स पर तो पूरा न उतरेगी। क्योंकि वहां तो औरत की खूबसूरती के तयशुदा खाने हैं। लेकिन इसमें अनथाह सौंदर्य है। अपने काम के प्रति उसका मन, बच्चे के प्रति उसका ममत्व, सब मिलकर एक तस्वीर रचते हैं। तो सौंदर्य केवल रूप या फार्म ही में नहीं है संघर्ष की यातनाओं, तकलीफ़ों का हमदर्दी से चित्रण शायद मार्क्सवादी जमालियात का हिस्सा है। क्लासिकल साहित्य में तो प्यार मुहब्बत सब खूबसूरती की वजह से है। सोलह सिंगार की वजह से। मार्क्सवादी एस्थेटिक्स में यह अवधारणा नहीं। उसके अनुसार तो इंसान का पूरा चरित्र, यातनाएं झेलने की उसकी कुवत और उसके सपने क्या हैं, सब का सही चित्रण वहां महत्वपूर्ण है। क्लासिकल साहित्य में एक मज़दूर, एक आम आदमी साहित्य की दुनिया से खारिज है। लेकिन यहां वो पात्र भी जमालियत का हिस्सा है। उसके जीवन का मूल्य, उसके सामाजिक संदर्भ सभी। यानी जीवन को उसकी पूरी पेचीदगी के साथ साहित्य में बिंबित करना - जो है और जो सपना है, सबका चित्रण मार्क्सवादी जमालियात का एक हिस्सा है। फिर यह कि एक कैरेक्टर को आप कैसे रचनात्मक साहित्य में दिखाते हैं। एक मज़दूर केवल आदर्श रूप में दिखाया जाता है या उसकी, कमज़ोरियों को भी लिया जाता है। क्या इंसान का चित्र संपूर्णता में ज़रूरी नहीं है? पार्टीवर है तो क्या उसे बहुत आत्मत्यागी ही बना के पेश करेंगे। औरत की बराबरी को मानने वाला भी तो बीवी के साथ अत्याचार कर सकता है।
प्रश्न: आजकल पोस्ट मार्डनिज्म की जो चर्चा उर्दू आलोचना में चल रही है?
उत्तर: हां, चर्चा तो बहुत है। खास तौर पर तनकीदी हलकों में। मुश्किल यह है कि हम सब कुछ पश्चिम से लाते हैं। मेरी कम्यूनिस्ट अदीबों से यह शिकायत रही है। मार्डनिस्टों में भी यह रहा है, मार्क्सवादियों में भी। दोनों ने ही अपनी ज़मीन की सच्चाइयों पर ध्यान नहीं दिया। अपने सांस्कृतिक मूल्यों का कैसे रचनात्मक इस्तेमाल किया जाए यह देखना चाहिए। हम युरोप के ट्रैंड को यहां लाने के लिए तत्पर दिखते हैं। पूरा मार्डनिस्ट ट्रेंड यही है। युद्धोत्तर स्थितियों की मनोदशा को हमने आंख मूंद कर अपना लिया।
प्रश्न: हमने मार्क्सवादी सिद्धांतों का विकास किया है क्या? उर्दू में इस तरह का कुछ सामने आया हो?
उत्तर: थ्योरीज़ की दृष्टि से उर्दू में जो कुछ है, फ्रेंच और अंग्रेज़ी का अनुवाद हैं। और यों भी साहित्य तज़र्बे से जुड़ा होना चाहिए। मैं तो यहां तक कहता हूं कि जो फिक्शन मगरिब में लिखा जा रहा है, वो भी हमारी धरती से जुड़ा है, वतन की याद से जुड़ा है तो उसके प्राण भी हमारी मिट्टी से ही जुड़े हैं।
प्रश्न: उर्दू तनकीद ने कहीं लोक के साहित्य को भी छुआ है क्या?
उत्तर: उर्दू साहित्य या शायरी दरअसल दरबार से पैदा हुई। बड़े बड़े शायर दरबार से वाबस्ता रहे। उनका संबंध सांमतवादी साहित्य से रहा। तो फोक या लोक अदब की अहमियत नहीं रही। कबीर जैसे शायर जितने भी बड़े हों, उर्दू के शायर नहीं माने जाते हालांकि वो खिचड़ी या मिली जुली ज़बान के कवि हैं।
प्रश्न: सूफ़ीवाद क्या उर्दू शायरी से नहीं जुड़ता? और उसका आधार तो लोक ही है?
उत्तर: दरअसल सूफ़ी शायरों ने हमेशा इलाकाई ज़बानों में लिखा - मराठी, अवधी ... में। उर्दू में उन्हें ग्रहण नहीं किया जा सकता है। हालांकि 'सूफ़ीवाद' का तत्व उर्दू में बहुत है - ग़ालिब में है, असगर बोनवी की शायरी में सूफ़ी रुझान है। मोमिन के यहां भी असर मिलता है।
प्रश्न: लेकिन हिंदी की परंपरा में तो इलाकाई ज़बानों का, या बोलियों का काव्य शामिल किया जाता है। परंपरा में उनका बहुत बड़ा हिस्सा है। मीरा, तुलसी, कबीर, जायसी। फिर अली सरदार ज़ाफरी ने तो तनकीद में इन मध्यकालीन इलाकाई कवियों पर लिखा भी है?
उत्तर: वो ठीक है पर वो सब इलाकाई कवि उर्दू की परंपरा में ग्रहण नहीं किए जाते। कारण उर्दू और हिंदी को अंग्रेज़ों के ज़माने से अलगाया गया। फोर्ट विलियन कॉलेज ने इन्हें अलग अलग किया। वरना तो एक सामान्य ज़बान 'हिंदवी' थी। ग़ालिब भी हिंदुस्तान की ज़बान के रूप में उर्दू को हिंदवी कहते थे। बाद में एक में संस्कृत के आलफाज़ और दूसरे में अरबी-फारसी के अलफाज़ भरे गए - लिपि अलगाई गई। तो 19वीं सदी तक तो हिंदी की अलग पहचान न थी। उर्दू या फिर हिंदवी के रूप में वो बाज़ार की जुबान रही थी। बाद में दरबार से जुड़ गई। और इस तरह जो तकसीम अंग्रेज़ों ने भाषा की दृष्टि से की, उसे हमने मान लिया। वरना प्रेमचंद को क्या उर्दू का नावेल निगार और अफ़साना निगार नहीं माना जा सकता। लेकिन देखता हूं कि आज जो हिंदी यू.पी. राजस्थान वगैरह में बोली जाती है, वह बहुत अधिक संस्कृतनिष्ठ है।
प्रश्न: उर्दू के तरक्कीपसंद तनकीद के केंद्र में कौन सी साहित्य विधा रही? जैसे हिंदी में तो आलोचना कविता के गिर्द ही घूमती रही है।
उत्तर: पहली विधा तो शायरी ही है। 19वीं सदी के बाद से फिक्शन आने लगा। बीसवीं सदी में नॉवेल आने लगा। तो अब दोनों ही तनकीद का हिस्सा हैं।
प्रश्न: हिंदी में आज यह ज़ोर से कहा जा रहा है कि गद्य या फिक्शन का विधागत चरित्र ही सामाजिक है। जबकि कविता में सामाजिक जीवन की वैसी अक्कासी नहीं हो सकती। तो इन दोनों का बुनियादी अंतर?
उत्तर: सही भी है यह बात कि फिक्शन ज्यादा यथार्थवादी है। सामाजिक सच्चाई के ज्यादा करीब होता है। शायरी में सामाजिक ही सही पर अनुभवों को 'कन्डेंस' करने की कोशिश होती है। अत: अमूर्तन आना एक हद तक तो स्वाभाविक है। पर मेरी नज़र में उर्दू तनकीद में दोनों ही विधाएं रही हैं। खुद मैंने फिक्शन ही पर ज्यादा लिखा।
प्रश्न: हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना तो रूप के विश्लेषण से बचती रही है, उर्दू में क्या स्थिति है?
उत्तर: हां, यांत्रिक आलोचना ने इसे खारिज किया है। लेकिन 'फार्म' की अपनी भूमिका होती है। कभी फार्म डिक्टेट करती है कभी कांटेंट। जैसे गज़ल एक बेहद शक्तिशाली रूप था। फार्म वही बना रहा, लेकिन उसमें नया कांटेट आने लगा। लेकिन गहरी तनकीद भी हुई है जिसने रूप और वस्तु दोनों के रिश्तों से आलोचना की है।
प्रश्न: डॉ. राम विलास शर्मा हिंदी और उर्दू को एक ही 'हिंदी-जाति' का हिस्सा मानते हैं, क्योंकि दोनों का सांस्कृतिक और भाषाई विरसा एक है। इसी बिनाह पर वो पूरी हिंदी जाति की एकता की बात करते हैं। आप इससे सहमत हैं क्या?
उत्तर: भाषा से जाति बनती है, यह नज़रिया भी अब पुराना पड़ता जा रहा है। दुनिया इससे आगे आ गई है। इंटरनेट के ज़माने में नेशनेलिटी तो है पर नज़रिए में तब्दीली करना ज़रूरी है। जहां दुनिया को गांव कहा जा रहा है वहां अंतर स्वयं आ जाएगा।