रविवार, सितंबर 27, 2009

प्रकृति का पूर्णराग - बैजनाथ

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मंदिर की देह मानो प्रकृति का ही फलक थी जिसमें देव और मनुष्य ही नहीं, स्मसत प्राणी समाज विराजमान था। देवों के वाहन रूप में हों या स्वयं देव रूप में (अवतार) - पशु जगत सर्वत्र था - मछली, कच्छप, सिंह, वाराह, कुत्ता, हरिण, भैंसा, वानर और नंदी। फिर पक्षियों में मयूर (कार्तिकेय के संग) से लेकर गरुड़ (विष्णु) तक और कई अचीन्हे पक्षी थे। वनस्पति जगत तो इन जीवधारियों को घेरे हुए है - जिनमें खिले हुए कमल, बढ़ती जाती लताएं, शाल वृक्ष और सूरजमुखी फूल (सूर्यनारायण का चिह्यन) हैं। सृष्टि के पंच तत्त्वों में अग्नि देव हैं। वहीं पर पवन देव हैं जिनके पैरों के नीचे बैठा फुर्तीला हिरण मुग्ध कर देता है। हवा जैसे अमूर्त तत्त्व के लिए इतना सुंदर सार्थक मूर्तन! जल तत्त्व के रूप में मकर पर गंगा और कच्छप पर यमुना की बड़ी प्रतिमाएं गर्भग्रह के दोनों ओर अंतराल के भाग में खड़ी हैं। ह्लाुंँभ उठाए इन नारी रूपिणी नदियों की त्रिभंगी मुद्रा बेहद कमनीय है जो नदी की धारा की बंकिमता के भी अनुरूप है।

देवी के अनेक रूपों में एक अंकन विशेष तौर पर भूलता नहीं। उसमें कुछ विद्रूप सा है। शरीर में पसलियां प्रमुख हैं, मांसपेशलता नहीं। कंकालवत् यह अंकन दूर से पिशाचिनी का सा प्रभाव जगाता है। इसका नाम कुछ भी हो, यह मृत्यु और मरण की ही प्रतिष्ठा है। जीवन के हर तत्त्व में देवत्व देख पाने वाली दृष्टि मृत्यु को कभी भी कहां भूल पाई है। मुख्यद्वार में प्रवेश करता भक्तजन कनखियों से इसे देखता-बूझता अंदर बढ़ता है। वहीं आसपास धर्मराज भी हैं और उनका दण्ड इस बात का गवाह है कि वे ईश्वरीय न्याय का लेखा रखते हैं।

सभामंडप या जगमोहन में पहुंच कर दृष्टि ऊपर उठती है - ऊंची चौकोर छत अलंकृत है - उसे संभालने की कोशिश हुई दिखती है। मंडप का आकाश सूना कहां है - उस पर तो शिव की बारात चली आ रही है। आकाश में शिव विवाह का उत्सव छाया हुआ है।

इस सभामंडप के दोनों ओर दो बड़े झरोखे हैं जो एक ओर सिंहासन तो दूसरी ओर गरुड़ासन पर अवस्थित हैं। इनसे होकर बाहर का आसमान भीतर बहता चला आता है और भीतर से एक दर्शक भाव बाहर झांकता है। झरोखे बाहर और भीतर के संधिस्थल हैं। अपने भीतर पहुंच कर - अपनी आत्मा के आच्छादन के भीतर पहुंच कर यह बाहर दृष्टि फेरना है। इस साक्षी भाव से मनुष्य जब देखता है तो उसे हंसती,खिलखिलाती, सुगबुगाती और बहती नदी दिखती है जीवन की। एक मेला, एक उत्सव, एक गुजरता हुआ कारवां। इन झरोखों पर विशुध्द मानवीय जीवन उकेरा हुआ है - प्रसन्न युगल, शृंगार करती अलसकन्याएं और सद्यस्नाताएं जीवन रस में सराबोर हैं। गंगा की प्रतिमा के पक्ष में संगीतज्ञों और वाद्यों की झलक है। यह संगीत एवं नाद तत्त्व की प्रतिष्ठा है जो मात्र जीवन रव नहीं है वरन् उसके भीतर और उसके मूल में बहती लय और धुन है, रस और राग है। मुझे बताया गया कि गर्भग्रह के शिवलिंग के बीचोंबीच एक रेखा है जो उसे शिव और शक्ति का संयुक्त रूप बनाती है। वहीं आसपास मूर्त हुए हैं शिव शक्ति, हाथ जोड़े हनुमान और विष्णु लक्ष्मी।

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

इतने सारे ईश्वर ?
किस किस को बीड़ी पिलाएं.....