शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा



दो उपन्‍यासों के हवाले से
भाग दो



अब इस दृष्टि से दो चर्चित कथाकृतियों को समझने की कोशिश कर सकते हैं। एक है कृष्णा सोबती की ' लड़की' और दूसरी अलका सरावगी की 'कलिकथा वाया बाईपास'। ये कृतियां आकार , रूप ,भाषा के रचाव की दृष्टि से काफी भिन्न है। दोनों में समय और स्थान अपने अपने ढंग से क्रीड़ा करते हैं। ऐ लड़की में देश एवं काल की गतियां और शिफ्ट मानसिक ज्यादा है, भौतिक कम। घटनाविहीन, कहानीविहीन एक परिस्थिति उपन्यास में है जहां नायिका बूढ़ी अम्मू एडरेसर है, बीमार और निष्क्रिय पड़ी है। लेकिन अम्मू के अंतराकाश में अतीत, वर्तमान, मृत्यु (जो अभी आई नहीं) और मृत्यु के बाद का काल आता जाता रहता है। अपने बिस्तर और कमरे की चौहद्दी की सिकुड़े हुए भौतिक दिक् में अम्मू स्मृतियों के जरीए अनेक दिकों में घूमती है एवं समय और स्थानों को, उनके विभिन्न अनुभवों को पुनर्जीवित करती है।
यह रचना उपन्यास में सामान्य किस्सागोई के तत्व को सिरे से नकार कर लगभग 'एकतरफा संवाद' के शिल्प को अपनाती है। मृत्यु की प्रतीक्षा करती हुई बूढ़ी माँ निरंतर अपनी तीमारदार बेटी से मुखातिब है। बेटी जो एडरेसी है, लेकिन इस संवाद में कभी हुंकारा भर तो कभी कोई छोटा सा प्रश्न, कभी आहत भाव, तो कभी गुस्से की तमतमाहट और कुल जमा माँ के प्रति गहरे सरोकार के रूप में उपस्थित है। यह एकालाप की ओर झुकता सा प्रारूप है। पर साथ ही ये सारी बातें केवल मृत्युशैया पर पड़े मरीज़ का एकांतिक प्रलाप नहीं। वे अपने जीवन भर के अनुभवों को बेटी के साथ बाँट रही है, उसे देना चाहती है। कहती भी है कि मेरे पास संपत्ति जायदात नहीं, केवल मंत्रणा है। अत: यह केवल एकालाप न रहकर अपनी मंशा में संवाद भी हो जाता है और एकालाप और संवाद का द्वंद्वमान रूप उभरता है।
अब इस कृति के संदर्भ में देश एवं काल के मुद्दे पर लौटते हैं। माँ और बैटी के ये दो बीज पात्र खुद समय के दो आयाम हैं। समय यहां पात्र में ढल गया है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दो आयामों का एक दूसरे से द्वंद्वात्मक और आत्मिक रिश्ता है। दो व्यक्तित्व, मानो दो समय आपस में टकराते हैं, फिर जुड़ जाते हैं क्योंकि बेटी माँ की शाख से ही फूटी है, दूसरा समय पहले के भीतर से ही उपजा है।
भौतिक समय भी है जो दिन और रात में विभाजित है। अम्मू की सुबह की चाय, स्पॉन्ज इत्यादि सुबह से जुड़े हैं। लेकिन अम्मू की चेतना का जगना बुझना मानो उसके शरीर के दिन और रात हैं। अम्मू समय चक्र में ऋतु चक्र से भी जुड़ना चाहती है। महीने के नाम पूछती है। पूर्णमाशी की तिथि जानना और शहतूत का स्वाद चखना चाहती है। लेकिन इस भौतिक समय पर तो मानसिक समय अपनी चित्रकारी कर रहा है, सुपर इम्पोज़ीशन की तरह। खुद को अम्मू आज 'प्राचीना' कहती है, लेकिन फिर उभर आती है अठारह वर्ष की दुल्हन, पेड़ों के 'छत्तर' निहारने वाली बच्ची और एक 'ताज़ी' लड़की। 'कहीं से ले तो आओ उस ताज़ी लड़की को... समय कैसे काल बन जाता है। एक दौर में सीढ़ियां चढ़ी जातीं हैं। दूसरी में उतरी जाती हैं।'
मृत्यु और मृत्यु के बाद का समय भविष्य का समय है जो चेतना में अम्मू के निकट खड़ा है। लेकिन मृत्यु के बाद की परिकल्पनाओं में कहीं भी परलोक की कोई मूर्त कल्पना या छवियां नहीं हैं। बस एक अंधकार सा है। अम्मू उसे छलावा कहती है। मृत्यु के बाद की परिकल्पना भी इसी दिक् और लोक की कल्पना है, इसी समय का विस्तार है, जिसमें वो तो नहीं होगी पर उसकी पुत्री होगी। और अम्मू उस वक्त में अपनी पुत्री के लिए अटकी हुई है और कई हिदायतें देती है। बेटी के एकाकी जीवन का बोध उसे सालता है और उसके संदेश दो धु्रवांतों में बंट जाते हैं। एक ध्रुव पर वह बेटी के लिए परिवार और सुख की कामना करती है तो दूसरे पर पहुंच कर इसे पुत्री की शक्ति स्वीकार करती है। उससे आश्वस्त होती है और बचाए रखने की मंत्रणा देती है। इस तरह माँ, मां के समय से निकल कर बेटी के समय में चली आती है।
अतीत भी बंटा हुआ है जिसमें एक मायके का समय है तो दूसरा ससुराल का समय। यह स्थान का विभाजन भी है। बदले हुए समय और स्थान के बदले हुए दृश्य हैं। बदला हुआ संसार और अंतर्सबंध है। अतीत को वह पिछवाड़ा, तहखाना, गठरी, गोदाम कहती है। बुढ़ापा उसका वर्तमान है और मृत्यु और बेटी उस बिंदु से आगे उसका भविष्य। जीवन को उसने दूध के समय और चाय के समय में भी बांट रखा है। 'मेरी उम्र के पहले अठारह बरस अलग निकाल दो। तब तो पीती रही दूध। उसके बाद दिन में चार प्यालों के हिसाब से ... पता नहीं और कितने प्याले बाकी हैं। '
इसी तरह इस कथाकृति में कई तरह के दिक् उभरते हैं। भौतिक रूप से एक कमरे और एक बिस्तर का फलक है, बेहद सिकुड़ा हुआ। कमरे में खिड़की है जो अतीत के स्मृति संसार में खुलती है और एक दरवाज़ा है जिसकी दहलीज़ से पार जाना इस लोक से निकल कर परलोक या मृत्यु के अंधकारमय ज़ोन में चले जाना है। कथा के अंत में बेटी माँ को बरामदे में ले जाती है और माँ बेटी के कमरे में भी चली जाती है। दिक् का यह शिफ्ट भी माँ की मनोगतियों तक जाता है। रंगकर्म की दृष्टि से यह माँ के दृश्यबंध (कमरे) से निकल कर बेटी के दृश्यबंध में जाना है। यह शिल्प और अन्तर्वस्तु का भी समन्वय है। यहां भी भौतिक स्पेस पर मानसिक देश उभरते आते हैं। अम्मू पहाड़ी रास्तों में चली जा रही है, सुबह सुबह स्नान करके। शिमला के अनेक दृश्य उभरते हैं।
पूरी कृति में तीन मैंटल लैंडस्केप्स (मानस भूदृश्य) उभरते हैं, जिन्हें अम्मू ब्रह्मांड के 'तीन लोक' कहती है - जीने वालों का लोक, मरने वालों का लोक और हम जैसे बीमारों का लोक। इहलोक की अद्भुत लीलाओं में रमती हुई अम्मू के भीतर जीने वालों का लोक उभरता है। इस मानसिक भूदृश्य में जीवन एवं सृष्टि की नेमतें हैं - गुलाब के फूल, भोर, पहाड़ों की बर्फ और बारिश, भुनते हुए हल्वे की गंध, चाय का संगीत, संतान को गोद में लेकर दूध पिलाना, माता पिता, बावली का स्नान...। जीवन के संताप और मृत्यु की चेतनाएं मरने वालों का लोक है तथा बीमारी वाले भूदृश्य में जहां तहां झुंझलाहट, खीझ, असमर्थता के टीले, वनस्पतियाँ और खाइयां फैली हैं।
माँ बेटी के बीच जैसे समय के व्यवधान और निरंतरताएं हैं, वेसे ही स्पेस का अंतराल भी है जो फैलता और सिकुड़ता है। दूर होते होते वे बहुत दूर जा पड़ती हैं पर अगले ही पल नाभिनालबध्द दिखती हैं। अम्मू उसके कमरे में उसके बिस्तर पर चली आती है। एक अद्भुत विभाजन खड़ी रेखा वाला भी है, धरती और आकाश का। अम्मू अक्सर कहती है कि मैं अपनी हवा से ज़मीन से ऊपर उड़ जाऊंगी और धरती और देह की पीड़ाओं को पार (ट्रांसैंड) कर जाऊंगी। इस बिंदु पर अरस्तू की याद बरबस आती है जिन्होंने चार तत्वों में दो तरह की शक्तियों ग्रैविटी (धरती और जल में) और लैविटी यानी ऊपर उठना (अग्नि और वायु में) की बात की है। मृत्यु और अम्मू के बीच जहां समय सिकुड़ रहा है वहीं स्पेस भी सिकुड़ रहा है। उसको लगता है कि वह अपने कमरे के दरवाज़े के निकट पहुंच रही है।
इस पोस्‍ट की शब्‍द संख्‍या ठीक ही हो गई है. इसलिए इस बार सिर्फ ऐ लड़की. अगली बार कलिकथा.

2 टिप्‍पणियां:

niranjan dev sharma ने कहा…

Tisre bhag ka intzaar rahega.Aapka adhyayan gahra hai.Sahitya hi nahin darshan ka bhi

niranjan dev sharma ने कहा…

Tisre bhag ka intzaar rahega.Aapka adhyayan gahra hai.Sahitya hi nahin darshan ka bhi