सोमवार, दिसंबर 27, 2010

अप्रतिम दीठ




विनोद कुमार शुक्ल के नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी उपन्यासों पर सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद ... दूसरा हिस्‍सा
अनूप: बिल्कुल। घर को लेकर नौकर की कमीज के संतू बाबू के मन में अजीब तरह के संशय हैं। घर में दाखिल होने के दो दरवाजे हैं। वह दूसरे दरवाजे के लिए एक ताला भी ले आता है। एक तरफ वह ताला लगाता है, दूसरी तरफ पत्नी लगाएगी, क्योंकि अब वह भी डाक्टरनी के घर जाती है। ज्यादा देर तक अपने घर से बाहर रहती है। यह दूसरा ताला उन दोनों के मन में बड़ी उलझन पैदा करता है। संतू कहता है अपना अपना ताला लगाएं। मतलब दोनों की अपनी अपनी स्वतंत्रता बनी रहे। पत्नी को ज्यादा उलझन है। पति आगे से ताला लगा कर चला जाए पत्नी पीछे से, वो तो ठीक है, लेकिन पत्नी घर में पीछे से आ भी जाए तो भी लोग आगे का ताला देखकर यही समझेंगे कि घर में कोई नहीं है। यह उन घरों की उलझन है जहां की स्त्रियां कामकाजी स्त्रियां बनने लगी हैं। सीधे सादे आदमी का त होगा कि दो ताले क्यों, एक ताले की दो चाबियों से भी काम चल जाएगा। पर संतू की त पद्धति अपनी तरह की है। वह किसी से मेल नहीं खाती। वे दूसरा ताला ही हटा देना चाहते हैं। असल में वे घर को खुला ही रखना चाहते हैं
सुमनिका : घर के दो हिस्से खिलेगा तो देखेंगे में भी हैं, छोटा लॉक अप और बड़ा लॉक अप। इसके पात्र भी दीवालों से आगे और तालों से परे जाना चाहते हैं, प्रकृति की दुनिया में। लेकिन यहां एक अलीगढ़ी ताला है जो ग्राम सेवक के दरवाजे पर सदा लटका दीखता है
अनूप: ताले की उलझन दीवार में खिड़की रहती थी में भी है। वहां रघुवर प्रसाद टट्टी के लिए एक अलग ताला लेता है‎‎। उसका किराया भी अलग देता है। असल में वह प्राइवेसी हासिल करने का किराया देता है‎‎। यह बात उसके पिता की समझ में नहीं आती। जिस समाज में शौचालयों की कभी जरूरत ही महसूस न की गई हो; खुला खलिहान निर्भय निर्मल आनंद देता हो, जंगल पानी जाने का मतलब ही शौच निवृत्ति हो वहां 'एक्सक्लूसिव' टट्टी का होना किस पिता को समझ में आएगा। यह तो शहराती जीवन का नागर बोध है। जिस वर्ग में खरीदारी रोजमर्रा का काम न हो और कोई वस्तु जरूरत के लंबा खिंचे चले आने के बाद खरीदी जाती हो, वहां ताले की फिजूलखर्ची नहीं होने दी जाएगी। दूसरे ताले को पिता अपने साथ ले जाते हैं
सुमनिका: सभी उपन्यासों में बाहर की दुनिया में ताकत की सत्ता वाला समाज है जिसमें कमजोर का जीना बहुत दारुण है। खिलेगा तो देखेंगे में इसके बहुत से बिंब हैं। थाने से लेकर जीवराखन की दुकान, सिपाही और राउत हैं। पति पत्नी के बीच भी सत्ता के संबंध डेरहिन और जीवराखन की कथा में उभरते हैं। इसमें शुरू का दृश्य तो भीतर तक हिला देता है जब कोटवार का बेटा घासीराम जीवराखन को गालियां देता है और पुलीस उसे पकड़ लेती है। वो अपने तीन महीने के बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए गोद में उठा लेता है, छोड़ता नहीं। मार पीट में न जाने कैसे बच्चे की नाक से खून गिरता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इन दृश्यों को पढ़ना भी मुश्किल हो जाता है। जो सबसे कमजोर है वही सबसे पहले शिकार हो जाता है। जैसे खिलेगा तो देखेंगे में बच्चा और नौकर कर कमीज में मंगतू
अनूप: घर से बाहर की दुनिया में नौकर की कमीज में दफ्तर है जहां बड़े बाबू और साहब हैं और इनके बीच कई स्तरों के कर्मचारी हैं। किसी छोटे शहर के दफ्तर का बड़ा धूसर चित्र उकेरा गया है। संतू बाबू (नायक) सबसे ज्यादा तकलीफ में हैं क्योंकि वे नौकर में तब्दील नहीं होना चाहते। भरपूर जोर लगाने के बावजूद उन्हें नौकर की कमीज पहना ही दी जाती है। यह नौकर की कमीज एक रूपक की तरह है। संतू आदर्श नौकर मान लिया जाता है। दूसरी तरफ उसकी पत्नी डाक्टरनी की सहायिका बन जाती है। उसे धीरे धीरे इस भूमिका में सधाया जाता है। संतू यह देखकर परेशान हो उठता है कि वह साहब के बगीचे का घास छीलने वाला नौकर बन गया है। और उसकी पत्नी डाक्टर के यहां खाना बनाने वाली। इस जाल को तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं है। वह बुखार की बेहोशी में डाक्टर को गालियां बकता है। दफ्तर में कटहल के पेड़ पर चढ़कर कटहल तोड़कर कायदे कानून को धता बताता है। नौकर की कमीज में कोई परिवर्तनकारी कदम नहीं उठाया जाता। लेकिन जो रूपक नौकर की कमीज से बनाया गया है उसे जरूर अंत तक पहुंचाया जाता है। दफ्तर के बाबू लोगों ने कमीज को चिंदी चिंदी करके रखा है। अंत में वे सब मिलकर उसे जला देते हैं। इस तरह वे नौकरशाही में होने वाले शोषण का प्रतीकात्मक अंत करते हैं
सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो दबाव के अनेक रूप हैं। वे अप्रत्यक्ष ही सही, पर पूरे जीवन पर प्रेतात्मा की तरह छाए हैं। न जाने कितने हैं जो भूख से लड़ रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है जहां चार जलेबी का स्वाद तीन चार दिन तक रहता है या कई बार तीन चार महीनों तक। इस उपन्यास में पिता अपने बेटे को भूखे रहते हुए जीना सिखाता है। डेरहिन जीवराखन के चंगुल से भाग जाती है और ताकतवर की हिंसा और प्रहारों को कमजोर लोग एक जादुई ढंग से रोक देते हैं यानी एक जादुई पत्ती पान में खिलाकर उनको गूंगा बना देते हैं। क्योंकि उनकी जबान ही गोली और बंदूक थी। और फिर एक स्वप्न सृष्टि का बिंब है
अनूप: दीवार में खिड़की रहती थी इसकी तुलना में अधिक रोमांटिक कहानी है। जीवन या परिस्थितियों से वैसी सीधी टकराहट यहां नहीं दिखती। नायक रघुवर प्रसाद गणित का प्राध्यापक है। उसका बॉस विभागाध्यक्ष है और दोनों का बॉस प्राचार्य है। एक ढर्रे पर जीवन चलता रहता है। प्रत्यक्षत: किसी को कोई कष्ट नहीं है
सुमनिका : लेकिन यहां भी विभागाध्यक्ष का दबाव कम नहीं है। और काम पर वक्त से पहुंचने का संघर्ष ही तो खासा बड़ा है और कष्टसाध्य है
अनूप : हां, लेकिन फिर भी लगता है न जीवन में कोई कमी है न जीवन से कोई शिकायत। उपन्यासकार की यह खूबी है कि वह अपनी तरफ से पात्रों में कुछ नहीं डालता। ठेठ गंवई जीवन है। पात्रों में जीवन जीने की तन्मयता है। सादगी है। इस सब में सादगी और सरलता उभरती है। प्रोफैसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है जो उसे महाविद्यालय लाता-ले जाता है। नवविवाहित प्रोफैसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। खिड़की से बाहर जाने में तो वह मन का राजा है ही, कालेज भी राजा की तरह हाथी पर सवार होकर जाता है
सुमनिका : हाथी का मिल जाना आपको सिंड्रेला को परी द्वारा दिए गए जीवन सा नहीं लगता? शीशे के जूतों जैसा और कुम्हड़े के रथ जैसा? यह हाथी जो एक बारगी उसे सारी दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है, पेड़ों की फुनगियों का दृश्य दिखा देता है। सब पीछे रह जाते हैं। रघुवर राजा हो जाता है।
अनूप : इस तरह हाथी को सवारी के रूप में लाकर उपन्यासकार सभ्यता के उपभोक्तावादी विकास को धता बताते हैं। यह विमर्श का एक अनूठा रूप हैý
सुमनिका : यह बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी है। आप कहना चाहते हैं कि इन सभी उपन्यासों में मुक्ति का एक समानांतर दर्शन दिया गया है। जहां सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो‎‎। यहां गरीबी का वर्णन तो है, लेकिन उसका महिमा मंडन नहीं। और महत्वपूर्ण यह है कि उसका जबाव अमीरी में नहीं खोजा गया है। मुझे तो लगता है कि विनोद कुमार शुक्ल का कथ्य, उनके नायक, उनका जीवन, उनकी भाषा, उनका सारा शिल्प प्रचलित शैलियों का बरक्स रचता है

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