मन्नू भंडारी की यही सच है कहानी आपने पढ़ी होगी. और उस पर बनी रजनीगंधा फिल्म भी देखी होगी. इन दोनों को साथ साथ याद करना और आस्वाद लेना एक मजेदार अनुभव है. ब्लॉग की नजर से लेख जरा लंबा है. इसलिए किस्तों में दिया जा रहा है. अब पढि़ए छठी किस्त -
कहानी में नवीन से मिलने पर दीपा के मन में अनजाने ही जो तुलना संजय से होती जाती है, उसे भी जस का तस लिया गया है। जैसे संजय की विलंब से आने की पृष्ठभूमि में नवीन का समय से पहले आ जाना। या संजय का अपनी झोंक में दीपा की साड़ी और सौंदर्य को देखकर भी न देख पाना। जबकि तुलना में मितभाषी नवीन का यह उच्छवास, 'इस साड़ी में तुम बहुत सुंदर लग रही हो' दीपा को रोमांचित कर जाता है। देखा जाए तो यह भी एक सांयोगिक कंट्रास्ट ही बन जाता है कि दीपा के आग्रह के बावजूद ऑफिस की व्यस्तता के कारण संजय दीपा के साथ मुंबई नहीं जा पाता और इधर नवीन दीपा के लिए खुद को झोंक सा देता है और ऑफिस से छुट्टी तक ले लेता है।
लेकिन कहानी की खूबी यह है कि अलग अलग व्यक्ति होकर भी लेखिका की तरफ से इन विशेषताओं के बल पर कोई मूल्यांकन नहीं किया गया है। न ही इनसे प्रेम की अधिकता या न्यूनता को मापने की कोशिश की है। दोनों पुरुषों का कभी सामना भी नहीं होता। वे तो लगभग एक दूसरे के अस्तित्व तक से अनजान हैं अत: पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता जैसा तो कुछ है ही नहीं। जो भी उलझन है वो दीपा के मन में है। वे दोनों तो अपनी अपनी तरह से दीपा से जुड़े हैं और अपने अपने अंदाज में प्रेम का अनुभव और अभिव्यक्ति भी करते ही हैं। सारा द्वन्द्व और चुनाव का सारा जोखिम तो दीपा के ही हिस्से में आया है। और एक बिंदु पर वह अपने लिए एक त गढ़ती है कि शायद प्रथम प्रेन्रेम ही सच्चा प्रेम होता है।
फिल्म में संजय दीपा को मुंबई के लिए विदा करने स्टेशन तक आता है, जबकि कहानी में ऐसा नहीं है। इस दृश्य से नवीन द्वारा दीपा को विदा करने के दृश्य में समांतरता पैदा होती है और साथ ही फिल्म में एक संतुलन बनता है। विदा लेने और देने का मोटिफ और अलग होने की पीड़ा दोनों में उभरती है। लेकिन फिल्म में जिस तरह गाड़ी के चलने से पहले बहुत सी भाप इंजिन से निकलती है और स्क्रीन पर धुंए का एक बादल सा छा जाता है, उसी के बरक्स दीपा का संयम टूटता है। संवेग का वाष्प आंसू बनकर बह निकलता है।
सबसे बढ़कर है रजनीगंधा के फूलों का काव्यात्मक मोटिफ जिसका इस्तेमाल फिल्म ने भी उतनी ही खूबसूरती से किया है बल्कि फिल्मकार ने इसे एक केंद्रीय मोटिफ (अभिप्राय) के रूप में चुना है। इसीलिए ये फूल फिल्म का नाम बनते हैं। कई तरह से रजनीगंधा के फूलों का प्रयोग कई तरह से हुआ है। इन फूलों के माध्यम से प्रेम का एक ऐन्द्रिय आयाम भी उभरता है। कभी दीपा फूलों को देखती है, मंद मुस्कान के साथ, कभी कोमलता से उन्हें छूती और अपने गालों पर महसूस करती है। कभी खुद को आइने में फूलों के साथ निहारती है तो कभी फूलों को अपने सोने के कमरे में ले आती है। एक पूरे गीत में उनके प्रतीक को स्वर दिए गए हैं। यह पीछे छूटी प्रेम की मदिर खशबू के रूप में तो आता ही है, संजय के अस्तित्व के साथ भी जुड़ा है। बार बार ये फूल आते हैं। दीपा के मन में संजय की उपस्थिति से वे जुड़ गए हैं।
'और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।'
कहानी में एक जगह दीपा रजनीगंधा के अनेक फूलों में संजय की आंखें देखती है, 'जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं ', और यह कल्पना ही उसे लजा देती है। फिल्म में इस अमूर्त भाव को भी फिल्मकार ने अभिनय क्षमता से मूर्त किया है। फिल्म में भी ये बार बार दिखते हैं। संजय के आने के साथ और संजय के जाने के बाद तक भी वे एक कोने में महकते रहते हैं। कहना न होगा कि रजनीगंधा के सफेद महकते फूल एक स्तर पर संजय के खिले हुए अस्तित्व और दूसरे स्तर पर तन मन पर बरसते प्रेम भाव का प्रतीक हैं।
'लौटकर अपना कमरा खोलती हूं, तो देखती हूं, सब कुछ ज्यों का त्यों है सिर्फ फूलदान के रजनीगंधा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झर कर इधर उधर भी बिखर गए हैं।'
यह दृश्य मुंबई से लौट के आने के बाद का है और फूलों का मुरझाना संजय की छवि के मंद पड़ जाने से सहज ही जुड़ जाता है।
नवीन को खत लिखती हुई दीपा सूने फूलदान को देखती है लेकिन फिर कतरा कर दिशा बदल कर सो जाती हैý