शिल्प और काव्यकला : परस्पर संवाद
कभी सोच के देखें कि तरह तरह की कलाओं का अस्तित्व
आखिर है ही क्यों। क्यों नहीं कोई एक ही कला सब कुछ समेट ले । लेकिन यह सम्भव नहीं
दिखता। विभिन्न कलाओं के होने का कारण ही शायद यह है कि यह जीवन इतना परिपूर्ण, इतना
समग्र है, उसमें इतने आयाम हैं, इतने पक्ष हैं कि हर कला अपने विलक्षण अंदाज़ में जीवन
की व्याख्या अपने निजी ढंग से करती है। जीवन के सार तत्व को अपनी अपनी विशिष्ट भाषा,
निजी व्याकरण में ढालती है। यह दुनिया तो एक ही है पर उसी एक दुनिया में संगीतज्ञ संगीत
के संयोजन सुना करता है, चित्रकार रंग-वर्णों के संयोजन देखा करता है, रेखाओं के साथ
बहता रहता है। हर कला इसीलिए बेहद ज़रूरी है
कि वह ऐसा कुछ मौलिक अनुभव देती है, जीवन का विशिष्ट सौन्दर्यबोधात्मक दर्शन कराती
है, संज्ञान कराती है, और कल्पना को उद्भुद्ध करती है जो उस रूप में दूसरी कला नहीं
कर सकती। और यों सब कलाएँ मिल कर ही इस जीवन की समृद्धि और जटिल सौंदर्य को प्रतीकित
करती हैं, रचती हैं।
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लेकिन फिर इन कलाओं में आपसी रिश्ते भी हैं, साम्यताएँ भी हैं, इनमें
परस्पर सम्वाद भी होता है, आपसी आकर्षण और प्रतिस्पर्धाएँ भी हैं, आंतरिक नज़दीकियाँ
और दूरियाँ भी हैं। भारतीय कला-परंपरा में भी अक्सर कुछ कला युग्म मिलते हैं जैसे काव्य-चित्र,
काव्य-संगीत, काव्य-नाट्य, शिल्प और वास्तु, चित्र एवं शिल्प इत्यादि। यानी हर कला किसी न किसी बिंदु पर दूसरी में प्रवाहित
हो जाती है। कब कोई इम्प्रेश्निस्ट चित्र अपने वर्णों के सामंजस्य में, हारमनी में,
संगीत हो जाता है, और फिर कितनी भी मूर्त कला हो, शायद हर कला संगीत की तरह अमूर्त
होने की कामना रखती ही है। शिल्पकला को शायद इसीलिए ‘फ्रोजेन म्यूजिक’ कहा जाता है।
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तो जब मैंने अपना प्रदत्त विषय पढ़ा, अर्थात मूर्ति
और काव्य के सम्बंध.. तो मैं एकबारगी अचकचा गई। पहली नज़र में यह लगा कि ये दो कलाएँ
तो ललित कलाओं के स्पेक्ट्रम में, उनके विस्तार में काफी दूर दूर हैं- लगभग दो सिरों
पर, बल्कि ध्रुवों पर खड़ी हैं। लेकिन जब सोचना शुरू किया तो लगा कि यद्यपि दूरी हो
सकती है पर दोनों में परस्पर संवाद तो होता आया है, तरह तरह से।
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मूर्तिकला और चित्रकला जैसी दृश्यकलाएँ प्राचीनतम
कलाएँ मानी जाती हैं, शिल्पकला तो प्रागैतिहासिक काल की है। पाषाणकाल में जब मनुष्य
ने पत्थर घिस घिस कर औज़ार बनाए थे तब वह शिल्पकला के अन्तराल में प्रविष्ट हो चुका
था।
मूर्तिकला या शिल्पकला का माध्यम भी पाँचों ललित कलाओं में सबसे अधिक कठोर है, कठिन है, श्रम एवं कौशल साध्य है। माध्यम की प्रकृति के अनुरूप ही उसके औज़ार (टूल्स) भी हैं जैसे हथौड़ी, छेनी, विभिन्न तरह के चाकू इत्यादि। और फिर माध्यम में तरह तरह की प्रकृति और रंग वर्ण के पाषाण, धातुएँ, काष्ठ, मिट्टी इस फिर मोम....
दूसरी ओर साहित्य या काव्यकला का माध्यम बेहद नमनीय है- अर्थात शब्द एवं भाषा जो कदापि अपरिष्कृत या ‘रॉ’ नहीं है। वह तो पहले ही से अर्थवान है, एक रचित व्यवस्था है, संकेतों की, रेडियम की तरह रेडियोएक्टिव, जीवित, सप्राण, निरन्तर आकार लेती, बदलती, जेनेरेटिव प्रकृति वाली। शब्द और भाषा की उत्पत्ति सामाजिक तहों से होती है अतः उसकी प्रकृति सामाजिक है। कवि उस पर एक स्वर्णकार की तरह काम करता है। शब्द के संयोजनों, बिम्बों, प्रतीकों , वाक्यों को रचता है। शब्द जिसमे पहले ही से कमसकम तीन आयाम तो होते ही हैं -शब्द का अभिधात्मक अर्थ, उसका नाद गुण और फिर उसके साथ अर्थ की मनोवैज्ञानिक छायाएँ भी शब्द में ही समाई होती हैं। कभी काव्य को श्रव्य कलाओं में गिना जाता था लेकिन दीर्घ समयक्रम ने इसे पाठ्य बना दिया है, और पुस्तक के पृष्ठ पर छपी हुई कविता का एक भौतिक रूप या स्ट्रक्चर भी होता है।
फिर शिल्पकला और काव्यकला का एक बड़ा भेद स्थानिक और कालिक कला का भेद भी है। शिल्पकला को स्थानिक या (spatial) कला कहा जाता है, क्योंकि यह एक स्थान में आकार लेती है, स्थान को घेरती या भरती है, बल्कि कहना चाहिए कि एक स्थान को अपने रूपाकार से परिभाषित कर देती है। और वही क्यों वरन उस स्थान के चहुंओर के स्पेस को भी जीवंत बना देती है। चित्र कला की तरह यह नयनों का विषय तो है ही, अतः यह दृश्यकला है और प्लास्टिक आर्ट अर्थात सुनम्य कला भी है, यानी जीवन के अनेक रूपों को त्रिआयामी छवियों में ढालने वाली, आयतन या वॉल्यूम में ढलने वाली कला। शायद इसीलिए जीवन रूपों के यह सबसे अधिक निकट भी तो है।
दूसरी ओर
काव्य, संगीत, नृत्य और नाट्य आदि कलाएँ कालिक या (टेम्पोरल) कलाएँ कहलाती हैं- यानी
समय में गतिमान, आशंसक के सम्मुख क्रमशः प्रकट होती हुईं, आकार ग्रहण करती हुईं, अनुक्रम
में (सीक्वेंस), शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, सम्वाद दर सम्वाद …..
यानी एक साथ या सहक्रम में प्रकट न होकर धीरे धीरे
प्रकट होती हैं।
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शिल्पकला
की अपील भाषा-भेद की दीवारों से परे बेहद आद्य (आदिम) और वैश्विक है, बहुत हद
तक उम्र और संस्कृतियों के विभाजनों से भी परे… क्योंकि उस के पास चित्रभाषा है, देह
भाषा है, मुद्रा और भंगिमा की भाषा है। ऐसे तो
जीवन-जगत का हर रूप शिल्पकला का विषय है पर सब से केंद्रीय विषय तो मनुष्य ही
है। मनुष्य रूप शिल्पकला का इकलौता विषय नहीं
पर फिर भी नाभिक तो ज़रूर रहा आया है, यों वहां पशु रूप हैं, वानस्पतिक रूप हैं, अनेक
दैनिक उपादान या फिर काल्पनिक और मिथकीय रूप भी अपनी विशिष्ट भंगिमाएँ लिए खड़े मिलते
हैं- हमारी तमाम इंद्रियों के सम्मुख। नयन तो नयन, हमारी स्पर्श सम्वेदनाओं के सम्मुख
भी। शायद इसीलिए शिल्प कृतियों को देख कर उन्हें स्पर्श करने की लालसा होती है, और
शायद इस स्पर्श सम्वेदना के कारण
ही इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार एडगर डेगास ने इसे ‘ब्लाइंड मैन’स आर्ट’ कहा था। अर्थात
यहाँ हमारा सामना एक भौतिक, ‘लगभग’ जीवित उपस्थिति से होता है, जिसे अनदेखा करना संभव
नहीं हो पाता।
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शिल्पकला जीवन के एक अचल क्षण को मूर्तिमान करती है, लेकिन इस स्तब्ध क्षण में सदा गति अंतर्निहित होती है,
अभिव्यंजित होती है। अर्थात यह एक क्षण, अचल
क्षण, अपने में बेहद प्रातिनिधिक, बेहद नाटकीय क्षण हो सकता है या फिर इस मूर्ति में
ढलते ही नाटकीय हो जाता है। यह कंप्रेस्ड क्षण
किसी वृत्तांत का एक बिंदु हो सकता है, जीवन -प्रवाह की श्रृंखला का एक ऐसा
क्षण जिसमें भूत और भविष्य की छाप भी है। तो एक रूप में स्पेशियल (स्थानिक) होकर भी समय यहाँ निबद्ध है। फिर एक रूप (फॉर्म) तमाम तरह की दैहिक और मानसिक गतियों और मुद्राओं
का भी धारक तो होता ही है। आधुनिक शिल्पकला के जनक कहे जाने वाले
फ्रांसीसी शिल्पकार अगस्ट रोदां (1840-1917) मनुष्य के भीतरी, अबूझ, अदृश्य
भावनात्मक संसार तक शिल्प के माध्यम से पहुंचना
चाहते थे। अपने जगत प्रसिद्ध शाहकार ‘थिंकर’ शिल्प कृति के बारे में उनका कहना
था कि उनका चिंतक केवल मस्तिष्क से, माथे की
आपस मे गुथी भवों से, अपने कसे हुए होठों से ही नहीं सोच रहा वरन अपनी बाहों, पीठ और पैरों
की तमाम पेशियों से और अपनी भिंची मुट्ठी
और पैर के अंगूठों तक से सोच रहा है। देह का कोई भी हिस्सा भावनात्मक अभिव्यंजना
से शून्य नहीं, वरन सम्पूर्ण का प्रतिनिधित्व
कर सकता है। इसीलिए रोदां ने मनुष्य के हाथों
की विभिन्न भंगिमाओं से मनुष्य के आंतर संसार को अभिव्यक्त किया है।
देखिए…


शिल्प में गति के कितने रूप हो सकते हैं, उसके अनेक उदाहरण लिए जा सकते हैं।
● रोम से प्राप्त लोआकून एवं उसके पुत्रों की विश्वविख्यात प्राचीन शिल्पकृति में एक ट्रोजन पुरोहित लोआकून और उसके बेटों को दो बड़े समुद्री सर्प अपनी कुंडली में कसते जा रहें हैं और वे तीनों प्राणपण से मृत्यु की जकड़न से जूझ रहे हैं। देखिए उनकी संघर्षरत, भीति से जकड़ी - कसमसाती देहें, आसन्न मृत्यु की यंत्रणा…
● इसी तरह माइकलएंजेलो की कृति ‘पिटी’ या ‘पीएटा’ (इतालवी) में कुमारी मेरी की गोद में पुत्र ईसा का मृत शरीर, गति के एक बिल्कुल अलग तरह के आयाम की अभिव्यंजना है। मेरी का झुका माथा, हर नक्श दुख में जम सा गया है, उसकी गोद मे बेटे की मृत देह जैसे अभी अपनी प्राणहीनता के भार से धरती पर फिसल जाएगी। मृत देह के अंग-उपांग ही नहीं, रग रग मरण को दृश्य बना रही है। ठहरी हुई ऐसी व्यथा की अभिव्यंजना कला की दुनिया में दुर्लभ ही है।
● गति का
एक और रूपाकार स्मृति में है, लगभग हाथ भर का एक छोटा मानवाकार, बस कंडक्टर का रूप।
न वहां बस अंकित हुई थी न सीट इत्यादि। बस कंडक्टर खड़ा था, मानो चलती बस में अपने दो
पैरों को जमाए, स्थिर रह पाने, सन्तुलन साधने की देह मुद्रा में, अपना काम करता हुआ।
● और अगर
यह कहें किशेषशायी विष्णु या समाधिस्थ शिव और
बुद्ध की ध्यान मुद्रा में गति का पूर्ण शमन है तो यह भी सच नहीं होगा, क्योंकि
ध्यान और विश्रांति भी गति का एक पड़ाव है।
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अब शिल्प और काव्य के संवाद की बात की जाए। कला
इतिहास को पीछे मुड़ कर देखें तो रेनेसां पुरुष महान शिल्पकार मायकलेंजलो कवि भी थे।
अगर दृष्यकलाओं का वे ऐसा चमकता सितारा न होते तो शायद हम उन्हें एक सोनेटकार के रूप
में याद रखते। लेओनार्दो द विंची भी ऐसे ही थे।
और फिर यह सम्वाद एक ही व्यक्ति आत्मा से भिन्न,
दो कलाकारों के बीच भी तो घटित होता आया है। जर्मन कवि रेने मारिया रिल्के और फ्रेंच
शिल्पकार रोदां के सम्बंध भी विख्यात हैं। युवा रिल्के ने लगभग एक शिष्य की सी भक्ति
और निष्ठा से ‘हीरो वरशिप ‘करते हुए शिल्पकार के सानिध्य में वक्त गुज़ारा। वे रोदां
को काम में तल्लीन क्षणों में निहारा करते, कारण दोनों ही मनुष्य के भीतरी संसार तक
अपने अपने ढंग से पहुंचना चाहते थे, उसे अभिव्यंजित करना चाहते थे।
रिल्के, रोदां की मानवीय हाथों वाली कला शृंखला
से बेहद प्रभावित हुए थे। एक पियानो बजाने वाले का हाथ, सोते मनुष्य का हाथ, कुछ चुराता
हुआ हाथ, अपनी भावनाओं को भींचे हुए एक हाथ…
न जाने कितनी भंगिमाएँ। यह हाथ ईश्वर और कलाकार का भी हाथ था और कलम थामने वाले
कवि का भी।
रोदां के करीब रहते हुए युवा रिल्के ने पांच वर्ष
लगा कर रोदां पर एक विनिबन्ध लिखा जिसमें उनकी रचना प्रकिया और कला पर अद्भुत अंतर्दृष्टियां
हैं। उन्होंने रोदां पर एक के बाद एक अध्याय लिखे और आज यह विनिबंध रोदां के अलावा
स्वयं रिल्के की सौन्दर्यबोधात्मक दृष्टि का परिचायक भी है।
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रिल्के ने
‘आर्केक टोरसो ऑफ अपोलो’ नाम की कविता लिखी थी जिसमें अपोलो के भंजित धड़ का अनूठा वर्णन था। शब्दों
या काव्य में किसी दूसरी दृश्यकला या दृश्यकृति का वर्णन ekphrasis कहलाता है। इसी का
एक और उम्दा उदाहरण अंग्रेज़ कवि शैले की कविता Ozimandias है जिसमें
वे रेगिस्तान की रेत में पड़े एक भग्न
मनुष्य- रूप का वर्णन करते
हैं जिसके विशाल पैर तो हैं पर ऊपर का धड़ गिर चुका है। लेकिन रेत में धँसा एक मुख अभी
तक अलग पड़ा है। इसके माथे पर के बल, एक मुड़ा
हुआ ओठ अहंकार और सत्ता के मद का बयान कर रहा है।
यानी उस राजा का भीतरी चरित्र पत्थर में अंकित हो उतर आया है, और आज भी उस भग्नावशेष में बचा हुआ है।
इसी तरह हिंदी कवि विनय कुमार ने दीदारगंज की यक्षिणी
पर एक लंबी कविता लिखी है और उसमें मौर्य काल से आज तक का समय और वातावरण समाया हुआ
है।
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आइए अब देखते हैं एक कला के दूसरी में प्रवाहित होने की अनूठी प्रक्रिया। इसे शिल्पकला में कविता का क्षण भी कहा जा सकता है। शिल्पकला की सबसे बड़ी विलक्षणता उसकी अचलता और मौन है तो काव्य में गतिमान शब्दाधारित अनुभव या व्यंजना है। तो इसे ही आधार बना कर इस संवाद को समझते हैं।
अचल प्रतीत होने वाली शिल्पकृति में जब हम अंतर्निहित गति का अनुभव करते हैं, और अपनी देह में उसे महसूस करते हैं, धीरे धीरे शिल्पकृति के गिर्द घूमते हुए, अनेक कोणों से उसे निहारते हैं, तो हमारे प्रतिबोध और सम्वेदनाएँ भी किंचित बदलती जाती हैं। उदाहरण के तौर पर माइकलएंजेलो की शिल्पकृति ‘डाईंग स्लेव’ (मरता हुआ दास) को देखें। एक कोण से लगता है कि वह निष्प्राण हो चुका है, दूसरे कोण पर एक आशा जगती है कि अभी भी उठने की कोशिश कर रहा है, अगले कोण यह आशा टूटने लगती है, और यह क्रम चलता रहता है- निरन्तर एक संघर्ष… जीवित रहने का, न रह पाने का, सदियों से। यह मूर्ति में काव्य का क्षण है।
फिर किसी भी शिल्पकृति के पाठ में आशंसक का अनुभव भी पहले इंद्रियों से शुरू होता है, फिर धीरे धीरे हम उसके मनोवैज्ञानिक आशयों के प्रति सचेत होने लगते हैं, और अन्ततः इद्रियों, मन, बुद्धि, विचार और चेतना का सहकार मिलकर जो सौंदर्यबोध कराते हैं, वह क्रमिक ‘रीडिंग’ या पाठ शिल्प में कविता के पाठ जैसा ही है।
फिर मूर्ति भी तो काव्य की तरह साहचर्यों (असोसिएशन्स), प्रतीकों, उपमानों की भाषा का इस्तेमाल करती है। भारत की तमाम प्राचीन और क्लासिकी शिल्पकला शरीररचनापरक (anatomical) न होकर उपमानधर्मी और लिरिकल है- वहाँ नयन कमलदल जैसे हैं, खंजन नयन हैं, जंघाएँ कदली स्तंभ सी हैं, सिंह कटि है। गंधर्व और किन्नर हवा में बादलों की तरह भारहीन हैं। केश निचोड़ती सद्यस्नाता के बालों से टपकती बूंदों को एक हंस मोती समझ कर पी रहा है। क्या यह सब काव्य नहीं है?
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दूसरी ओर कविता का तो आरम्भ ही शायद कवि के मानस में तब होता है जब बहते हुए जीवन प्रवाह का कोई एक क्षण, कोई पात्र, कोई पक्ष, कोई छवि या बिम्ब चेतना में ठहर जाता है, स्थिर हो जाता है, तस्वीर सा उतर आता है। तब यही मार्मिक क्षण, कलाकार (कवि) के लिए सौन्दर्यबोधानुभव का क्षण होता है, कविता के आरम्भ का बीज क्षण होता है।
और यों अपने इस बीज के गिर्द, कवि बिम्बों का एक वितान तानता है, बिम्बों की एक पाँत रचता है, धीरे धीरे। या कहें कि एक मूल बिम्ब के पहलू दर पहलू खोलता है, और यों एक काव्यकृति बुनता है।
दूसरी ओर कविता के पाठक या श्रोता (आशंसक) के लिए कविता को पढ़ते/सुनते हुए एक बिंदु ऐसा ज़रूर आता है, जहां अर्थ या अनुभव संघनित सा होने लगता है, स्थिर सा हो जाता है, स्थापित होकर अचल हो जाता है, यानी अर्थ के अनुभव का एक उच्चतम बिंदु (अपैक्स पॉइंट) । वही मेरे लिए कविता में मूर्ति का क्षण है।